बहुत पहले ही लागू हो जाना था CAA, माहौल में गरमी तो आएगी जरूर लेकिन नहीं रोक सकता कोई भी
सीएए को लेकर एक बार फिर माहौल गरमा गया है. केंद्रीय मंत्री शांतनु ठाकुर ने दावा किया है-
कानून तो है पारित, इसे बस है लागू होना
दिसंबर 2019 में जब नागरिकता संशोधन विधेयक यानी सीएए जब पारित हुआ था, तो उसके बाद से जिस तरह विरोध की आग भड़की थी तो यही लगा था कि उसी वक्त इसको लागू कर दिया जाएगा. हालांकि, तब लगा था कि चुनाव नजदीक थे और इसीलिए इसको लागू करने में देर हो रही है. ऐसे मामले खास तौर पर संवेदनशील होते हैं और इनका असर मतदान पर और मतदान की प्रक्रिया-गुणवत्ता पर भी पड़ता है. वैसे, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि एक हफ्ते में यह कानून लागू हो जाएगा, क्योंकि इसे लागू तो होना ही था. यह पारित तो था ही. हां, यह जरूर है कि जिस तरह उम्मीद की जा रही थी कि यह उन्हीं दिनों लागू हो जाएगा, वह नहीं हो पाया. फिर, इसके बाद एक बात तो तय है कि जिस तरह जामिया मिलिया और उसके आसपास के इलाकों से जो विरोध की शुरुआत हुई थी, उसको देखते हुए कह सकते हैं कि एक बार फिर विरोध तेज होगा और उसकी वजह से जो राजनैतिक ध्रुवीकरण होता है, वह भी तेज होगा, लेकिन यह देर आए, दुरुस्त आए जैसी बात है.
हालांकि, अल्पसंख्यक औऱ खास तौर पर मुस्लिम समुदाय को बहुत दिक्कत है तो सरकार ने वो सारा आकलन कर लिया होगा. इसके बाद ही यह फैसला हुआ होगा, क्योंकि इसका सबसे ज्यादा असर पश्चिम बंगाल और असम पर होगा. थोड़ा-बहुत असर राजस्थान और दिल्ली पर भी होगा, क्योंकि यहां भी पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थी अपनी नागरिकता की बाट जोह रहे हैं, जो सीएए के बाद उनकी उम्मीदों को जगा रहा था. हालांकि, पश्चिम बंगाल और असम में असर अधिक है, तो वहां राजनीति भी होगी, लेकिन यह देर से लिया गया ठीक फैसला है. चूंकि चुनाव नजदीक है, तो यह फैसला होना ही था और यह अवश्यंभावी था.
ममता बनर्जी कर रहीं लफ्फाजी
इस देश में खासकर 2013-14 के बाद जिस तरह की राजनीति हो रही है, उसमें इस तरह की छवि बनाने की, संदेश देने की कोशिश होती है कि राज्यों के नेता और क्षत्रप जो गैर-भाजपा सरकारें हैं, वे कई बार इस तरह की बात करती हैं कि केंद्रीय कानूनों को वह लागू नहीं होने देंगे. हालांकि, यह है विशुद्ध लफ्फाजी ही. भारतीय संविधान के मुताबिक संसद सर्वोच्च है और भारत की जो संप्रभुता है, उसकी गारंटी भी संसद ही देती है तो यह कैसे हो सकता है कि संसद से पारित कानून को वह लागू न होने दें? हां, सोशल मीडिया के दौर में ऐसा होता है कि आप कुछ कर नहीं सकते हैं, लेकिन उस तरह की बयानबाजी से आपका जो कोर वोटर है, वह संतुष्ट होता है, और गोलबंद होता है.
इसी संदर्भ में ममता बनर्जी के उस बयान को भी देखना चाहिए कि वह सीएए को पश्चिम बंगाल में लागू नहीं होने देंगी. एक चीज और ध्यान रकने की है. यह कानून तो 1955 का है. कोई नया कानून नहीं है. इसमें तो बस दो संशोधन हुए हैं. पहला संशोधन तो 2003 का है. यह तो दूसरा संशोधन है. 2003 के संशोधन के मुताबिक एक राष्ट्रीय रजिस्टर रखा जाना जरूरी था और खास तौर पर यह रजिस्टर उन राज्यों में रखा जाना बहुत जरूरी था, जहां सीधे-सीधे प्रवासी आए हैं. इनमें राजस्थान, पश्चिम बंगाल, असम आदि महत्वपूर्ण हैं. खासकर, पश्चिम बंगाल और असम के लिए यह अहम था, क्योंकि इसमें यह हिसाब रखा जाना था कि कितने प्रवासी कहां आए?
