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Sri Lanka Crisis: श्रीलंका में राजपक्षे परिवार की कभी बोलती रही तूती, जानें उदय और पतन की पूरी कहानी

Sri Lanka And Rajapaksa Family: श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया (Gotabaya Rajapaksa) आसानी से हार न मानने ऐसे राजवंश के हिस्से हैं,जो दक्षिण एशिया में बेशर्मी से भाई-भतीजावाद का पोषक माना जाता है.

Sri Lanka Crisis And Rajapaksa Family: श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया  (Gotabaya Rajapaksa) और उनके भाई महिंदा राजपक्षे (Mahinda Rajapaksa,) एक दृढ़ राजनीतिक राजवंश का हिस्सा हैं. यह दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा और शायद सबसे बेशर्मी से भाई-भतीजेवाद को पालने-पोसने वाला वंश है. उनके परिवार के इस रवैये का ही नतीजा है कि आज श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबायाा को अपने ही लोगों से भागकर छिपना पड़ रहा है. शनिवार को उनके बारे में अफवाहें थीं कि वह एक नौसैनिक जहाज या विमान से देश छोड़कर चले गए है. या जनता के गुस्से से बचने के लिए एक सैन्य शिविर में छुपे हुए हैं.

उन्हें संसद से बाहर कर दिए जाने के बाद मंगलवार (5 जुलाई) के बाद से सार्वजनिक तौर पर नहीं देखा गया है. कोलंबों (Colmbo) में जब प्रदर्शनकारियों (Protesters ) ने कभी औपनिवेशिक (Colonial) राज्यपालों के इस्तेमाल किए जाने वाले डच (Dutch)-निर्मित राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया था तो वो पहले से ही वहां से फरार थे. यहां प्रदर्शनकारियों ने  स्विमिंग पूल में नहाया, रसोई में खाना खाया और एक पुराने (Antique ) महंगे चार-पोस्टर बिस्तर पर सेल्फी ली. गोटाबाया के भाई महिंदा राजपक्षे की भी उस वक्त कुछ नहीं सुनी गई थी जब पूर्व राष्ट्रपति रहे महिंदा को ठीक दो महीने पहले यानी 9 मई को हिंसा के एक दिन बाद प्रधानमंत्री पद से हटा दिया गया था.

गोटाबाया राजपक्षे नहीं ले पाए जनता के गुस्से की थाह

मार्च के बाद से, जब सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों ने "गोटा गो होम" के नारों से गोटाबाया को ललकारना शुरू कर दिया था. तब भी गोटाबाया राष्ट्रपति पद न छोड़ने का दृढ़ संकल्प लिए रहे. इसके पीछे उनका तर्क था कि उन्हें 69.2 लाख (6.92 मिलियन) लोगों ने चुना था, जो साफ तौर पर 52.25 फीसदी के बहुमत को साबित करता है. गौरतलब है कि श्रीलंका में एक कार्यकारी राष्ट्रपति प्रणाली है और यहां प्रत्यक्ष चुनावों के माध्यम चुनाव होता है. इस वजह से गोटाबाया बार-बार अपने पांच साल के कार्यकाल पर हक होने का राग अलाप रहे थे.

साल 2019 में वो राष्ट्रपति बने थे. लेकिन इस बीच वह साफ तौर पर सरकार के अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन पर जनता के गुस्से की थाह नहीं ले पाए. इस मामले में देखा जाए तो वह केवल के दिव्यांग की भूमिका में नजर आए थे. गोटाबाया को लगता था कि वह आतंकवाद से देश के "उद्धारकर्ता" की अपनी छवि को भुनाने में सफल हो जाएंगे, लेकिन उनका पासा उल्टा पड़ गया.  गौरतलब है कि साल 2009 में लिट्टे (LTTE) की सैन्य हार के वक्त वह अपने भाई महिंदा राजपक्षे की सरकार में रक्षा सचिव थे.

कहीं राष्ट्रपति का ये राजनीतिक अंत तो नहीं.

