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बीजेपी अपने सहयोगी दलों का छिटकना एफोर्ड नहीं कर सकती

बीते सोमवार यानी 5 फरवरी  को जब भाजपाध्यक्ष अमित शाह ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर राज्यसभा में धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा की शुरुआत की तो यह स्पष्ट हो गया कि एनडीए में पड़ रही दरार के चलते होने वाली चरमराहट वह स्पष्ट रूप से सुन पा रहे हैं. गुजरात से नवनिर्वाचित राज्यसभा सांसद अमित शाह ने करीब डेढ़ घंटे के भाषण का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के घटक दलों की भावनाएं सहलाने में खर्च कर दिया. पार्टी के ‘चाणक्य’ कहे जाने वाले श्री शाह राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हैं और यह जानते-समझते हैं कि केंद्र सरकार के हालिया बजट ने उनके कई खास और महत्वपूर्ण सहयोगियों को कुपित कर दिया है.

कई सालों की रवायत और कर्मकाण्ड यह है कि विपक्षी दल केंद्र सरकार के बजट को उसके प्रस्तुत किए जाने से पहले ही लोकलुभावन, अदूरदर्शी, जनविरोधी आदि बताने की पंक्तियां तैयार रखते हैं. वहीं सत्तारूढ़ दल तथा उसके सहयोगी अपने बजट को ऐतिहासिक, अभूतपूर्व, सराहनीय, सभी वर्गों का हितैषी आदि करार देने वाले बयान लिखकर जेब में रख लेते हैं. लेकिन जब मोदी सरकार ने पिछले गुरुवार को अपने इस कार्यकाल का आखिरी पूर्णकालिक बजट पेश किया तो घटक दल ही मुंह फुला कर बैठ गए. महाराष्ट्र में पहले से ही नाराज चल रही शिवसेना के सांसद संजय राउत ने बजट पर टिप्पणी करते हुए कहा कि पूरे देश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं लेकिन सरकार सजग नहीं दिख रही है. उन्होंने तंज कसा कि गुजरात विधानसभा चुनाव तो महज ट्रेलर था, राजस्थान उपचुनाव इंटरवल है और 2019 के आम चुनाव में पूरी फिल्म देखने को मिल जाएगी.

भाजपा को अतीत में कभी तकलीफ न देने वाले लेकिन आम बजट से निराश आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने रविवार को पार्टी पदाधिकारियों की आपात बैठक बुलाई और कहा कि वह तो गठबंधन धर्म निभा रहे हैं लेकिन अगर भाजपा को उनकी अब जरूरत नहीं महसूस हो रही तो वह नमस्ते कह देंगे. उनके सांसद टीजी वेंकटेश ने बजट में आंध्र प्रदेश की जरूरतों का ख्याल न रखे जाने पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि वह युद्ध का ऐलान करने जा रहे हैं. उन्होंने तीन विकल्प भी सामने रखे: पहला- कोशिश करके गठबंधन बनाए रखा जाए, दूसरा- तेलुगुदेशम के सभी सांसद इस्तीफा दे दें और तीसरा भाजपा के साथ गठबंधन ही तोड़ दिया जाए!