मुस्लिमों को भड़काने की कोशिश
इसीलिए, जब 2019 में यह संशोधन विधेयक आया तो अल्पसंख्यक समुदाय खासकर मुसलमानों को भड़काने की कोशिश की गयी, क्योंकि इसमें देखने की बात थी कि मुसलमानों को तो कोई दिक्कत नहीं हुई, लेकिन अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बर्मा, बांग्लादेश आदि से जो हिंदू या बौद्ध या कोई भी गैर-मुस्लिम जो आए, उनको दिक्कतें हुईं. दिल्ली के नजफगढ़ में भी देखें तो बहुतेरे ऐसे हिंदू शरणार्थी मिल जाएंगे जो पड़े हुए हैं, लेकिन उनको नागरिकता नहीं मिली है. चूंकि नागरिकता नहीं है, इसलिए उससे जुड़ी योजनाओं का फायदा नहीं मिल रहा है. जैसे, राशन कार्ड का नहीं बनना या फिर जब नागरिक नहीं हैं, तो नौकरी ही कैसे मिलेगी?
आजकल सब कुछ आधार से जुड़ा है, तो उनसे जुड़ी दुश्वारियों को दूर किया जा रहा है. कायदे से इसको तो अब तक लागू हो जाना चाहिए था, इस पर कोई बवाल ही नहीं होना चाहिए था. हमारे हिसाब से तो जो विरोध हुआ, वह दरअसल 2003 का संशोधन इनको याद आया, जिसमें राष्ट्रीय रजिस्टर बनना था. 2003 में जब वाजपेयी सरकार ने इस पर काम शुरू किया तो 2004 में उनकी सरकार ही चली गयी. उसके बाद से तो यूपीए सरकार रही और 2014 तक फिर उस पर काम ही नहीं हुआ. मुस्लिमों को लगा कि जब यह कानून लागू हुआ तो फिर नागरिकता रजिस्टर बन जाएगा और फिर बहुत सारा जो डाटा है, जो आंकड़ा है, तुष्टीकरण के नाम पर जो अधिकार और सहूलियतें हासिल हैं, वो उनके हाथ से निकल जाएंगी.
संसद की सर्वोच्चता असंदिग्ध
तो, ममता बनर्जी हों या कोई भी, वे कुछ भी कहें, ये देर से हुआ एक बेहद दुरुस्त कदम है. यह किसी भी मुख्यमंत्री के बस का नहीं है कि वह ऐसे फैसलों को रोक लो. कश्मीर के बारे में भी यह कहा जाता था, लेकिन संसद के बनाए कानून अब वहां भी लागू हैं. असम और पश्चिम बंगाल में तो कोई अलग दर्जा भी हासिल नहीं है जैसा कश्मीर को 2019 के पहले हासिल था, तो यह कहना लफ्फाजी ही है कि वे कानून को रोक देंगे. हां, इतना तय है कि निहित राजनीतिक, सामाजिक तत्त्व तथाकथित अल्पसंख्यकों को, जो कई राज्यों में तो बहुसंख्यक हैं, उनको भड़काएंगे और उसका फायदा निश्चित तौर पर भाजपा को ही मिलेगा.
2003 में वह यह संशोधन लेकर आयी थी, फिर 2019 में यह संशोधन लेकर आयी, तो फायदा भी उसी को मिलेगा, हालांकि सबसे अधिक फायदा तो उनको मिलेगा जो कई वर्षों से राजस्थान या दिल्ली में शरणार्थी का जीवन व्यतीत कर रहे हैं और उनको कोई सहूलियत नहीं मिली है. दूसरा काम यह होगा कि जो नागरिकता मिलने का अब तक का प्रॉसेस था, बहुत लंबा-चौड़ा कि पहले जिलाधिकारी को दीजिए, फिर वो उसका वर्गीकरण करते थे. अब एक पोर्टल बन गया है और उसमें सुविधा हो गयी है. तो, भाजपा नीत सरकार इस कानून को लागू करेगी ही. वह चाहे तो दबंगई से या फिर कोर्ट के माध्यम से ऐसा कर सकती है, बाकी सब वाग्विलास है.
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