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धारा 377: उम्मीद बंधी पर मंजिल अभी दूर है

हम प्रोग्रेसिव होने लगे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 को रद्द कर दिया है. यह सेक्शन समलैंगिक संबंधों को अपराध बताता है. आदमी-आदमी के साथ, औरत-औरत के साथ सेक्स संबंध नहीं बना सकते. यह अननैचुरल है. इसके लिए 10 साल की सजा तय है. अब यह धारा खारिज कर दी गई है. कहा गया है कि बात अपनी दिलचस्पी की है. फिर सेक्सुअल ओरिएंटेशन इनसान का मौलिक अधिकार है. एक जैविक और प्राकृतिक हक हम किसी का हक कैसे नोच-खसोट सकते हैं. संविधान कहता है किसी के साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जा सकता. यह धारा संविधान के ही खिलाफ है. खास बात यह है कि कोर्ट ने इस पूरी धारा को मनमाना भी बताया है, अतार्किक भी.

आईपीसी को बने हुए 157 साल हो चुके हैं. लार्ड मेकाले ने जब 1861 में आईपीसी का ड्राफ्ट तैयार किया था, तब 1533 के इंग्लैंड के बगरी (अप्राकृतिक संबंध) एक्ट को भी इसमें शामिल कर दिया था. 1533 में तो अप्राकृतिक संबंध बनाने पर डेथ पैनेल्टी का प्रोविजन था. 1861 में इसमें से डेथ पैनेल्टी को हटाया गया इसीलिए आईपीसी में भी सिर्फ सजा का प्रोविजन किया गया, फांसी का नहीं. हम बेचारे अंग्रेजी शासन के मारे- सभी कानूनों की लकीर पीटे जा रहे हैं. धारा 377 कौन सी बड़ी बात थी. एससी-एसटी एक्ट पर झंडा लेकर देश बंद करवा रहे हैं. होमोफोबिया से कैसे बाहर निकल सकते हैं?

अननैचुरल क्या है? जो हम तय करें. जो सदियों से तय है. जो हम पसंद करते हैं, बस वही नैचुरल है. हम यानी ऊंची जातियां, हम यानी मर्द समाज. वही तय करता है कि स्त्री-पुरुष के दैहिक संबंध नैचुरल हैं. तिस पर भी, जब पुरुष चाहे. स्त्री चाहे तो... पर स्त्री का चाहना भी कहां पसंद किया जाता है. तभी मैरिटल रेप की चिल्ला-चिल्ली मची है पर हम सोए पड़े हैं. यूं स्त्री-पुरुष के दैहिक संबंध से अलग हटकर सेक्स संबंधों को चुपचाप अनदेखा करना हमारी परंपरा रही है. यह परंपरा भारतीय सोच का हिस्सा है. सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि इसने हमें हमारी उपेक्षा की नींद से जगा दिया है और सोच-समझकर समलैंगिक प्रेम के मुद्दे का सामना करने के लिए मजबूर किया है. इसका सामना हमें अपने दिमागी द्वंद्व और सार्वजनिक संवाद, दोनों जगह करना होगा.

वैसे लोग खुश हैं एलजीबीटीआईक्यू प्लस लोगों को उम्मीद है कि समाज बदलेगा. उनके लिए काम करने वाले लोगों का भी यही सोचना है. खुशी तो है, उम्मीद भी है. लेकिन लड़ाई इतनी छोटी कहां थी. अदालती आदेश सिर्फ झकझोरते हैं. हमें दोबारा चादर तानने से नहीं रोक सकते. हम करवट लेकर फिर खर्राटे लेने लगते हैं. इन खर्राटों में किसी तूती की आवाज सुनाई नहीं देती. एलजीबीटीआईक्यू प्लस लोगों के हक की बात करने वाले शोर मचाए पड़े हैं कि इनक्लूजन भी उतना ही जरूरी है. मतलब हमें हाशिए पर फेंक दिए गए लोगों को स्नेह और सम्मान के यह भरोसा भी दिलाना होगा कि आप और हममें कोई फर्क नहीं.

नालसा फैसला- "व्यक्ति को सेल्फ आइडेंडिटी का हक है" इन्क्लूजन सबसे बड़ा टॉपिक है. 2014 में जब सुप्रीम कोर्ट ने नालसा फैसले में कहा था कि व्यक्ति को सेल्फ आइडेंडिटी का हक है तो भी ठंडी हवा का झोंका चला था. मतलब लिंग पहचान की जटिलताओं को मान्यता दी गई थी और लोगों को यह हक दिया गया था कि वे खुद की पहचान कर सकते हैं. कोर्ट ने कहा था कि हम किसी भी तरीके से अपने जेंडर की पहचान को अभिव्यक्त कर सकते हैं- कपड़ों से, शब्दों से, कार्य और व्यवहार के जरिए. इस तरह कोर्ट ने अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को बहुत व्यापक बना दिया था. हां, इस फैसले पर अमल करने के लिए हमारी तरफ से बहुत अधिक कोशिशें नहीं की गईं.

कोशिश क्यों करें... हम घिसे-पिटे लोग. तर्क-वितर्क, विचार-विमर्श की गुंजाइश से परे. ये अवचेतन या अर्धचेतन में पड़े संस्कारों का हम कभी सामना नहीं करते, न ही कभी उनसे बहस करते हैं. इसकी बजाय अपने भीतर उसे वहन करते रहते हैं. तभी न पिछली सरकार ने इसके पक्ष में माहौल बनाया, न मौजूदा सरकार ने. ढुलमुल रवैया ही अपनाए रही. धारा 377 होना चाहिए या नहीं, इसका दारोमदार कोर्ट पर छोड़ दिया. कोर्ट तय करे, क्योंकि अदालतों में जजों को जनता नहीं चुनती. सरकार चुनती है... तो कहीं परंपरा के खिलाफ जाने की सजा न दे डाले. अब कोर्ट ने यह पोटली सरकार के सिर रखी है कि वह कोर्ट के आज के फैसले को अमल में लाने के लिए जमीन तैयार करे.

लेकिन इसके लिए आपको अपने आंख-कान और दिमाग, सब कुछ खोलने होंगे. स्कूलों, कॉलेजों, काम करने की जगहों को जेंडर इन्क्लूसिव बनाना होगा. एलजीबीटीआईक्यू प्लस लोगों से ही पूछना होगा कि उनकी मांग क्या है. सोच क्या है. रिप्रेजेंटेशन की बात करनी होगी. एलजीबीटीआईक्यू प्लस लोगों का इन्क्लूजन किसी दूसरे विशिष्ट समूह से कुछ अलग नहीं है. इस प्रकार के समावेश में भी सम्मान, सहानुभूति और समझदारी की मूलभूत अवधारणाएं उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी किसी और प्रकार के समावेश में. सबसे पहले तो अपना रवैया बदलना होगा. इस समूह के प्रति हमारा सामाजिक रवैया क्या है, इस देखना हो तो हिसार चल सकते हैं. वहां पिछले साल किन्नर नाम के एक गांव का नाम बदलकर गैबी नगर कर दिया गया था. तो, कौन कहता है कि नाम में कुछ नहीं रखा. नाम अगर सोशल हैरारकी में आपकी पोजिशन तय करता है तो उसमें बहुत कुछ रखा है. इसीलिए अहमदनगर, महाराष्ट्र के पुरुषवाड़ी गांव के लोग खुश हैं. आखिर सामाजिक संरचना में उनकी हैसियत सबसे ऊंची जो है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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