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परदे के नायक असल जिंदगी में फिसड्डी ही होते हैं
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नवाजुद्दीन सिद्दीकी का नाम भी मीटू की चपेट में आ गया है. उन पर प्रेम संबंधों की धज्जियां उड़ाने का आरोप पहले भी लग चुका है. उनके प्रशंसक हैरान परेशान हैं. शेक्सपीयर के जूलियस सीजर स्टाइल में पूछ रहे हैं- यू टू ब्रूटस!! बाकियों का तो पता नहीं, लेकिन नाना पाटेकर के घेरे में फंसने पर हमने पूछा था- नाना पाटेकर! ये कैसे हो सकता है... हमारा वह नायक धूल चाट रहा था जिसे हमने धो-पोंछकर इज्जत के सिंहासन पर बैठाया था. समाज के प्रति उनकी जिम्मेदार सोच सिकुड़ती सी लगी थी- मानो प्रशंसक धोखे का शिकार हो गया हो. उसका हीरो जीरो बन गया है. हीरो के जीरो बनने पर तकलीफ होती है. हीरो हर हाल में हीरो होता है. उदात्त, विनयशील, नम्रता से भरा- गुणों की खान. किसी के साथ अन्याय नहीं कर सकता- अन्याय को बर्दाश्त भी नहीं कर सकता. उसके हाथों किसी का उत्पीड़न हो जाए तो मन अजीब-अजीब सा हो जाता है. हीरो के साथ-साथ अपनी सोच पर भी धिक्कार होता है.
माइकल जैक्सन पर बच्चों के सेक्सुअल असॉल्ट का आरोप लगा था, तब भी फैन्स के दिल टूटे थे. उनकी मौत के नौ साल बाद भी कोई न कोई, कहीं न कहीं उन पर तरह-तरह के आरोप लगाता रहता है. आपको उनके गानों को गाते हुए लगता है- हम एक अपराधी को गाए जा रहे हैं. स्टेन ली के मशहूर कॉमिक्स को पढ़ते हुए लगता है कि 90 साल का बुजुर्ग यंग नर्सेज को कैसे दबोच सकता है? सर्वाइवर ऑफ द फिटेस्ट जैसी थ्योरी गढ़ने वाले महान वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन शादीशुदा आदमियों को ‘पुअर स्लेव’ कैसे कह सकते हैं जिसे आखिरकार शादी इसीलिए कर लेनी चाहिए क्योंकि ‘वह सारी जिंदगी अकेले नहीं रह सकता’.
इन सभी कहानियों के पन्नों में नायकत्व के नए प्रतिमान हैं. नैतिकता का उपहास भी है. मानवीय कमजोरियों का जिक्र है. हमारे मन का हीरो गलतियां नहीं करता. पर हीरो मन बनाता है. सार्वजनिक छवि से इतर हीरो हीरो भी हो सकता है, विलेन भी. गलतियां भी कर सकता है. यह हमारे ऊपर है कि हीरो की हरकत पर हम उसे माफ करें, या माफ न भी करें. अक्सर परदे के महानायक असल जिंदगी में फिसड्डी होते हैं. अपनी बिरादरी के असुरक्षित साथियों के समर्थन में आवाज उठाना जरूरी नहीं समझते. ऐसी शख्सीयत को हमारा मन नायक से महानायक कैसे बना सकता है.
जरूरत इस बात की है कि चैंपियन्स को देवपुरुष बनाया ही न जाए. क्योंकि जब हम व्यक्ति को उसकी छवि का ही रूप मानने लगते हैं तो इस द्वंद्व में फंस जाते हैं. छवियों में हीरो और विलेन तलाशने वालों के लिए अमेरिकी डिस्ट्रिक्ट जज जेड रेकॉफ की टिप्पणी याद रखने योग्य है. भारतीय मूल के व्यापारी रजत गुप्ता को फाइनांशियल धोखाधड़ी के मामले में दो साल की सजा सुनाते हुए 2012 में उन्होंने कहा था- इस देश और दुनिया के इतिहास में ऐसे सैकड़ो उदाहरण हैं जब एक अच्छा इनसान बुरा हो जाता है. इसीलिए समाज के ढांचे को सुरक्षित रखने के लिए ऐसे लोगों को सजा दिया जाना जरूरी है. हम फिर भी पूछते रहते हैं- कॉरपोरेट जगत की नामी हस्ती जो बड़ी मेहनत और लगन से शिखर पर पहुंची थी, उसे धोखाधड़ी से पैसा कमाने की क्या जरूरत थी.
