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BLOG: ढीला गठबंधन करके मायावती भाजपा को हरवाएं या बसपा का अस्तित्व बचाएं

मायावती ने पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की बजाए अजित जोगी की पार्टी जनता कांग्रेस गठबंधन करके और हाल ही में मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के साथ गठबंधन न करने का तगड़ा झटका देकर धुएं का मुकुट पहनने वालों का दिल तोड़ दिया है.

बसपा सुप्रीमो बहन मायावती का आसन्न विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस के साथ किसी भी राज्य में गठबंधन नहीं हो पाया है. इससे कांग्रेस से ज्यादा उन लोगों के पेट में अधिक दर्द हो रहा है, जो भाजपा को अपने दम पर नहीं, बसपा के वोटबैंक के दम पर हारते देखना चाहते हैं!

यह सपना देखने वालों में प्रमुख रूप से वामपंथी और अन्य भाजपा विरोधी दल शामिल हैं. वे मनौतियां मना रहे थे कि फिलहाल एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बसपा-कांग्रेस की पटरी बैठ जाए तो इन बड़े राज्यों में तीखे जनाक्रोश और घोर एंटीइनकम्बेंसी झेल रही भाजपा को मटियामेट किया जा सकता है. पिछले दिनों हिंदी पट्टी के कई राज्यों से आए उप-चुनावों के नतीजे भी कुछ ऐसा ही संकेत भी दे रहे थे. लेकिन मायावती ने पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की बजाए अजित जोगी की पार्टी जनता कांग्रेस (छत्तीसगढ़-जे) से गठबंधन करके और हाल ही में मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के साथ गठबंधन न करने का तगड़ा झटका देकर धुएं का मुकुट पहनने वालों का दिल तोड़ दिया है.

मायावती ने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को दलित विरोधी और भाजपा-आरएसएस का एजेंट बताते हुए कांग्रेस से गठबंधन न हो पाने का जिम्मेदार ठहराया है. उनका यह भी कहना है कि कांग्रेस की अकड़ और आकंठ अहंकार में डूबे होने के कारण बसपा-कांग्रेस एक साथ नहीं आ पा रहे हैं. यह अजीब लगता है क्योंकि जोगी से हाथ मिलाते समय दिग्विजय का भाजपा के दवाब और सीबीआई के डर से गठबंधन नहीं करने वाला बयान आया ही नहीं था. देखा जाए तो दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश की राजनीति में अब लगभग अप्रासंगिक हो गए हैं और मंच पर उन्हें मुंह तक खोलने नहीं दिया जाता! ऐसे में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ के साथ मायावती की लंबी मुलाकातें निर्णायक न होकर दिग्विजय सिंह के बयान कैसे महत्वपूर्ण हो गए!

राजस्थान में अपनी एकजुट होती शक्ति, सत्ता विरोधी लहर और हर पांच साल में सरकार बदल जाने का पैटर्न देखते हुए कांग्रेस को बसपा का साथ मंजूर ही नहीं था. लेकिन मध्यप्रदेश में तो वह बसपा के लिए लाल कालीन बिछाए बैठी थी. वह यहां बीते 15 साल से लगातार सत्ता से बेदखल है. वर्ष 2013 के विधानसभा चुनावों में बसपा को लगभग 6.7% वोट मिले थे. यह हिस्सेदारी कांग्रेस के लिए इस बार यकीनन बाजी पलट देती. लेकिन जो लोग बसपा की राजनीति को करीब से जानते हैं, उन्हें कोई गलतफहमी नहीं है कि कांग्रेस से गठबंधन न हो पाने में भाजपा, सीबीआई या अन्य जांच एजेंसियों का कोई दबाव काम कर रहा है. क्या कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने मायावती को इन एजेंसियों का कुछ कम भय दिखाया था?

बसपा की एक ही रणनीति है कि अपना मूल वोटबैंक टूटने न पाए और किसी से भी गठबंधन करके येनकेनप्रकारेण सत्ता में भागेदारी हथियाई जाए, फिर चाहे वह अवसरवादिता की शक्ल ही क्यों न ले ले. उसे भाजपा की साम्प्रदायिक छवि या कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष छवि से कोई लेना-देना नहीं है. यूपी में वर्षों पहले भाजपा के साथ ढाई-ढाई साल सरकार चलाने का समझौता हम देख ही चुके हैं, जब भाजपा की बारी आने पर मायावती ने ठेंगा दिखा दिया था. मनुवाद का घोर विरोध करने वाली बसपा ने ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ के नारे में पनाह ढूंढ़ ली.

