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वाजपेयी जन्मदिन विशेष: विकास पुरूष अटल बिहारी वाजपेयी और लौह पुरूष लाल कृष्ण आडवाणी के बनते-बिगड़ते रिश्ते की पूरी कहानी

Atal Bihari Vajpayee Birthday Special: देश के पूर्व प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी और उनके अभिन्न सहयोगी के साथ ही देश के गृहमंत्री रहे लाल कृष्ण आडवाणी के बीच के रिश्ते में भी एक वक्त ऐसा आया, जब सत्ता मित्रता पर भारी पड़ गई और ये इतनी भारी पड़ गई कि दोनों के रिश्ते के बीच दरार आ गई. इसे दुश्मनी की बजाय मनभेद कहना बेहतर होगा. देश के प्रधानमंत्री रहे वाजपेयी के जन्मदिन पर कहानी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के बीच बिगड़े हुए रिश्तों की.

1998 के आखिर में देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने सहयोगी और उस वक्त देश के गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी को लेकर एक बयान दिया. उन्होंने कहा- 'मैं और आडवाणी चालीस साल से अधिक समय से एक टीम के रूप में काम कर रहे हैं. ऐसा कुछ नहीं हुआ है कि इस समीकरण में बदलाव आए और हम बिल्कुल सही टीम सहयोगी हैं.'

प्रधानमंत्री वाजपेयी का ये बयान अनायास नहीं था. उस वक्त मीडिया में वाजपेयी-आडवाणी के बीच अनबन की खबरें आने लगीं थीं. हालांकि बाबरी विध्वंस के वक्त भी दोनों के बीच अनबन की खबरें आई थीं, जो बाद में दब गई थीं या फिर दबा दी गई थीं...लेकिन हालिया अनबन की सबसे बड़ी वजह थी प्रधानमंत्री वाजपेयी का घर, जहां रहने वालों की वजह से आडवाणी खुद को अप्रासंगिक महसूस करने लगे थे. इसकी वजह भी थी. 1984 में लोकसभा चुनाव में हार के बाद बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे वाजपेयी को इस्तीफा देना पड़ा था. 1986 में वाजपेयी की जगह आडवाणी ने ले ली थी. और तभी से पूरी बीजेपी को एक तरह से आडवाणी ही चला रहे थे. लेकिन 1998 में सब कुछ बदल गया. विपक्ष में रहने वाली बीजेपी अब सत्ता में थी. वाजपेयी प्रधानमंत्री थे और लाल कृष्ण आडवाणी गृहमंत्री. अब आडवाणी अध्यक्ष भी नहीं रह गए थे, क्योंकि पार्टी में एक व्यक्ति एक पद का ही नियम था. तो कुल मिलाकर सत्ता वाजपेयी के हाथ में थी और अध्यक्ष भी आडवाणी नहीं कुशाभाऊ ठाकरे हो गए थे.

ऐसे में आडवाणी के करीबी लोग भी अब वाजपेयी के साथ जाने लगे. पहला नाम था प्रमोद महाजन का. वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो प्रमोद महाजन तीन महीने तक आडवाणी से मिले ही नहीं. सुधींद्र कुलकर्णी आडवाणी के साथ गृह मंत्रालय में काम करने को तैयार थे, लेकिन वाजपेयी ने उन्हें भी प्रधानमंत्री कार्यालय ही बुला लिया. इसके अलावा एनएम घटाटे, आरवी पंडित, नुस्ली वाडिया की सीधी पहुंच प्रधानमंत्री के घर और दफ्तर तक थी. वरिष्ठ पत्रकार विनय सीतापति अपनी किताब जुगलबंदी में लिखते हैं कि वाजपेयी के सरकारी आवास 7 रेस कोर्स रोड में राजकुमारी कौल और उनके परिवार के लोग भी रहने आ गए. इनमें राजकुमारी कौल के दामाद रंजन भट्टाचार्य और उनकी बेटी नमिता यानी कि गुनू भी थीं.  कौल के छात्र रहे अशोक सैकिया को जॉइंट सेक्रेटरी बना दिया गया. ब्रजेश मिश्र वाजपेयी के प्रधान सचिव होने के साथ ही भारत के पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी बना दिए गए. प्रधानमंत्री के घर अक्सर रात्रि भोज होता था, जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी और उनका परिवार तो होता था लेकिन गृहमंत्री और उनके परिवार को नहीं बुलाया जाता था.