इसीलिए हमारे लिए यह सोचना जरूरी है कि नायक गढ़े ही क्यों जाते हैं? दरअसल हमारे पूजने के लिए बाजार मिल-जुलकर नायक रचता रहता है. व्यक्ति एक बार अच्छा प्रदर्शन करता है तो बाजार उसे घेरकर खड़ा हो जाता है. उसकी छवि उभारता है, फिर उसी छवि से चांदी काटता है. हम ह्यूमन को सुपरह्यूमन बना डालते हैं. इसीलिए उसकी अच्छाइयां से जितनी जल्दी मोहब्बत होती है, उसकी बुराइयों से उतनी ही जल्दी नफरत भी होने लगती है.
नायक, जब खलनायक बनने लगें तो उन्हें मंच से खींचकर उतार दिया जाना चाहिए. सामाजिक जिम्मेदारी के बिना नायक, नायक हो ही नहीं सकता. दो साल पहले मशहूर म्यूजिक बैंड फिंक फ्लॉयड ने यही साबित किया था. 2016 में इस बैंड के अलग हो चुके गायकों ने फिलिस्तीन और गाजा पट्टी की आजादी के लिए निकली विमेन बोट के समर्थन में जबरदस्त बयान दिया था. उनके एक मेंबर रॉजर्स वॉटर ने गाजा पर एक गीत भी गाया था- वी शेल ओवरकम. इसी तरह हॉलिवुड की नामचीन ऐक्ट्रेस मेरिल स्ट्रीप ने 2017 में गोल्डन ग्लोब्स पुरस्कार लेते समय राष्ट्रपति ट्रंप के उस भाषण का जोरदार विरोध किया था, जिसमें उन्होंने एक विकलांग रिपोर्टर का मजाक उड़ाया था. बेशक, नायक सिर्फ अपनी हरकत को ही दुरुस्त नहीं रखता, बल्कि दूसरे की हरकतों का भी विश्लेषण करता है.
फिर दर्शक या श्रोता या जनता के तौर पर हमारी भी जिम्मेदारियां होती हैं. इसीलिए मंच के नायक, जब जमीन पर आ गिरें, तो उनके लिए मन दुखी नहीं होना चाहिए. उनकी कृतियों और शख्सीयत को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता. यह हिप्पोक्रेसी ही होगी. अमेरिकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स के फरवरी के एक पॉडकास्ट में कल्चर क्रिटिक और पुलित्जर पुरस्कार विजेता वेस्ले मॉरिस ने साफ कहा था- हमें यह सोचना चाहिए कि हम यौन अपराधियों के काम को बॉयकॉट क्यों न करें. क्योंकि हम जैसे यह देखते हैं कि हमारे फल या सब्जियां कहां से आते हैं, उसी तरह हमें यह भी देखना होगा कि हमारा इंटरटेनमेंट कहां से आता है. किसी फिल्म को बनाने या किसी गाने को तैयार करने से कितने लोगों की तकलीफें जुड़ी हुई हैं. यह भी एक गंभीर सवाल है.
इसी सवाल को हल करने के लिए अमेरिका में पिछले साल मीटू मूवमेंट के बाद एक वेबसाइट शुरू हुई- द रॉटन एप्पल्स. यह वेबसाइट एक नैतिक उपभोक्ता तैयार करने का दावा करती है. इस पर फिल्म, टीवी शो का नाम एंटर करने पर, विश्वसनीय न्यूज सोर्स से बताया जाता है कि इसमें काम करने वाले लोगों का अतीत कहीं दागदार तो नहीं है. बाकी, यह हम पर है कि हम हीरो को हीरो ही बने रहने दें- उसकी हरकत पर रो-धोकर उसके गीत गाते रहें. या अपने आस-पास ऐसे हीरो तलाशें जिनके गीत अब तक गाए ही नहीं गए.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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