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लोकसभा चुनाव परिणाम 2024

UTTAR PRADESH (80)
43
INDIA
36
NDA
01
OTH
MAHARASHTRA (48)
30
INDIA
17
NDA
01
OTH
WEST BENGAL (42)
29
TMC
12
BJP
01
INC
BIHAR (40)
30
NDA
09
INDIA
01
OTH
TAMIL NADU (39)
39
DMK+
00
AIADMK+
00
BJP+
00
NTK
KARNATAKA (28)
19
NDA
09
INC
00
OTH
MADHYA PRADESH (29)
29
BJP
00
INDIA
00
OTH
RAJASTHAN (25)
14
BJP
11
INDIA
00
OTH
DELHI (07)
07
NDA
00
INDIA
00
OTH
HARYANA (10)
05
INDIA
05
BJP
00
OTH
GUJARAT (26)
25
BJP
01
INDIA
00
OTH
(Source: ECI / CVoter)

कृत्रिम रोशनी की चकाचौंध और मुरझाती हुई मनुष्य की आंखों की चमक, बढ़ रहा है यह खतरा

सभ्यता के विकास के क्रम में ‘अरनी’ की मदद से पहली बार आग को जला कर मनुष्य ने मशाल से गुफा को रोशन किया होगा. फिर अंधकार से प्रकाश की यात्रा में अनेक पड़ाव मिलते गए, मशाल ने दीपक, दीया का रूप लिया; जलाने के लिए सरसों तेल, तिल का तेल, घी से लेकर धरती के गर्भ से निकलने वाले केरोसिन, आदि का प्रयोग करते-करते 1880 ई. में एडिसन के टंगस्टन बल्ब ने दिन और रात के अंतर को लगभग पाट डाला.

जगमग रोशनी का सबकुछ नहीं जगमग

डूबते सूरज की पीली रोशनी का अहसास लिए मनुष्य ने कालक्रम में भविष्य के लिए जब बिजली की बचत शुरु की और हमारे बीच फ्लोरोसेंट प्रकाश फिर सोडियम वेपर से होते हुए आया जगमगाता दूधिया प्रकाश लिए एलईडी लाइट्स. इस रोशनी ने देर रात अंधेरे में काम करना आसान भले ही कर दिया लेकिन अनजाने में ही मुसीबतों की एक शृंखला खड़ी कर दी. इस कृत्रिम प्रकाश के रूप में आयी मुसीबत को नाम मिला प्रकाश प्रदूषण/लाईट पॉल्यूशन या फोटो पॉल्यूशन. फोटो-पॉल्यूशन कृत्रिम प्रकाश व्यवस्था का अत्यधिक, गलत या आक्रामक उपयोग है. हमारे शहरों के आकाश रात को रोशनी से भरे रहते हैं. हमारे आसपास चौबीसों घंटे तरह-तरह की लाइटें मौजूद हैं. स्ट्रीट लाइट्स, होर्डिंग्स, दुकानों के बोर्ड्स, गाड़ियों की लाइट्स, रिफलेक्टिव सतहों के प्रयोग, मुख्य सड़कों पर हाईमास्ट आदि. घर में कम्प्यूटर, लैपटॉप, फ्रिज, मोबाइल स्क्रीन, नाइट बल्ब... जितने अधिक उपकरण, उतनी अधिक लाइट, रात में भी. 

