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BLOG: इस रमज़ान, ज़कात माफियाओं से बचें मुसलमान

इस लेख पर आगे बढ़ने से पहले ज़कात को समझते चलें. इस्लाम ने मुसलमानों पर पांच फर्ज़ तय किए हैं. तौहीद, नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज. तौहीद यानि एक अल्लाह और मुहम्मद (सअव) के आखिरी पैगंबर (अवतार) होने पर यकीन. दिन में पांच वक्त की नमाज. साल मे एक महीने के रोज़े. अगर आर्थिक स्थिति अच्छी हो तो ज़िंदगी में एक बार हज और हर साल अपनी सालाना बचत का 2.5 फीसदी हिस्सा ग़रीबों, यतीमों, विधवाओं, मुहताजों और दूसरे ज़रूरतमंद लोगों पर खर्च करना. ज़कात की अहमियत को कुरआन में ये कह कर बयान किया गया है कि जिसने अपने माल की ज़कात नहीं दी वो जन्नत में नहीं जाएगा. कुरआन में 82 बार आदेश दिया गया है ‘नमाज़ कायम करो और ज़कात दो.’ आम तौर पर रमज़ान के महीने में साहिब-ए-निसाब (अमीर) मुसलमान ज़कात देते हैं. साहिब-ए-निसाब वो है जिसकी सालाना बचत साढ़े सात तौला यानि 90 ग्राम सोने की कीमत के बराबर है. रज़मान के पाक महीने में ज़कात देने का चलन है और इसलिए इस महीने में ही ज़कात माफिया भी सक्रिय हो जाते हैं.

अब बात करते हैं ज़कात माफिया की. एक मिसाल देकर समझाता हूं. पिछले साल रमज़ान में एक बेहद करीबी साहब ने एक दिलचस्प किस्सा सुनाया. बोले, हमारे एक हज़रत जी हैं. हर साल रमज़ान में चंदा करने आते हैं. मैं उन्हें अपनी ज़कात का पैसा देता हूं. साथ ही अपने रिश्तेदारों से भी दिलवाता हूं. इस बार वो आए तो मैंने कहा, हज़रत जी इस बार मैं आपकी खिदमत नहीं कर पाउंगा. दरअसल एक गरीब बीमार को इलाज के लिए पैसों की सख्त ज़रूरत थी. मैंने अपनी ज़कात के पैसे उसे दे दिए. हजरत जी हत्थे से उखड़ गए. बोले, मियां बीमीरों की मदद करनी हो तो इमदाद कर दो, ज़कात का पैसा तो दीनी तालीम हासिल करने वाले यतीमों को ही जाएगा. बहुत समझाने पर भी हज़रत जी टस से मस नहीं हुए. अपने मदरसे के लिए सालाना चंदे की रसीद कटवा कर ही माने. रिशतेदारों के यहां भी ले गए सालाना चंदा वसूल करने. मन तो नहीं था मगर उनके साथ जाना ही पड़ा. आखिर हजरत जी से बैत (गुरू मान बैठे हैं) जो कर रखी है.

ये किस्सा सुनाने के बाद वो बोले, पिछले दस-बारह साल से हज़रत जी की खिदमत कर रहा हूं. हज़रत जी ने गांव में एक छोटे से मदरसे से शुरुआत की थी. आज उनका मदरसा इंटर कालेज की मान्यता पा गया है. अब उनका यूनूवर्सिटी खोलने का इरादा हो रहा है. कभी उनके यहां फाकाकशी की नौबत थी. आज उन्होंने आलीशान घर बना लिया है. बच्चों के लिए अलग-अलग जमीन के प्लॉट ले लिए हैं. आज वो सात करोड़ की ज़मीन जायदाद के मालिक हैं. ये सब ज़कात के पैसे से है. मेहनत की कमाई के बावजूद मैं ज़िंदगी भर दो करोड़ की मिल्कियत बना पाया हूं. ये कह कर वो रुंआसा हो गए. पूछने लगे, क्य़ा मदरसों के बच्चों के नाम इकट्ठा की गई ज़कात की रक़म से अपनी निजी मिल्कियत बनाना जायज़ है..? फिर खुद ही बोले, मैं जानता हूं कि ये ग़लत है मगर हम इसे रोकें भी, तो भला कैसे. इतने साल से इनकी खिदमत करते आ रहें हैं. अब अचानक रोकेगें तो लोग क्या कहेगें..? मज़हब और क़ौम की बदनामी की ठीकरा भी अपने ही सिर फूटेगा.