सुबह के वक्त वाजपेयी की शुरुआती बातचीत भी ब्रजेश मिश्र और रंजन भट्टाचार्य से ही होती थी. ये प्रधानमंत्री की सबसे अहम बैठक होती थी, जिसमें आडवाणी शामिल नहीं होते थे. जब तक आडवाणी को पता चलता कि क्या चर्चा हुई है, तब तक सब कुछ तय हो जाता था. उस वक्त संघ के नंबर दो रहे केएस सुदर्शन ने भी वाजपेयी से कहा था कि अपने नज़दीकी लोगों को नियंत्रण में रखें जैसा आडवाणी रखते थे. वे अपने बेटे-बेटी को अपने पद का कभी गलत फायदा उठाने नहीं देते थे. लेकिन वाजपेयी ने केएस सुदर्शन की बात पर कभी ध्यान ही नहीं दिया. वाजपेयी को लगने लगा था कि आडवाणी पार्टी तो चला सकते हैं, लेकिन सरकार चलाना उनके बस की बात नहीं है. ये वाजपेयी और आडवाणी के बीच के रिश्ते में आ रही कटुता की शुरुआत भर थी.

वाजपेयी और आडवाणी के बीच की कटुता तब और बढ़ गई जब पाकिस्तान ने कारगिल में हमला कर दिया. इस युद्ध के दौरान आडवाणी की भूमिका बहुत ज्यादा नहीं थी, क्योंकि वो सिर्फ गृहमंत्री थे. बाद में आडवाणी ने लिखा भी था कि बृजेश मिश्र को प्रधान सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दोनों पदों पर एक साथ नहीं होना चाहिए था, क्योंकि इससे दो महत्वपूर्ण दायित्वों को एक साथ जोड़ने से सरकार के तालमेल के स्तर पर कोई सहायता नहीं मिली. इस युद्ध में जीत के बाद एक बार फिर से लोकसभा के चुनाव थे. 13 महीने की वाजपेयी सरकार सोनिया-सुब्रमण्यम स्वामी और जयललिता की 10 मिनट की टी पार्टी की वजह से गिर चुकी थी.

अब एक बार फिर से आडवाणी को वाजपेयी का ही चेहरा आगे करना था, क्योंकि कारगिल के नायक तो वाजपेयी ही थे. ऐसा ही हुआ भी. और जब नतीजे आए तो बीजेपी की सीटों में पिछले चुनाव की तुलना में मामूली बढ़त मिली. हालांकि सहयोगी दलों को इतनी सीटें मिल गईं कि अब कोई एक सहयोगी पार्टी सरकार को गिरा नहीं सकती थी. और फिर जब वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने तो फिर से प्रधानमंत्री कार्यालय में उन्हीं पुराने लोगों का वर्चस्व स्थापित हो गया. आडवाणी फिर से किनारे कर दिए गए.