बिजली के बेजा खपत से अधिक चिंता की बात यह है कि गैरज़रूरी और अनावश्यक कृत्रिम उजाला मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों, कीड़े मकोडो, सबके स्वास्थ्य और जीवनचर्या के संतुलन यानि “सर्केडियन रिदम” को बिगाड़ रहा है. “सर्केडियन रिदम” हमारे शरीर की वह आंतरिक घड़ी है जो हमें उजाले में काम करने और अंधेरे में आराम करने या सोने के लिए शरीर को तैयार करती है. अधिक प्रकाश होने के कारण वातावरण में एक “उजलापन” आ जाता है जिससे “सर्केडियन रिदम” का संतुलन बिगड़ जाता है. रात को अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश से आकाश धुंधला हो जाता है और तारे दृष्टि के दायरे से लुप्त हो जाते है! कृत्रिम प्रकाश, वैश्विक स्तर 1992 और 2017 के बीच लगभग 49% तक बढ़ गया और कुछ क्षेत्रों में जिसमे शहरी क्षेत्र और विकसित देश शामिल है, में तो इसमें 400% तक की वृद्धि हुई है. अभी हमारी पृथ्वी अपने सबसे प्रकाशमान स्तर पर है.

रात को ढंक दिया कृत्रिम प्रकाश ने

जब हम शहरों की चकाचौंध को देखते हैं तो लगता है हमारे रात के हिस्से के अंधेरे को कृत्रिम प्रकाश ने ढांप दिया है. ढंके हुए इस अंधेरे की वजह से अस्सी प्रतिशत से अधिक लोग और विश्व का इतना ही भूभाग इस प्रदूषण की चपेट में हैं. प्रकाश प्रदूषण को प्रमुख रूप से चार स्तरों में देखा जा सकता है. यह आकाशी चमक/स्काई ग्लो के रूप में प्रवासी पक्षियों की आने-जाने की दिशा को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है तो दूसरी तरफ प्रकाश के अतिक्रमण से फोटॉन इधर-उधर बिखरकर हमारी खिड़कियों से आकर हमारी नींद और आंतरिक घड़ी  यानी  सरकेडीयन रिदम को दीर्घकालिक रूप से हमारे व्यवहार और कार्य क्षमता को बदल रहा है. अचानक से चमक में बदलाव यानी लाइट ग्लेयर जिसे हम अत्यधिक प्रकाश वाले इलाके से धूप अँधेरे में आते समय महसूस करते है, जिससे हमारी आंखों को समायोजन की आवश्यकता पड़ती है. जितनी प्रकाश की जरूरत है उससे कई गुनी अधिक रोशनी धीरे-धीरे हमें अंधेरे की तरफ ढकेल रही है.

टिमटिमाते तारों में अपने किसी, गुज़र चुके, प्रिय व्यक्ति को याद करने की परम्परा रही है. टूटते तारों से मनौतियों की डोरियाँ बाँधी जाती है. तारों से भरा आकाश कवियों को प्रेमपूरित कविता लिखने को प्रेरित करता रहा हिया है, तो तारों को देख कर,समुद्र में कितने नाविकों ने ना  सिर्फ अपने अपने पथ खोजे अपितु संसार के सुदूरतम इलाको तक गए. तारों और आकाशगंगा के सहारे मनुष्यों ने दिशाओं के साथ-साथ कई कल्पनाओं को साकार किया. पीढियों से बच्चों ने ध्रुवतारा, तीन डोरिया और सप्त ऋषिमंडल से जान पहचान बनाते आये और तो और न जाने कब से चाँद हम सब के प्रिय मामा है.

गर्मी की रातों में आँगन में बिस्तर बिछते और बच्चे आकाश में तारे खोज-खोज कर बँटवारा करते... ये तेरा, वो मेरा. हमारे यहाँ, फेरों के बाद नवविवाहित युगल ध्रुव तारे से अटल-अटूट रिश्ते की दुआएं मांगा करते हैं. अब अपने चांद-तारों को नंगी आँखों से देखने के लिए शहर से दूर किसी ऐसे स्थान पर जाना पड़ता है, जहाँ आकाश शहरी-प्रकाश की मार से बचा हुआ है. जहाँ उसके पास, उसका स्वाभाविक रात्रिकालीन अँधेरा सलामत है, जिसका दायरा तेजी से सिकुड़ रहा है.

