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खतौली में GJM और घोसी में PDA, बीजेपी को हराने के लिए सपा को मिले दो फॉर्मूले?

घोसी उपचुनाव 2023 में बीजेपी की हार के बड़े मायने हो सकते हैं. ओबीसी जातियों का जो चक्रव्यूह बीजेपी ने तैयार किया है उसे समाजवादी पार्टी गठबंधन दो बार भेद चुका है.

उत्तर प्रदेश की घोसी विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में हार से बीजेपी सकते में है. लखनऊ से खबर है कि आगामी लोकसभा चुनाव में ऐसे हालात न बनें इसलिए पार्टी ने पिछड़ा मोर्चे की बैठक बुलाई है. इस मीटिंग में लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर रणनीति और घोसी में हुई हार पर चर्चा होगी. इसमें उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या भी शामिल होंगे.

दरअसल घोसी में हुई हार के कई मायने हैं. आजम खान के गढ़ रामपुर और मुलायम सिंह यादव के गढ़ आजमगढ़ में बीजेपी की जीत से लगने लगा था कि पार्टी को फिलहाल यूपी में कोई दिक्कत नहीं है. लेकिन घोसी में जहां पर सुहैल सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता ओपी राजभर, ओबीसी नेता और प्रत्याशी दारा सिंह चौहान के साथ आने से जातिगत समीकरण एकदम फिट थे.ये सीट राजभर बहुल वोटरों की है. इसके साथ ही दोनों डिप्टी सीएम और मंत्रियों की पूरी फौज प्रचार कर रही थी. 

इस सीट को जीतने का आत्मविश्वास बीजेपी को बहुत ज्यादा था. इसके साथ ही राजनीति के पंडित इसे एनडीए बनाम इंडिया गठबंधन की पहली लड़ाई बता रहे थे. नतीजा विपक्ष के गठबंधन इंडिया के खाते में गया है. 

घोसी में क्यों हारी बीजेपी?
इसी साल जुलाई के महीने में समाजवादी पार्टी के विधायक दारा सिंह चौहान ने बीजेपी में शामिल होने का फैसला किया था. दलबदल कानून  के तहत उनको अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी. अब सीट में दोबारा चुनाव कराना पड़ा. बीजेपी ने दारा सिंह चौहान को ही यहां से दोबारा टिकट दे दिया. समाजवादी पार्टी ने सुधाकर सिंह को पार्टी प्रत्याशी बनाया.

दोनों ही पार्टियां इस चुनाव की अमहियत समझ रही थीं. समाजवादी पार्टी घोसी में विपक्ष के गठबंधन इंडिया का प्रतिनिधित्व कर रही थी. वहीं, बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने प्रत्याशी नहीं उतारा. इसके साथ ही उनकी ओर से अपने वोटरों से अपील की गई कि वो नोटा का इस्तेमाल करें. बता दें कि 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में बीएसपी प्रत्याशी को 55 हजार वोट मिले थे.

माना जा रहा था कि दारा सिंह चौहान अगर इस चुनाव में जीत जाते हैं तो ओबीसी होने के नाते उनको योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री की जगह मिल सकती है. इसके साथ ही ओपी राजभर कैबिनेट में शामिल होने की उम्मीद कर रहे थे. सवाल इस बात का है कि ऐसा क्या हुआ कि सभी समीकरण ध्वस्त हो गए.

एबीपी न्यूज ने घोसी चुनाव कवर कर रहे पत्रकारों और कुछ लोगों से बात की है. इस बातचीत के दौरान पता चला है कि मतदाता दारा सिंह चौहान से खुश नहीं थे. दारा सिंह चौहान का बार-बार पार्टी बदलना और दोबारा चुनाव करना जनता को रास नहीं आया. बता दें कि दारा सिंह चौहान बीजेपी छोड़कर समाजवादी पार्टी में आए थे और विधायक चुने गए. दारा सिंह चौहान साल 2017 में बीजेपी की टिकट से विधायक चुने गए थे और उनको योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाया गया था. विधानसभा चुनाव 2022 से पहले वो सपा में शामिल हो गए थे. उन्होंने बीजेपी प्रत्याशी विजय कुमार राजभर को 22 हजार वोटों से हराया था. इस हार के बाद बीजेपी की ओर से भी दबी जुबान कहा जा रहा है कि लोग दारा सिंह चौहान से खुश नहीं थे. 