और फिर मौका भी आ गया आडवाणी के पास, जब उन्होंने खुलकर अपनी ही सरकार की आलोचना कर दी. तब आतंकियों ने आईसी 814 को हाईजैक कर लिया था और फिर उसे कांधार लेकर चले गए थे. एक हफ्ते के बाद भारत सरकार ने तीन कश्मीरी आतंकियों को रिहा करने का फैसला किया. इस फैसले के दौरान आडवाणी मौजूद थे, लेकिन उन्होंने उस वक्त कुछ नहीं कहा. जब आतंकी रिहा हो गए और प्लेन भारत आ गया तो उन्होंने वाजपेयी को एक पत्र लिखा. इसमें उन्होंने लिखा कि वाजपेयी ने जिन अधिकारियों पर भरोसा किया, वो अयोग्य साबित हुए. विमान को अमृतसर से नहीं जाने देना चाहिए था. बेहतर सौदेबाजी करनी चाहिए थी. इस अपहरण से भाजपा की छवि को नुकसान पहुंचा है, क्योंकि पार्टी को शुरू से ही लोग अन्य दलों से अलग समझते रहे हैं.

हालांकि इससे अब कुछ भी बदलने वाला नहीं था. सो कुछ नहीं बदला. उल्टे नुकसान आडवाणी को ही उठाना पड़ा. अगस्त 2000 में वाजपेयी ने बंगारू लक्ष्मण को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया. वो आडवाणी को बिल्कुल भी नहीं सुहाते थे. रही सही कसर तब पूरी हो गई, जब प्रधानमंत्री वाजपेयी के घुटने का ऑपरेशन होना था. अक्टूबर, 2000 में जब ब्रीच कैंडी अस्पताल में प्रधानमंत्री के घुटने का ऑपरेशन होना था, तो कायदे से पूरी जिम्मेदारी आडवाणी के कंधों पर आनी चाहिए थी, क्योंकि सरकार में वो नंबर दो थे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. तब वाजपेयी के प्रधान सचिव ब्रजेश मिश्र की देखरेख में प्रधानमंत्री कार्यालय को ब्रीच कैंडी अस्पताल ले जाया गया और पूरा कामकाज ब्रजेश मिश्र ने ही संभाला. यानी कि सरकार चलाने के लिए वाजपेयी के सहयोगी थे ब्रजेश मिश्रा और रंजन भट्टाचार्य. जबकि पार्टी की कमान बंगारू लक्ष्मण के हाथ में आ गई. आडवाणी अब अप्रासंगिक हो गए थे.

लेकिन तभी सामने आ गया तहलका का स्टिंग ऑपरेशन, जिसमें रंजन भट्टाचार्य से लेकर ब्रजेश मिश्र और बंगारू लक्ष्मण तक पर आरोप लगाए गए थे. अब वाजपेयी को सहारे की ज़रूरत थी. और वो सहारा थे उनके पुराने साथी लाल कृष्ण आडवाणी. इस स्टिंग ऑपरेशन के सामने आने के दो महीने बाद खुद प्रधानमंत्री वाजपेयी गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के घर पहुंचे. करीब चार घंटे तक बातें हुईं और आडवाणी ने इस दौरान सारी बातें खुलकर रखीं. विनय सीतापति अपनी किताब जुगलबंदी में लिखते हैं कि आडवाणी ने वाजपेयी से कहा कि आपके परिवार के सदस्य ही नहीं, राजकुमारी कौल भी मुझे सांपनाथ कहती हैं.

वाजपेयी ने इन बातों से इनकार किया. लेकिन उन्हें भी पता था कि रिश्ते में गांठ तो पड़ ही गई है. तब तक वाजपेयी को इस बात का भी बखूबी इल्म हो गया था कि आरएसएस और आडवाणी दोनों को एक साथ दरकिनार करके वाजपेयी सत्ता में लंबे समय तक नहीं टिके रह सकते हैं. लिहाजा लंबी उठापटक के बाद जब भारत के अगले राष्ट्रपति के लिए एपीजे अब्दुल कलाम और उपराष्ट्रपति के लिए भैरो सिंह शेखावत का नाम तय हो गया तो जून 2002 में वाजपेयी ने घोषणा की. लालकृष्ण आडवाणी अब भारत के उपप्रधानमंत्री होंगे यानी कि सरकार में आधिकारिक तौर पर नंबर दो.