शहर की चकाचौंध, देखने की क्षमता का नाश 

शहरों की चका चौध ने, रात के अँधेरे में सेंध लगा कर, हमारे आकाश, आकाश गंगा और तारों से भरे आकाश को नैसर्गिक रूप से देखने की क्षमता को तेजी से ख़त्म किया है. अब आंखे रहते हुए हमारी दृष्टिबाधित और हमारे  तारों को निहारने की क्षमता क्षीण होती जा रही है. आज जबकि विश्व की एक-तिहाई आबादी आकाशगंगा को देख नहीं सकती तो अध्ययन में पाया गया कि यह प्रकाश प्रदूषण हर आठ  वर्ष में दोगुना होता जा रहा है. इस प्रदूषण ने एक तरह से सांस्कृतिक हानि पहुँचाई है. हमारा बचपन सपनों, कल्पनाओं और कहानियों को जानना समझना भूलता जा रहा है. रात में दिन के अहसास ने कहीं-न-कहीं हमारे बायोलॉजिकल क्लॉक को प्रभावित किया है. रात में जागने की क्षमता बढ़ती जा रही है तो सुबह सूरज की रोशनी चढ़ने के बाद नींद खुलती है. रात की यह टुकड़े - टुकड़े वाली नींद कहीं न कहीं कैंसर और हृदय रोगों को बढ़ावा दे रहे हैं.  

पशु और पक्षी भी शिकार

पशु, पक्षी, कीट-पतंगे, सबके दिल चाक हैं इस मारक रोशनी से. प्रकाश की यह तेज़ चकाचौंध कुछ जीव-प्रजातियों को विलुप्ति की तरफ ठेल रही है. प्रकाश की अधिकता, जिसे हमने पूरी अनभिज्ञता के साथ अपनी दिनचर्या में सम्मिलित कर लिया है, जलीय जीवों के जीवन पर भी खतरे के रूप में मंडरा रही है. सबसे खतरनाक बात यह है कि प्रवासी पक्षियों का जीवन हमारे द्वारा उत्पन्न प्रदूषण के मकड़जाल में फँस कर समाप्त हो रहा है. वातावरण की ठंडक-ताप महसूस कर प्रवास का प्रारम्भ और अंत करने वाले वे अनपढ़ पक्षी क्या गुमराह नहीं होते होंगे?

चाँद-तारों की स्थितियों से अपना रास्ता तय करने वाले गंतव्य पर कैसे पहुँचेंगे, सोचने की बात है! यही नहीं, अपना घोंसला बनाने के लिए छाया खोजते समय यह कृत्रिम प्रकाश उन्हें कन्फ्यूज़ करता है, यह समझा जा सकता है. मनुष्य ही नहीं अपितु चिड़ियों के जागने और सोने के समय में अंतर आ गया है. एक नये अध्ययन में पता चला है कि प्रकाश प्रदूषण के रंगों और इसकी तीव्रता में परिवर्तन के परिणामस्वरूप पहले अंधेरे की आहट होते ही कीड़े-मकोड़े छुप जाते और अपनी आवाज़ से उपस्थिति दर्ज करते. आज इस प्रकाश प्रदूषण की वजह से प्रकाश की ओर आसक्त होते कीट-पतंगे अपनी मृत्यु को आमंत्रित करते हैं.