MUslim

दरअसल ऐसे हज़रत जी जैसे लोग ही ज़कात माफिया हैं. ये लोग मदरसा चलाने का ढोंग करते हैं. मदरसों में दस-बीस यतीम बच्चे रखते हैं. उनके नाम पर अपने शहर के दिल्ली, मुंबई और दूसरे शहरों में बसे लोगों से सालाना चंदा वसूलते हैं. इनके निशाने पर अक्सर नवधनाढ्य लोग होते हैं. ऐसे लोग जो अल्लाह के डर से नियमित रूप से अपने माल की ज़कात निकालते हैं. हजरत जी खुद भी चंदा करते हैं और कमीशन पर भी दूर-दराज अपने एजेंट चंदा करने भेजते हैं. कमीशन 25 फीसदी से 50 फीसदी तक होता है. एक बार आपने इनसे अगर रसीद कटवा ली तो फिर हर साल कटवानी पड़ेगी. ये आपको रसीद काटे बगैर छोड़ेंगे ही नहीं. इनके सामने आपका कोई बहाना नहीं चलेगा. आम तौर पर इनके चंगुल में मज़हबी तौर पर भावुक लोग फंसते हैं. उनके सामने ये ढोंगी हजरत जी ज़कात के पैसों के बदले जन्नत में ऊंचा मक़ाम और मकान दिलाने का ऐसा खाका खींचते हैं कि बस आदमी ख्यालों में ही जन्नत की सैर करने लगता है. न चाहते हुए भी अपनी जेब ढीली कर देता है. बगैर ये सोचे कि उसकी ज़कात सही जगह जा भी रही है या नहीं.

मुंबई में आल इंडिया कौंसिल ऑफ़ मुस्लसिम इकोनोमिक अपलिफ्टमेंट से जुड़े ड़ॉ. रहमतुल्ला के मुताबिक देश भर में हर साल करीब तीस से चालीस हजार करोड़ रुपए की ज़कात निकलती है. लेकिन ज़कात की बड़ी रक़म उसके सही पात्रों तक पहुंचने के बजाय हज़रत जी जैसे ज़कात माफियाओं के पेट में चली जाती है. ज़कात निकालने वाले अमीर मुसलमान खुश होते हैं कि उन्होंने ज़कात निकाल कर अपना फर्ज़ पूरा कर दिया. मुंबई, हैदराबाद और बैंगलुरु में कई मुस्लिम संगठन ज़कात फंड इक्ट्ठा करके ज़रूरतमंद गरीब मुस्लिम स्टुडेंट्स को उनकी मेडिकल कॉलेज या फिर इंजीनियरिंग कॉलेज की फीस मुहैया कराने का काम कर रहे हैं. लेकिन इन्हें ज़कात फंड जुटाने में काफी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है. दिल्ली में ज़कात फाउंडेशन ऑफ इंडिया नाम का संगठन चलाने वाले पूर्व आईआरएस अधिकारी ज़फर महमूद भी कहते हैं कि लोग उन्हें ज़कात का पैसा देने में आनाकानी करते हैं. हालांकि उनका संगठन एक अंग्रेज़ी माध्यम का स्कूल चलाता है और यतीम बच्चों के लिए उन्होंने हैप्पी होम भी खोल रखा है.

दरअसल मज़हबी रहनुमाओं ने मुसलमानों के दिमाग में ये बात कूट-कूट कर भर दी है कि ज़कात के पैसे का इस्तेमाल सिर्फ़ दीनी तालीम हासिल करने वाले यतीम बच्चों की परवरिश और उनकी तालीम पर ही होन चाहिए. यहा वजह है कि ज्यादातर मुसलमान मदरसे चलाने वालों को ही अपनी ज़कात का पैसा देना बेहतर समझते हैं. ऐसे में वो तमाम यतीम बच्चे, विधवा औरतें, मोहताज, और ऐसे लोग महरूम (वंचित) रह जाते हैं जिन्हें प्राथमिकता के तौर पर ज़कात का पैसा मिलना चाहिए.

कुछ साल पहले मेरे एक परिचित ने अपने लाखों के ज़कात फंड से एक गरीब मुस्लिम लड़की को मोडिकल कॉलेज की फीस देने से इस लिए इंकार कर दिया था कि उनके हज़रत जी ने उन्हें बता दिया था कि ज़कात का पैसा सिर्फ दीनी तालीम पर ही खर्च किय़ा जा सकता है. हालांकि मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की थी कि आप उस बच्ची के परिवार को ग़रीब मान कर अपने ज़कात फंड से आर्थिक मदद कर दो. मैंने उन्हें कुरआन की कुछ आयतों का भी हवाला दिया लेकिन हज़रत जी की राय के सामने उन्होंने किसी भी बात तो तवज्जो नहीं नहीं दी. एक गरीब मुस्लिम लड़की फीस का इंताजाम नहीं होने की वजह से डॉक्टर बनने से रह गई.