इसके साथ ही बीजेपी के खिलाफ स्थानीय बनाम बाहरी का भी मुद्दा बन गया. दरअसल सुधाकर सिंह घोसी से पहले भी चुनाव लड़े हैं और वो जनता के बीच लगातार डटे रहे. जबकि, दारा सिंह मधुबन विधानसभा सीट से विधायक चुने गए थे, लेकिन जब वो समाजवादी पार्टी में आए तो उनको घोसी से टिकट दिया गया था.

इसके साथ ही बीएसपी का वोटर भी इंडिया के खाते में जाता हुआ दिखाई दे रहा है. हालांकि, मायावती ने अभी तक किसी के भी साथ जाने का मन नहीं बनाया है. लेकिन इस नतीजे के साथ ही उन्होंने ने दिखा दिया है कि यूपी में उनको नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. उनके कहने पर भले ही दलित मतदाताओं ने नोटा न दबाया हो लेकिन सपा को समर्थन देकर ये जरूर जता दिया है कि समीकरण को वो बदल भी सकते हैं.

अगर बीएसपी ने इस सीट से प्रत्याशी उतार दिया होता है तो शायद नतीजा कुछ और भी हो सकता था. ये बीजेपी के लिए भी खतरे की घंटी है. अगर बीएसपी का वोटर इंडिया गठबंधन में शिफ्ट होता है तो पार्टी के लिए बड़ी मुश्किल हो सकती है.

ओम प्रकाश राजभर के लिए बढ़ी मुश्किल
समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन तोड़कर एनडीए में शामिल हुए ओम प्रकाश राजभर के लिए यह नतीजा बड़ी मुश्किल लेकर आया है. खुद के लिए कैबिनेट में जगह और बेटे के लिए विधानसभा परिषद में सीट का जुगाड़ कर रहे ओपी राजभर उस सीट पर जीत नहीं दिला पाए जहां पर सबसे ज्यादा वोटर उन्हीं की कम्युनिटी के हैं.योगी सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री ओपी राजभर ने घोसी में बीजेपी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है और इस पर अब पार्टी नेतृत्व को सोचना है.

बता दें कि ओपी राजभर ने दावा किया था कि घोसी उनका गढ़ है.उन्होंने कहा था कि वह बिना किसी कोशिश के ही यहां पासा पलट सकते हैं. वहीं एक स्थानीय बीजेपीनेता की मानें तो राजभर ने घोसी में कहा था कि यादवों का दिमाग दोपहर के बाद ही काम करना शुरू करता है. उनके इस बयान ने भी खासा नुकसान पहुंचाया है.

क्या PDA समीकरण 2024 में भी काम करेगा
राजभर जाति बहुल सीट पर समाजवादी पार्टी के ठाकुर प्रत्याशी सुधाकर सिंह की जीत ने पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक (पीडीए) समीकरण का खासा रोल रहा है.अगर यहां के जातिगत समीकरणों पर नजर डालें तो  कुल 4.37 लाख मतदाताओं में मुस्लिम मतदाता करीब 1लाख, दलित 90 हजार, राजभर 60 हजार, 50 हजार पिछड़े, 50 हजार निषाद, 15 हजार ठाकुर, 20 हजार भूमिहार, 17 हजार ब्राह्मण और 35 हजार वैश्य मतदाता हैं. मुस्लिम वोटरों में सबसे ज्यादा पसमांदा है जो आजकल बीजेपी के एजेंडे में हैं. पिछड़ों में सबसे ज्यादा चौहान हैं जहां से बीजेपी प्रत्याशी दारा सिंह चौहान आते हैं. 

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-गुर्जर-मुस्लिम समीकरण
बीते साल दिसंबर के महीने में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खतौली सीट पर उपचुनाव हुआ था जिसमें आरएलडी के मदन भैया ने बीजेपी की उम्मीदवार राजकुमारी सैनी को हरा दिया था. इस सीट पर सपा और आरएलडी ने मिलकर चुनाव लड़ा था और कांग्रेस का भी समर्थन था. बीएसपी ने इस चुनाव में भी प्रत्याशी नहीं उतारा था. आरएलडी ने गुर्जर समुदाय से आने वाले मदन भैया को टिकट देकर जाट-गुर्जर-मुस्लिम समीकरण साधा था और इसका फायदा भी मिला. 

खतौली सीट पर गुर्जर और सैनी समुदाय का दबदबा है. कुल तीन लाख मतदाताओं में 80 हजार मुस्लिम, 40 हजार दलित, 35 हजार सैनी, 27 हजार वोटर, 29 हजार गुर्जर, 12 हजार ब्राह्मण, 5 हजार राजपूत और 10 हजार कश्यप हैं.

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