बिना अंधेरे का अहसास हुए उल्लू अपने शिकार को नहीं पकड़ सकते हैं. प्रकाश की इस अधिकता में उल्लू ध्वनि तरंगों को पकड़ अपने शिकार तक नहीं पहुँच पा रहा है . हो न हो भविष्य में उल्लू जैसे निशाचर पक्षी प्रकाश प्रदूषण का शिकार हो जाये. प्रकाश प्रदूषण मनुष्य से लेकर हाथी तक को प्रभावित कर रहा है लेकिन सबसे ज्यादा प्रभाव समुद्री जीवों पर देखने मिला है. चांद और तारों की रोशनी अंधेरे में समुद्री जीवों के लिए महत्वपूर्ण संकेतक के रूप में कार्य  करते हैं, जो उनके  दिशा ज्ञान में मददगार होते हैं. वहीं कृत्रिम प्रकाश में उनकी चमक आसानी से धूमिल पड़ जा रही  है, जो समुद्री जीवों को उनके पथ से भटका रही है. कृत्रिम प्रकाश प्रवाल, प्‍लैंकटन, कछुओं और छोटी मछलियों से लेकर विशाल व्हेल तक में प्रजनन, दिशा भ्रम से लेकर हार्मोनल गड़बड़ी का कारण बन रहे हैं. जीव-जंतुओं के साथ-साथ पेड़-पौधे भी प्रकाश की उपस्थिति को लेकर भ्रमित हो सकते हैं. फूलों का खिलना,पत्तियों का झड़ना  कुछ हद तक प्रकाश की उपस्थिति पर ही निर्भर होता  है.

दिन और रात का संतुलन बिगड़ा

जीव-जंतुओं की उत्पति के साथ सूरज की रोशनी पर निर्भर मनुष्य ने खुद के साथ सभी जीव-जंतुओं की प्रकाश ग्रहण की अवधि को बढ़ा दिया है. आज प्रकाश की इस अधिकता ने दिन और रात के संवेदनशील संतुलन को बिगाड़ दिया है, जो पेड़-पौधों सहित तमाम जीव-जन्तुओं के शारीरिक कार्यिकी को प्रभावित किया है. पेड़ कुछ बोलते नहीं पर कृत्रिम उजाला उन पर प्रलय की तरह टूटता है. प्रकाश-संश्लेषण से पौधे अपनी खुराक तैयार करते हैं, इसके लिए सूर्यप्रकाश चाहिए. अँधेरे में वे “फाइटोक्रोम” नामक यौगिक का निर्माण करते हैं जो उनके स्वस्थ मेटाबॉलिज्म के लिए ज़रूरी है. ज़ाहिर है, अँधेरे की कमी से इस यौगिक के निर्माण की प्रक्रिया खंडित होती है. आजकल मिलने लगीं, इस तरह की खबरों पर आपने गौर किया है कि कई वृक्ष बेमौसम फूल रहे हैं या एक ही प्रजाति के वृक्षों में से किसी ने मौसम पर नहीं, बहुत बाद में फल दिए? पेड़-पौधों को वसंत, वर्षा या शिशिर के ग्रीटिंग-कार्ड्स नहीं मिलते, वे तो प्राकृतिक कारकों के आधार पर ही फूल-फल के लिए तैयार होते हैं. कृत्रिम प्रकाश इस संतुलन को बाधित कर रहा है. 

इसका शिकार सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र जिसमे मानव समाज भी शामिल है, हो रहा है. प्रकाश प्रदूषण अन्य प्रदूषण की तरह ही समझा जाना चाहिए जैसे रासायनिक बहाव या गैस रिसाव की तरह,आपके द्वार और सड़क को प्रकाशित करने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे फोटॉन अनजाने में आसपास के क्षेत्रों में प्रवाहित होकर पौधों से लेकर शीर्ष प्राणियों जैसे सभी स्तरों पर स्थानीय पारिस्थितिकी को प्रभावित करते हैं.

हमने जैसे अन्य प्रदूषणों को कम करने के क्षेत्र में कार्य किया है उसी प्रकार अब जरूरत है प्रकाश प्रदूषण को कम करने हेतु विकल्पों की तलाश की जाए, क्योंकि किसी रसायन की तरह ही वातावरण में बहता फ़ोटॉन जीवों के आंतरिक क्लॉक को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है. नीति सूक्त “तमसो मा ज्योतिर्गमय” के अनुसार अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की तरफ बढ़ें पर ‘भौतिक अंधकार’ का कुछ अंश जरुरी रूप से हमारे जीवन में बना रहे, को हमारी प्रार्थना में शामिल करना समय की ज़रूरत है.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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