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Chhattisgarh: आदिवासी करते हैं जलकामिनी की पूजा, तालाब में एक साथ मछली पकड़ने की है पुरातन परंपरा
Tribals Jalkamini worship : आदिवासी समाज को प्रकृति के सबसे करीब माना जाता है. बस्तर के आदिवासी जल से जुड़ी जलकामिनी पूजा करते हैं. इसके तहत पूरे गांव के आदिवासी तालाब में एक साथ मछली पकड़ते हैं.
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Bastar : छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल क्षेत्र बस्तर में आदिवासियों को प्रकृति पूजक कहा जाता है, आदिकाल से ही यहां के आदिवासी जंगल, पहाड़, नदी, तालाब की पूजा करते आ रहे हैं. अच्छी फसल के लिए माटी पूजा से लेकर गांव का तालाब हमेशा जल से भरा रहे और गांव में कभी जल की कमी न हो इसके लिए जलकामिनी की पूजा भी यहां के आदिवासी करते आ रहे हैं.
बस्तर जिले के घाटलोंहगा पंचायत के कुदालगांव में भी जोरा तराई (तालाब) में देवीबामन दई जलकामनी माता की विधि विधान से पूजा की गई, जिसके बाद सामूहिक रूप से तालाब में मछली पकड़ने का आयोजन किया गया, जिसमें बच्चे बूढ़े से लेकर गांव की महिलाएं और पुरुष सभी सामूहिक रूप से तालाब में जाल बिछाकर मछली पकड़ते नजर आए.
ग्रामीणों की एकता का है प्रतीक
दरअसल ग्रामवासी इस सामूहिक मत्स्याखेट आयोजन को गांव के ग्रामीणों में एकजुटता और एकता का प्रतीक मानते हैं, इसलिए हर साल बस्तर जिले और संभाग के अलग-अलग गांव में जलकामिनी की पूजा की जाती है और सामूहिक रुपये से मत्स्याखेट का आयोजन किया जाता है. कुदालगांव के सरपंच धरम सिंह गोयल ने बताया कि जलकामिनी पूजा की विधि भी सबसे अलग होती है.
इसके लिए साल में एक बार एक दिन तय किया जाता है, और उसके लिए बकायदा गांव के सभी वरिष्ठ लोग और प्रमुख लोग इकट्ठा होते हैं और जिसके बाद यह तय किया जाता है कि जलकामिनी की पूजा कब की जानी है और यह कितने देर होनी है. उसके बाद ही जल कामिनी की पूजा विधि संपन्न की जाती है और पूजा के बाद सामूहिक रूप से सभी गांव के लोग तालाब में मछली पकड़ते हैं.
आसपास के गांव के लोग भी होते हैं शामिल
सरपंच ने बताया कि 2 घंटे तक झाली पेलना और जाल लेकर ग्रामीणों ने मछली पकड़ा, खास बात यह है कि इस पूजा में सिर्फ एक ही गांव के नहीं बल्कि आसपास के गांव के लोग भी सारे भेदभाव, शत्रुता भूलकर इस खुशी के मौके पर मछली मारात्यौहार में शामिल होते हैं, धूमधाम से सामूहिक रूप से मछली मारा का आयोजन होता है, जिसमें सभी मछली पकड़कर इसे पकाकर खाते हैं.
गांव के पुजारी का कहना है कि ग्राम वासियों में इस परंपरागत विधि के प्रति समर्पण का भाव दिखता है, और इसे एकजुटता और एकता का प्रतीक भी माना जाता है.आयोजन से पहले गांव के सरपंच गांव के लोग बैठक करते हैं जिसके बाद मुनादी कराने की जिम्मेदारी सरपंच की होती है और गांव के कोटवार भी इसमें मदद करते हैं ,इस परंपरा को बस्तर के आदिवासी बड़े धूमधाम से निभाते आ रहे हैं, साथ ही सारे गिले शिकवे भूलकर एक साथ तालाब में मछली पकड़कर इसे पकाकर खाते हैं.
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