एक्सप्लोरर
Advertisement
BLOG : औरत की देह पर हक किसका, उसका या समाज का?
इसी साल की शुरुआत में पटना की 35 साल की एचआईवी पॉजिटिव महिला रेप का शिकार हुई. फिर प्रेग्नेंसी को अबॉर्ट करने के लिए सरकारी अस्पताल गई तो डॉक्टरों ने पति की मंजूरी मांगी और महिला का आईडी भी.
मुंबई में 13 साल की रेप विक्टिम ने एक बच्चे को जन्म दे दिया है. यह मामला तब चर्चा में आया था, जब कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस बच्ची के अबॉर्शन की अनुमति दी थी. रेप विक्टिम बच्ची 31 हफ्ते की प्रेग्नेंट थी और हमारे देश के 1971 के गर्भपात कानून ‘मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) एक्ट’ में 20 हफ्ते की गर्भावस्था के बाद अबॉर्शन की अनुमति नहीं है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला स्वागत योग्य था.
चूंकि अभी दो महीने पहले दिल्ली हाई कोर्ट ने 10 साल की एक रेप विक्टिम को अबॉर्शन की मंजूरी नहीं दी थी. कोर्ट में मामला जब गया था, तब बच्ची 26 हफ्ते की प्रेग्नेंट थी. जाहिर सी बात है, अदालती प्रक्रियाओं में समय लगता है और तब तक प्रेग्नेंसी के वीक्स बढ़ते जाते हैं. तब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया था और बच्ची को 10 लाख रुपए का कंपनसेशन देने की बात कही थी. चूंकि अबॉर्शन न होने की वजह से नन्हीं सी बच्ची पर बुरा असर पड़ सकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने दोनों ही मामलों में जो कदम उठाया, उसके लिए एपेक्स कोर्ट को शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए. गर्भपात हमारे यहां एक तरह का लांछन ही है. रेप विक्टिम्स के मामलों में तो सेंसिटिविटी दिखाई भी जा सकती है लेकिन दूसरे मामलों में हम बहुत कठोर हो जाते हैं. खासकर अनब्याही लड़कियों या बीवियों के मामलों में. गर्भपात कराने वाली औरतें हैवान समझी जाती हैं- भले ही वैवाहिक रिश्तों में वे कितने ही हैवानों को सालों तक ढोती रहें. लेकिन पतियों के कनसेंट यानी मंजूरी के बिना गर्भपात कराना उनके लिए लीगली बहुत मुश्किल है. भले ही वह बालिग ही क्यों न हों. ऐसे ही एक मामला पटना में भी हुआ था.
इसी साल की शुरुआत में पटना की 35 साल की एचआईवी पॉजिटिव महिला रेप का शिकार हुई. फिर प्रेग्नेंसी को अबॉर्ट करने के लिए सरकारी अस्पताल गई तो डॉक्टरों ने पति की मंजूरी मांगी और महिला का आईडी भी. पति तो उसे पहले ही घर से निकाल चुका था- मायके वाले भी उसे छोड़ चुके थे. आईडी उसके पास था नहीं. मामला पटना हाई कोर्ट भी गया लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात. पेट में पलने वाला बच्चा बड़ा होता गया. लीगली उसे अबॉर्ट करना संभव ही नहीं था. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में भी पटना हाई कोर्ट और सरकारी अस्पताल से पूछा कि ऐसे मामले में बालिग महिला की मंजूरी क्यों काफी नहीं है.
इसी से गर्भपात के कानून में संशोधन के लिए थोड़ी आशा फूटती है. इन सभी मामलों में एमटीपी कानून में जो 20 हफ्ते की समय सीमा है, दुखद है कि बहस मुबाहिसा सिर्फ वहीं तक केंद्रित रह जाता है. लेकिन कानून में सिर्फ यही एक पेंच नहीं है. यह मेडिकली तय किया जा सकता है कि कितने हफ्ते सुरक्षित हैं, कितने नहीं. मानवतावाद की दुहाई भी एक किनारे. असल समस्या है, गर्भपात का एक कंडीशनल राइट होना. मतलब औरत गर्भपात सिर्फ तभी करा सकती है जब बच्चे के फिजिकली या मेंटली हैंडिकैप होने का खतरा हो, वह मां की सेहत के लिए खतरा हो या गर्भनिरोध का साधन फेल हो गया हो. ऐसी स्थितियों में औरत नहीं, डॉक्टर ही तय करते हैं कि अबॉर्शन होना चाहिए या नहीं.