दरअसल राज्य के बंटवारे के बाद आंध्र प्रदेश को बड़े पैमाने पर राजस्व का नुकसान उठाना पड़ा है. राज्य सरकार राजधानी अमरावती के निर्माण के लिए केंद्र से पर्याप्त सहायता न मिलने की शिकायत कर रही है. सुनने में यह आया है कि बजट में राज्य को नजरअंदाज किए जाने के बाद टीडीपी के जिला इकाई प्रमुखों सहित कई पदाधिकारी चाहते हैं कि भाजपा के साथ गठबंधन खत्म करना ही श्रेयस्कर होगा. पदाधिकारी इस बात को लेकर भी नाखुश हैं कि बेंगलूरु, मुंबई और अहमदाबाद को विभिन्न परियोजनाओं के लिए बजट में बड़ा आवंटन मिला लेकिन राज्य की किसी भी परियोजना के लिए कोई आवंटन नहीं हुआ, जिनमें विजयवाड़ा और विशाखापत्तनम मेट्रो रेल शामिल हैं. टीएसआर ने भी आम बजट को लेकर नाराजगी जताई है और केंद्र द्वारा तेलंगाना की विभिन्न योजनाओं के लिए धनावंटन की मांग को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया है.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बजट से तो खुश हैं लेकिन उनकी पार्टी जेडीयू लोकसभा और बिहार विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने की संभावनाओं को सिरे से खारिज कर चुकी है. केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट में जिस तरीके से चुनाव आयोग को देश में चुनाव कराने के लिए 110% ज्यादा धन आवंटित किया है, उससे इन अटकलों में तेजी आ गई है कि केंद्र सरकार अगले वर्ष मार्च में होने वाले आम चुनाव पहले ही करा सकती है. नीतीश के रुख को प्रधानमंत्री मोदी के आग्रह व इशारे को ठुकराने के रूप में भी देखा जा सकता है. उधर पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के प्रमुख प्रकाश सिंह बादल भी लोकसभा चुनावों के लिए अपने विकल्पों का आकलन कर रहे हैं.

इस पूरे घटनाक्रम और खदबदाहट से अमित शाह अनभिज्ञ नहीं हैं. उन तक यह खबर भी निश्चित ही पहुंची होगी कि बिहार में ही राष्ट्रीय जनता दल के नेता रघुवंश प्रसाद सिंह भाजपा के पाले में आ चुके उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहे हैं.

शायद इसीलिए अमित शाह ने अपने पहले भाषण में अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाने के साथ-साथ तमाम छोटे-बड़े सहयोगी दलों को कुशलक्षेम का स्पष्ट संकेत देने की कोशिश की.

अमित शाह ने सीधे-सीधे बता दिया कि 30 वर्षों में किसी एक राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत मिलने के बावजूद भाजपा ने एनडीए के अपने सहयोगियों को केंद्र सरकार में शामिल किया था, इसलिए भाजपा आज भी उनका मान-सम्मान बनाए रखेगी. आम चुनाव में 2014 की ऐतिहासिक जीत के बाद एनडीए सांसदों की बैठक में गठबंधन का नेता सर्वसम्मति से चुने जाने का जिक्र करने का उनका इरादा यही था कि भाजपा ‘बड़े भाई’ की भूमिका में आने का कोई इरादा नहीं रखती.

भाजपा अपने सहयोगियों को यह संकेत भी देना चाहती है कि अगर अगले आम चुनाव में भी वह अकेले दम पर पूर्ण बहुमत में आई तो भी फैसले इकतरफा नहीं लिए जाएंगे और सहयोगी दल विकास की दौड़ में पीछे नहीं छूटने पाएंगे. लेकिन लगता है सहयोगी दलों का भाजपा पर भरोसा ढीला पड़ता जा रहा है. शिवसेना तो पहले से ही भाजपा के सर पर सवार है और अब टीडीपी भी दबाव बढ़ा रही है. खुद केंद्रीय गृह-मंत्री राजनाथ सिंह को चंद्रबाबू नायडू से अपील करनी पड़ी कि वे जल्दबाजी में कोई बड़ा फैसला न लें. दबाव बनाने के उद्देश्य से ही जीतनराम मांझी बिहार में अपनी ही सरकार के खिलाफ महाधरना दे चुके हैं. एनडीए का हिस्सा होने के बावजूद उपेन्द्र कुशवाहा शिक्षा सुधार के लिए बिहार की सड़कों पर हैं.

भाजपाध्यक्ष शाह यह भी आकलन कर रहे होंगे कि अगर चुनाव की कगार पर खड़े चार बड़े राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में भाजपा का प्रदर्शन खराब रहा तो 2019 के आम चुनाव में उनके लिए सहयोगी पार्टियों को एनडीए के साए तले एकजुट बनाए रखना और बड़ा सरदर्द साबित होगा. राज्यसभा में उनका भाषण तो यही संकेत देता है कि भाजपा अपने सहयोगी दलों का छिटकना एफोर्ड नहीं कर सकती, क्योंकि पिछले दिनों कांग्रेस में आई मजबूती यूपीए में भी जान फूंकना शुरू कर चुकी है.

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