इस दौरान बंगारू लक्ष्मण को पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा था. जना कृष्णमूर्ति भी लंबे समय तक अध्यक्ष नहीं रह पाए. फिर बीजेपी को नया अध्यक्ष मिला. नए अध्यक्ष आडवाणी के करीबी थे. नाम था वेंकैया नायडू. जून 2003 में उन्होंने पार्टी के अध्यक्ष की हैसियत से एक मीडिया स्टेटमेंट जारी किया. कहा- 'पार्टी आगामी चुनाव में वाजपेयी और आडवाणी दोनों को नेता के रूप में प्रस्तुत करके चुनाव लड़ेगी. वाजपेयी जी विकास पुरुष हैं और आडवाणी जी लौह पुरुष.'

विपक्षी कांग्रेस ने इसे प्रधानमंत्री और उप प्रधानमंत्री के बीच सत्ता का संघर्ष बताया. लेकिन वाजपेयी को पता था कि करना क्या है. एक दिन उन्होंने प्रधानमंत्री आवास यानी कि 7 रेसकोर्स रोड पर करीब 250 नेताओं को बुलाया. उनकी मौजूदगी में वाजपेयी ने कहा- 'आडवाणी जी के नेतृत्व में विजय की ओर आगे बढ़ें.' वाजपेयी के इस वक्तव्य के कई निहितार्थ थे. लेकिन अभी कोई कुछ अनुमान लगाता, उससे पहले ही पार्टी के अध्यक्ष वेंकैया नायडू आगे आए. मंच से ऐलान किया- 'हम एक बार फिर से स्पष्ट कर दें...आगामी चुनाव में अटलजी हमारा नेतृत्व करेंगे और वो फिर से हमारे प्रधानमंत्री होंगे.'

आडवाणी एक बार फिर से संगठन के नेतृत्वकर्ता की भूमिका में थे, सरकार की नहीं. लेकिन हस्तीमल हस्ती की वो गजल है ना कि गांठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हो या डोरी, लाख करें कोशिश खुलने में वक्त तो लगता है. तो वाजपेयी-आडवाणी के रिश्तों में पड़ी गांठ को भी पूरी तरह से खुलने के लिए वक्त चाहिए था. अभी वो वक्त मिल पाता, उससे पहले साल 2002 में गुजरात के गोधरा में दंगे हो गए. और एक बार फिर से वाजपेयी-आडवाणी में नरेंद्र मोदी को लेकर तल्खी दिख ही गई. लेकिन इस बार आडवाणी भारी पड़े. वाजपेयी मोदी के त्यागपत्र के पक्ष में थे, जबकि आडवाणी विरोध में थे. और आखिरकार वाजपेयी को आडवाणी के आगे झुकना पड़ा था. वो तो खुद का इस्तीफा तक देने को तैयार हो गए थे, क्योंकि संसद में विपक्ष के हमलों का जवाब उन्हीं को देना था. हालांकि बीजेपी के बड़े नेताओं ने उन्हें इस्तीफा देने से रोक लिया था. 

इसके बाद बात जब शाइनिंग इंडिया के नारे पर सवार बीजेपी के लिए वक्त से पहले चुनाव की आई, जिसका प्रस्ताव प्रमोद महाजन ने रखा था तो वाजपेयी ने इसका भी विरोध किया. लेकिन आडवाणी फिर से भारी पड़े. हालांकि यह आडवाणी के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल साबित हुई. कमल कुम्हला गया. नतीजे बीजेपी नहीं, कांग्रेस के पक्ष में गए. इसके बाद से ही वाजपेयी नेपथ्य में चले गए और आडवाणी भी 2009 का चुनाव हारकर राजनीतिक निर्वासन की ओर आगे बढ़ गए. वाजपेयी अब हमारे बीच नहीं हैं और आडवाणी अब भी राजनीतिक निर्वासन में हैं. पार्टी के मार्गदर्शक की भूमिका में हैं, जिसकी जरूरत शायद अब इस पार्टी को कहीं नहीं है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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