अक्सर डॉक्टर प्रेग्नेंट औरत के परिवार से सलाह-मशविरा करते हैं. इससे यह प्रक्रिया लंबी होती जाती है और अक्सर औरत की प्राइवेसी खतरे में पड़ती है. सवाल यही है कि औरत के शरीर पर हक किसका है, उसका, उसके परिवार का या समाज का. अभी तक तो समाज का ही है, तभी अभी कुछ ही दिन पहले 17 साल की एक रेप विक्टिम को 20 हफ्ते के गर्भ के साथ कर्नाटक हाई कोर्ट से अबॉर्शन की मंजूरी सिर्फ इसलिए नहीं मिली, क्योंकि उसकी जान को कोई खतरा नहीं है. बच्ची एक बुरे हादसे को भुलाकर आगे पढ़ना चाहती है लेकिन उसकी इच्छा के कोई मायने हैं ही कहां?
औरत की इच्छा को ठेंगा. इसके बावजूद कि सुप्रीम कोर्ट राइट टू प्राइवेसी पर मुहर लगा चुका हो. औरत की ऑटोनॉमी की बात कह चुका है. 2009 में तो जस्टिस के.जी.बालाकृष्णनन ने भी यह दोहराया था कि गर्भपात में लड़की की सहमति जरूरी है. वह एक मंदबुद्धि महिला के अबॉर्शन के एक मामले में फैसला सुना रहे थे. अबॉर्शन के एक्ट में बदलाव की वकालत करने वाले भी इसी सहमति का सवाल उठाते हैं. उन्हें तो 20 हफ्ते की डेडलाइन पर भी आपत्ति है. दरअसल चार दशक पहले जब यह डेडलाइन सेट की गई थी, तब यह विवेकाधीन फैसला था. लेकिन अब देश ने मेडिकली काफी तरक्की कर ली है. प्रेग्नेंसी का टर्मिनेशन यानी समापन अब सुरक्षित है. लेकिन हम पहले का ही रोना रो रहे हैं.
लकीर को पीटना हमारा पैशन है. औरत की देह पर सबका हक है- सिर्फ उसे छोड़कर. शादी जैसे इंस्टीट्यूशन में दाखिल होने के पहले भी नहीं, उसके बाद भी नहीं. शादी असेंशियली एक परमिट होता है, अपने शरीर को सबमिट करने का. शादी को सेक्स का इंप्लाइड कनसेंट माना जाता है, तभी हम मैरिटल रेप यानी विवाह में बलात्कार को क्रिमिनल नहीं मानते. चूंकि यहां औरत के कनसेंट की जरूरत ही महसूस नहीं होती. लेकिन अबॉर्शन में यह कनसेंट पति से लेना ही पड़ता है, चूंकि यहां मामला आदमी का होता है. उसके कनसेंट की हमेशा जरूरत होती ही है. उसकी मंजूरी के बिना आप दो कदम भी नहीं चल सकतीं. शादी में औरतें शाब्दिक अर्थों में और लीगली भी अपना तन-मन दोनों सौंपती है.
अक्सर लड़के की चाह में बच्चे पैदा करती जाती हैं और गर्भपात के लिए पति की मंजूरी की बाट जोहती रहती हैं. यह तो शादीशुदा होने की स्थिति है. जिन स्थितियों में लिव-इन या प्रेम-प्यार के मामले होते हैं, वहां अबॉर्शन को लेकर हम औरत पर कीचड़ फेंकते हैं. स्वच्छंद यौन संबंध के कारण उसे विलासी घोषित करते हैं. जनदृष्टि में संदिग्ध बनाते हैं. ऐसे में लड़का बच जाता है, लड़की धर ली जाती है.
जरूरत है, अबॉर्शन को सेफ बनाने की. डब्ल्यूएचओ के डेटा के हिसाब से अनसेफ अबॉर्शन्स के कारण हर साल तीन हजार से ज्यादा औरतें मारी जाती हैं. कितनी विकलांग होती हैं, इसका कोई डेटा नहीं है. इसीलिए अबॉर्शन के साथ जुड़े लांछनों को दूर किया जाए. यह काम सरकार नहीं, गैर सरकारी संगठन कर रहे हैं. सीआरईए नामक संस्था ने दो महीने पहले इसके लिए एक कैंपेन चलाया था. उसकी वेबसाइट पर अब भी छोटी डॉक्यूमेंट्रीज हैं जो बताती हैं कि गर्भपात से न तो औरत बांझ होती है, न अछूत. हम उस वेबसाइट पर बहुत कुछ पढ़ सकते हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
हिंदी समाचार, ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें ABP News पर। सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट एबीपी न्यूज़ लाइव पर पढ़ें बॉलीवुड, लाइफस्टाइल, Blog और खेल जगत, से जुड़ी ख़बरें Khelo khul ke, sab bhool ke - only on Games Live
और देखें
Advertisement
ट्रेंडिंग न्यूज
Advertisement
Advertisement
टॉप हेडलाइंस
विश्व
छत्तीसगढ़
बॉलीवुड
क्रिकेट
उमेश चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकारCommentator
Opinion