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उपचुनाव नतीजे: विपक्ष को मिला जीत का फॉर्मूला, बीजेपी को तलाशना होगा इसका तोड़

लोकसभा की चार सीटों और विधानसभा की 10 सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों का निचोड़ यही है कि विपक्ष को जीत का या यूं कहा जाए कि मोदी को हराने का फार्मूला मिल गया है. अब मोदी-शाह की जोड़ी को उस विपक्षी एकता का कोई तोड़ निकालना ही होगा जिसे दोनों अवसरवादिता की एकता कह-कहकर उसका सियासी मजाग उड़ाते रहे हैं. अगर विपक्ष में से सिर्फ कांग्रेस की बात की जाए तो उसके लिए नतीजों का निचोड़ यही है कि वो बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की भूमिका में आती जा रही है और 2019 की विपक्षी एकता की धुरी बनने का अवसर गंवाती जा रही है. लिहाजा उसे इन नतीजों से बहुत ज्यादा खुश होने के बजाए बीजेपी की तरह चिंतित होना चाहिए.

पहले सवाल ये उठाते है कि इन उपचुनावों के नतीजों का अगले छह महीने बाद होने वाले राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों पर क्या असर होगा. साफ है कि इन राज्यों में कांग्रेस और बीजेपी के बीच का ही मुकाबला है. इन तीनों राज्यों में से दो (मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़) में बीजेपी तीन बार से काबिज है और राजस्थान का सियासी मिजाज बताता है कि वहां हर पांच साल बाद सत्ता में परिवर्तन होता रहता है. तीनों ही राज्यों में आमतौर पर बीजेपी और कांग्रेस के बीच हार जीत का अंतर डेढ़ से दो फीसद वोटों का रहता है (2013 को छोड़ दिया जाये तो).

पिछली बार तो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को बीजेपी से सिर्फ 0.75 फीसद वोट कम मिले थे और उसे विपक्ष में बैठना पड़ा था. इतना कुछ विस्तार से बताना इसलिए जरुरी है कि कांग्रेस को लग रहा है कि वह तीनों राज्यों में बीजेपी को अकेले ही पटखनी दे सकती है और किसी अन्य दल के लिए सीटें छोड़ने की गुंजाइश नहीं है. लेकिन यहां मायावती अपना हिस्सा मांग सकती है. कर्नाटक में मायावती ही विपक्षी दलों के बीच आर्कषण का केन्द्र रही थीं. मायावती समझ गयी हैं कि जिस तरह वह बीजेपी और मोदी की हार में अपने वजूद का बचना देख रही हैं वैसा ही कुछ अन्य विपक्षी दल भी देख रहे हैं जिसमें कांग्रेस भी शामिल है. ऐसे में मायावती राजस्थान और मध्यप्रदेश में खासतौर से कांग्रेस से सम्मानजनक समझौता करने को कह सकती है.

2019 में मोदी के खिलाफ अगर कांग्रेस को कुछ बड़ा करना है तो उसे इन राज्यों के विधानसभा चुनावों में बड़ा दिल दिखाना ही होगा. क्या वह ऐसा कर पाएगी, क्या राजस्थान में अशोक गहलोत और मध्यप्रदेश मे दिग्विजय सिंह ऐसा कर पाएंगे. इन उपचुनावों के नतीजों का यूपी 2019 पर खासा असर पड़ेगा. अभी तक मायावती और अखिलेश के बीच समझौते की बात हो रही है लेकिन अब कैराना में जीत के बाद अजीत सिंह का लोकदल भी उस गठबंधन का हिस्सा बनने को लालायित दिख रहा है. पहले फूलपुर, गोरखपुर और अब कैराना...तय है कि यूपी में अगर कांग्रेस भी इस गठबंधन में शामिल कर ली गयी (अगर उसने राजस्थान और एमपी के विधानसभा चुनावों में मायावती को सम्मान रखा) तो बीजेपी को सीधे-सीधे 50 सीटों का नुकसान उठाना पड़ सकता है.