इस बार भी बसपा कांग्रेस के साथ तीनों राज्यों में अपेक्षा से ज्यादा लाभदायक गठबंधन चाहती थी. एमपी के विंध्य और चंबल क्षेत्र में बसपा 40 से ज्यादा सीटें चाहती थी, जो कांग्रेसी दिग्गज माधवराव सिंधिया के पुत्र ज्योतिरादित्य और अर्जुन सिंह के पुत्र अजय सिंह के गढ़ बने हुए हैं. पेंच यह था कि यूपी से सटे मात्र इन्हीं इलाकों में बसपा की पैठ भी है. इनमें से 15 से 20 सीटें ऐसी हैं जहां बसपा का वोट प्रतिशत 15-20% तक है. सवर्ण और दलित राजनीति के गढ़ माने जाने वाले ये इलाके दोनों पक्ष छोड़ने को तैयार नहीं थे. कांग्रेस छत्तीसगढ़ की 90 सीटों में से 35 सीटें बसपा को किसी हाल में नहीं देने वाली थी, लेकिन जोगी ने दे दीं और वहां गठबंधन हो गया. राजस्थान में कांग्रेस नेता ही नहीं चाहते थे कि ये गठबंधन हो क्योंकि इससे कांग्रेस को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 34 सीटों पर वोटों के बंटवारे का नुकसान झेलना पड़ सकता था. अब बसपा के सभी सीटों पर चुनाव लड़ने से एमपी और राजस्थान में कांग्रेस को उन सीटों पर अवश्य कठिनाई होगी, जहां मुकाबला कांटे का होगा. राजस्थान में तो करीब 40 सीटों पर इसका गहरा असर पड़ने जा रहा है.

भाजपा की सामाजिक अभियांत्रिकी, सपा के बिखराव और कांग्रेस के टूटे जनाधार के चलते 2014 के आम चुनाव में बसपा का खाता तक नहीं खुल पाया था. देश के 20% दलित मतदाताओं में अन्य राजनीतिक दल सेंध लगा ही रहे हैं. पिछले दस साल में बसपा का लगभग 8 प्रतिशत वोटबैंक छिटक चुका है. इसी के मद्देनजर हिंदी पट्टी में बसपा कांग्रेस के दम पर अपना जनाधार बढ़ाना चाहती थी और कांग्रेस बसपा में सहारा ढूंढ़ रही थी. स्पष्ट है कि दोनों की मंजिलें और मकसद अलग-अलग थे. लेकिन कांग्रेस अच्छी तरह समझने लगी है कि एमपी, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में एक हद से ज्यादा बसपा को तवज्जो देना उत्तर प्रदेश की तरह अपने बचे-खुचे जनाधार को मटियामेट कर देना होगा.

दूसरी तरफ मायावती की प्रमुख चिंता यह हुआ करती है कि गठबंधन होने के बाद बसपा के वोट तो कांग्रेस को मिल जाते हैं लेकिन इसका उल्टा नहीं होता. किसी भी राजनीतिक दल को राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बनने या बरकरार रहने के लिए के लिए जरूरी है कि वो लोकसभा चुनाव में तीन अलग-अलग राज्यों की कम से कम 11 सीट जीते. साथ ही कम से कम चार विधानसभा चुनावों में कुल वैध मतों के 6% वोट और 4 संसदीय सीट जीतना उसके लिए अनिवार्य है. बसपा के रणनीतिकारों का आकलन यह था कि अगर कांग्रेस के वोट ट्रांसफर न हुए तो तीनों राज्यों; खास कर मध्य प्रदेश में पार्टी का मत प्रतिशत बहुत कम हो सकता है और इससे बसपा का राष्ट्रीय दर्जा भी खतरे में पड़ सकता है. इस संबंध में चुनाव आयोग का नोटिस मिलने के बाद हुए दिल्ली के चुनाव में सभी 70 सीटों से उसे मात्र 1.3% वोट मिले थे. लोकसभा में पहले ही उसका कोई सांसद नहीं है.

ऐसे में मायावती कम सीटें लेकर कांग्रेस से गठबंधन करके भाजपा को हराने का सपना देखने वालों की मन्नतें पूरी करें या बसपा का अस्तित्व बचाने का जतन करें.

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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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