मुस्लिम समाज में ऐसे मामले जब तब सामने आते रहते हैं जहां खराब आर्थिक हालात होनहार बच्चों के कैरियर में रुकावट बन जाते हैं. समाज के धन्ना सेठ उनकी हालत पर अफसोस तो जताते हैं लेकिन मदद को हाथ नहीं बढ़ाते. क्या इस्लाम ग़रीबों की मदद से मना करता है. इसे समझने के लिए हमें कुरआन की तरफ रुख करन होगा.

कमजोरों के लिए कुरआन का हुक्म आइए, एक नज़र डालते हैं कि कुरआन समाज के कमजोर तबके की मदद के लिए क्या आदेश देता है. सूराः अल-बक़र की आयत न. 177 मे कहा गया है, ‘नेकी यह नहीं है कि तुम अपने मुंह पूरब या पश्चिम की तरफ कर लो. बल्कि नेकी तो यह है कि ईमान लाओ अल्लाह पर और क़यामत के दिन पर और फरिश्तों पर, किताबों पर और पैगंबरों पर. अपने कमाए हुए धन से स्वभाविक मोह होते हुए भी उसमें से अल्लाह के प्रेम में, रिश्तेदारों, अनाथों, मुहताजों और मुसाफिरों को और मांगने वालों को दो और गर्दने छुड़ाने में खर्च करो. नमाज़ स्थापित करो और ज़कात दो. जब कोई वादा करो तो पूरा करो. मुश्किल समय, कष्ट, विपत्ति और युद्ध के समय में सब्र करें. यही लोग हैं जो सच्चे निकले और यही लोग डर रखने वाले हैं.’

कुरआन में आगे सूराः तौबा की आयत न. 60 में कहा गया है, ‘सदक़ा या ज़कात तो वास्तव में ग़रीबों और कमजोरों के लिए है. और उनके लिए जो ज़कात के कार्यों पर नियुक्त हैं. और उनके लिए जिनके दिल जुड़ने वाले हैं, इनके अलावा बांदियों को छुड़ाने में और जो अर्थ दंड भरें. अल्लाह की राह में. और यात्रियों की सहायता में. ये एक आदेश है अल्लाह की तरफ से और अल्लाह ज्ञानवाला और विवेकवाला है.’ यहां गर्दने छुड़ाने से तातपर्य लोगों को गुलामी से आज़ाद कराने और कर्ज़ में डूबे हुए ऐसे लोगों को क़र्ज चुकाने में मदद करने से है जो अपनी सीमित आमदनी में कर्ज़ चुका पाने में सक्षम नहीं हैं. कुरआन में कई और भी जगहों पर ऐसी नसीहते दी गई हैं. इन सबका सार लोगों के समाज में अमीरी-गरीबी के फर्क को मिटाना है.

दरअसल इस्लाम ने अमीर लोगों की आमदनी में एक हिस्से पर पर समाज के ग़रीब, मजबूर, लाचार, मोहताज और समाज के सबसे निचले पायदान पर ज़िंदगी गुजर बसर करने वालों का हक़ तय कर दिया है. सदक़ा, फितरा खैरात और ज़कात के ज़रिए ये हक़ अदा करने का हुक्म दिया है. हुकम ये भी दिया है कि मदद इस अंदाज़ में की जाए कि मदद करने वाला अहसान न जताए और मदद लेने वाले के आत्म सम्मान को भी ठेस न पहुंचे. इसका सही तरीका यह है कि अमीर लोग सबसे पहले अपने ग़रीब रिश्तेदारों की तरफ मदद का हाथ बढाएं, फिर अपने पड़ोसियों और दोस्तों में उन लोगों की मदद करे जो आपकी मदद के मुस्तहिक़ (जरूरतमंद) हैं. ऐसे लोगों की भी ज़कात और सदके से मदद की जा सकती है जो कभी अमीर थे लेकिन बुरे वक्त की मार ने उन्हें आर्थिक तंगी मे धकेल दिया है. ऐसे लोग शर्म के मारे हाथ नहीं फैलाते. मांगने वालों और समाज में कमजोर तबकों के उत्थान के लिए काम करने वाले संगठनों को भी मदद की जा सकती है.

अपनी ज़कात का पैसा सही लोगों तक पहुंचाना भी ज़कात देने वालों की ही ज़िम्मेदारी है. ऐसे में मुसलमानों को ज़कात माफिया के चंगुल से निकल कर अपनी मेहनत की कमाई की ज़कात का पैसा कुरआन के आदेशों का पालन करते हुए अपने नज़दीकी रिश्तेदारों, दोस्तों, पड़ोसियों और ऐसे परिचितों की मदद में खर्च करना चाहिए जिनके हलात से वो अच्छी तरह वाकिफ़ हैं. भारत के अमीर मुसलमान अगर अपनी ज़कात को सही तरीके से सही लोगों तक पहुंचाए तो कुछ दशकों में ही मुस्लिम समाज की ग़रीबी दूर हो सकती है. इससे देश में गरीबी का ग्राफ नीचे लाने में भी मदद मिलेगी.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)

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