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सिर्फ कमजोर विपक्ष ही है क्या पीएम मोदी की ताकत का सबसे बड़ा राज?

देश में बहुत सारे लोग ये मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी ताकत बिखरे हुए और अपनी निजी महत्वाकांक्षा में उलझे हुए विपक्ष का कमजोर होना ही है. यही कारण है कि एक के बाद हर चुनाव जीतने वाली बीजेपी की इस मशीन को कोई रोक नहीं पा रहा है, लेकिन क्या सचमुच यही एकमात्र वजह है या फिर हिंदुत्व के तूफान और सरकार चलाने की अपनी बेजोड़ कला के अलावा कोई और भी ऐसी खास वजह है, जो पिछले दो दशक से मोदी की ताकत को कमजोर नहीं होने दे रही है? वजह तो है लेकिन इसके लिए पिछले पांच-छह दशक के सियासी इतिहास पर थोड़ी गहराई से नजर डालनी होगी.

हालांकि राजनीति के जानकारों का एक बड़ा तबका मानता है कि अगले लोकसभा चुनाव में विपक्ष पूरी तरह से एकजुट होकर बीजेपी की इस विजय-यात्रा को रोक सकता है. उनकी दलील है कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव में देश के करीब 60 फ़ीसदी वोटरों ने बीजेपी को वोट नहीं दिया था. कमोबेश यही स्थिति 2014 के चुनाव वक्त भी थी लेकिन फिर भी दोनों बार बीजेपी सत्ता पाने में आसानी से कामयाब हुई. अगर निष्पक्षता से आकलन किया जाए तो गारंटी के साथ ये नहीं कह सकते कि वे सभी बीजेपी विरोधी मतदाता ही थे. सैद्धान्तिक तौर पर देखें तो उनमें से कई ऐसे वोटर भी थे जिनके पास अगर दूसरा कोई विकल्प नहीं होता तो वे बीजेपी का ही साथ देते. इसलिए इस तथ्य को मानना होगा कि वे गैर-बीजेपी वोटर थे जो 40 दलों के बीच बंटे हुए थे.  

लिहाजा,विश्लेषक मानते हैं कि बिखरा हुआ विपक्ष इस बार भी ऐसा कोई बदलाव लाने की स्थिति में फिलहाल तो नहीं दिखता. कुछ राज्यों में जिस तरह की चुनावी जटिलताएं हैं, वे क्षेत्रीय दलों को संयुक्त विपक्ष की छतरी के नीचे आने से भी रोकेंगी, जिसका मोटा अंदाजा कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा के दौरान सामने भी आ चुका है तो फिर ऐसी क्या वजह है, जो बीजेपी के लिए इतनी मददगार साबित होती चली आ रही है? जाहिर है कि पीएम मोदी का करिश्मा ही बड़ा कारण है पर इसके साथ ही हिंदुत्व का तूफान और सरकार चलाने के तौर तरीके का तालमेल भी इसकी एक वजह है, लेकिन सियासी विश्लेषक कहते हैं कि इसके अलावा भी एक और सबसे बड़ी वजह है, जो मोदी की ताकत को कमजोर नहीं होने दे रही है. वह ये है कि सरकार या पार्टी के भीतर आज ऐसी एक भी आवाज नहीं है, जो मोदी की मुख़ालफ़त करने की हिम्मत जुटा सके.यानी सरकार के अलावा पार्टी पर भी उनका पूरी तरह से नियंत्रण है.

पिछले छह दशक के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो किसी भी सरकार के जाने और दोबारा वापसी न करने की बड़ी वजह सिर्फ विपक्ष नहीं बना है, बल्कि पार्टी के ही किसी बड़े नेता की बगावत ने विपक्ष को ऐसी ताकत दी है. चूंकि आजादी के आंदोलन में कांग्रेस की मुख्य भागेदारी थी, लिहाजा देश को आजादी मिलने के बाद उसने केंद्र और राज्यों की सत्ता पर सालों तक राज किया, जी स्वभाविक भी था लेकिन 60 के दशक में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने पार्टी के भीतर पहली बार मुख़ालफ़त की आवाज उठाई और कांग्रेस से अलग होकर सामाजिक-राजनैतिक और आर्थिक समानता का जो अभियान चलाया,उसके चलते ही कुछ राज्यों में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं थी. उसके बाद अगले यानी 70 के दशक पर निगाह डालें तो कभी कांग्रेस के साथ जुड़े रहे समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण यानी जेपी ने कांग्रेस के खिलाफ समग्र क्रांति लाने का ऐसा आंदोलन छेड़ा कि तब सिर्फ़ राज्यों में ही नहीं बल्कि केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार भी गिर गई. उनकी सरकार में वित्त मंत्री रहे मोरारजी देसाई 1977 में जनता पार्टी की सरकार में प्रधानमंत्री बने. हालांकि आपातकाल लगाने का फैसला ही इंदिरा गांधी को भारी पड़ा लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिए कि इंदिरा ने ही पाकिस्तान के दो टुकड़े करवाये थे.

80 के दशक की बात करें तो कांग्रेस के दिग्गज नेता और मंत्री रहे वी पी सिंह ने अपने ही सबसे करीबी दोस्त राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स घोटाले को लेकर विरोध की ऐसी आवाज उठाई की राजीव दोबारा सत्ता में नहीं लौट पाये. हालांकि तब इस मुहिम में पुराने कांग्रेसी नेता चंद्रशेखर ने भी उनका खुलकर साथ दिया था. लिहाज़ा, कांग्रेस जैसी मजबूत पार्टी की सरकारें भी तभी गिरीं या दोबारा इसलिये नहीं लौट सकीं क्योंकि पार्टी के भीतर से ही कुछ नेता चुनौती बनकर उभरे.  हालांकि मोरारजी देसाई की सरकार गिराने में अगर चौधरी चरण सिंह का हाथ था तो वीपी सिंह को सत्ता से बाहर करने में देवीलाल और चंद्र शेखर की ही अहम भूमिका थी, लेकिन गुजरात में अपने दम पर लगातार चुनाव जीतने वाले नरेंद्र मोदी को 10 साल तक केंद्र पर राज करने वाली मनमोहन सिंह सरकार को हटाने के लिए किसी कांग्रेसी नेता की बैसाखी का सहारा नहीं लेना पड़ा.

लिहाजा,बीजेपी की सबसे बड़ी ताकत का यही राज है कि वहां विरोध की कोई आवाज नहीं है.नेताओं में कुछ आपसी मतभेद हैं भी तो वे नगण्य हैं, जो कांग्रेस के G23 वाले असंतुष्ट नेताओं की तरह मीडिया की सुर्खी नहीं बनते.पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र होने के बावजूद अध्यक्ष पद के लिए सिर्फ एक ही उम्मीदवार का चेहरा सामने आता है.हालांकि बीजेपी के सांसद वरुण गांधी कुछ मुद्दों पर पार्टी से मतभेद रखते हैं लेकिन उनके पास मुख़ालफ़त की वो ताकत नहीं,जो मोदी को चुनौती दे सके.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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