कहते है कि राजनीति में दो और दो हमेशा चार नहीं होते कभी-कभी छह भी होते हैं. ऐसा छक्का यूपी में विपक्ष मारते दिख रहा है. यहां बीजेपी के लिए चिंता की बात है कि अखिलेश यादव समझौते के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं. वह कह चुके हैं कि बड़ी लड़ाई में छोटे मोटे स्वार्थ ताक पर रखने ही पड़ते हैं. विधानसभा चुनावों में भी एसपी ने कांग्रेस के लिए एक दर्जन से ज्यादा ऐसी सीटें छोड़ दी थी जहां से पार्टी का जीतना तय था. यूपी में मुस्लिम वोटों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. यह बात भी कैराना ने तय कर दी है जहां से यूपी को पहला मुस्लिम सांसद मिला है.

बिहार की नजर से देखा जाए तो नीतीश कुमार शायद पछता रहे होंगे कि उन्होंने बीजेपी के साथ आकर क्या सियासी शतरंज में मात तो नहीं खा ली. आखिर उनके ही दल के विधायक के इस्तीफे से खाली हुई थी जोकीहाट की सीट. यहां से उपचुनाव जीतना नीतीश कुमार को जीतना ही चाहिए था लेकिन जेल में दिन बिता रहे चारा चोर लालू के सियासी रंगरुट बेटे ने बाजी पलट दी. नीतीश कुमार के लिए चिंता की बात सीएसडीएस की सर्वे हैं जो बता रहा है कि बिहार में बीजेपी मजबूत हो रही है और जदयू कमजोर रो रहा है. नीतीश कुमार ने कुछ दिनों से सुर बदला है. नोटबंदी की आलोचना की है, बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की वकालत की है और सांप्रदायिक सदभाव के लिए जान देने का संकल्प दोहराया है. जोकीहाट की हार के बाद नीतीश कुमार कुछ ऐसा तो नहीं सोच रहे जो 2019 से पहले सभी राजनीतिक पंडितों को चौंका जाए. यह वक्त बताएगा लेकिन तय है कि बिहार में खिचड़ी पकनी शुरू हो गयी है.

महाराष्ट्र में बीजेपी एक सीट पर जीती और एक पर हारी है. इस जीत के बाद संभव है कि शिवसेना को लगे कि बीजेपी के साथ लड़ने में ही भलाई है. हो सकता है कि उसे लगे कि बीजेपी को हराने के लिए विपक्ष का हिस्सा बनना जरुरी है. लेकिन तय है कि एनसीपी और कांग्रेस के बीच चुनावी गठबंधन लगभग हो ही गया है. इसी तरह झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने दोनों सीटें सिल्ली और गोमिया को निकाल कर सत्तारुढ़ बीजेपी को परेशानी में डाला है. वहां भी कांग्रेस और लालू के दल के साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा एक गठबंधन के तहत लोकसभा चुनाव लड़ता दिख रहा है.

बीजेपी के लिए सचमुच संकट है. अगर विपक्ष इसी तरह एक होता रहा तो खुद के बल पर 51 फीसद वोटों का जुगाड़ करना बेहद कठिन हो जाएगा. बीजेपी को यह भी समझना चाहिए कि आखिर क्यों वह उपचुनाव हार रही है जहां जहां उसकी सरकार राज्य में है. कहीं यह विपक्षी एकता से ज्यादा सत्तारुढ़ बीजेपी मुख्यमंत्रियों के कामकाज के खिलाफ तो वोट नहीं है. हमने यह बात राजस्थान में भी देखी और मध्यप्रदेश में भी और बिहार में भी. बीजेपी के लिए बहुत आसान है कह देना कि विपक्ष एक हो गया और हार हो गयी लेकिन पार्टी आलाकमान को देखना होगा कि उसकी राज्य सरकारें कहां क्या चूक कर रही हैं, सत्ता और संगठन में कहां खाइयां पैदा हो रही हैं और कहीं मोदी-शाह का केन्द्रीयकरण आम कार्यकर्ता में भ्रम तो पैदा नहीं कर रहा है.

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