गोटाबाया राजपक्षे ने शायद लिट्टे के खिलाफ अपनाई गई अपनी सैन्य रणनीतिक योजनाओं पर जरूरत से अधिक भरोसा कर लिया था, उन्हें लगता था कि सब दरकिनार कर श्रीलंका की जनता उनका साथ देगी, या फिर उन्होंने सोचा कि उनका राजधानी की वाहवाही वाला सौंदर्यीकरण उन्हें देश को चलाने में मदद कर पाएगा, लेकिन उन्होंने ये नहीं सोचा होगा कि एक आम इंसान को इस सबसे अधिक रोटी, कपड़ा और मकान की अधिक जरूरत होती है, यहीं पर वो गच्चा खा गए और जनतंत्र बेकाबू होकर उनके सिर पर चढ़ आया.

उनकी गलत और बगैर सोचे-समझे तरीके से करों में की गई कटौती और अचानक से किसानों को जैविक खेती करने जैसे फरमान उनके लिए आफत बन गए. रही-सही कसर कोराना वायरस महामारी ने पूरी कर दी. ईस्टर (Easter) बम विस्फोटों के बाद से देश के पर्यटन उद्योग को खासा नुकसान झेलना पड़ा. इससे यहां के आर्थिक संकट में बढ़ोतरी होती गई.

जब 31 मार्च से लोग सड़कों पर निकलने शुरू हुए और कोलंबो उपनगर मिरिहाना पंगिरीवाट्टा (Mirihana Pangiriwatta ) में उनके निजी आवास पर सैकड़ों प्रदर्शनकारियों ने हमला किया तो राष्ट्रपति के फरमानों के खिलाफ जनता का गुस्सा दीवार पर लिखा हुआ नजर आया था. श्रीलंका की गली -गली में जैसे-जैसे उनके इस्तीफे की मांगें तेज होती गईं. तो गोटाबाया पिछले चार महीनों में किसी भी वक्त पद छोड़ने का विकल्प चुन सकते थे,लेकिन उलटा उन्होंने अपने भाइयों महिंदा (Mahinda), बासिल ( Basil) और चमल (Chamal) को इस्तीफा दिलवा दिया.

हालांकि लोगों की गोटाबाया के इस्तीफे वाली अहम मांग पूरी नहीं हुई. प्रदर्शनकारियों को शांत करने के इरादे से वह रानिल विक्रमसिंघे (Ranil Wickremesinghe) को प्रधान मंत्री के तौर पर ले आए, लेकिन उनका यह भी दांव उलटा पड़ गया और उनके इस फैसले से लोगों के गुस्से में इजाफा और हो गया. इसका नतीजा ये हुआ कि अब गोटाबाया को लोकतांत्रिक रूप से "बहुमत द्वारा चुने गए" नेता के बजाय लोगों के धकेले गए तानाशाह की तरह भागना पड़ा है. गौरतलब है कि उन्होंने खुद को ही बहुमत द्वारा चुना गया नेता घोषित किया था.

राजपक्षे परिवार सत्ता के शिखर पर काबिज होने की कहानी

नई सहस्राब्दी (New Millennium) के पहले दो दशकों में श्रीलंका का इतिहास काफी हद तक राजपक्षे के उदय (Rise) का इतिहास रहा है. चार साल पहले (2015 में) चुनाव में अपमानजनक हार के बाद 2018-19 में उनकी शानदार वापसी एक राजनीतिक राजवंश के हार न मानने वाले रवैया के बारे में बहुत कुछ बताती है. जो शायद दक्षिण एशिया का ऐसा सबसे बड़ा और सबसे बेशर्म भाई-भतीजावादी को बढ़ाने वाला घराना है. 

महिंदा राजपक्षे की सत्ता साल 2004 में परवान चढ़नी शुरू हुई.जब उन्हें चंद्रिका कुमारतुंगा भंडारनायके ( Chandrika Kumaratunga Bandaranaike) की अध्यक्षता के दौरान प्रधानमंत्री बनाया गया, हालांकि बाद में इस फैसले को भंडारनायके ने अपनी सबसे बड़ी गलती कहा था. सत्ता मिलने के बाद महिंदा अजेय रहे. उन्होंने 2005 का राष्ट्रपति चुनाव जीता, और फिर लिट्टे के खिलाफ उत्तर और पूर्व में एक चौतरफा युद्ध शुरू करने का फैसला लिया.

इस दौरान उनके भाई गोटाबाया जिन्होंने पहले श्रीलंकाई सेना अपनी सेवाएं दी थी,उन्होंने इस दौरान रक्षा सचिव (Defence Secretary) की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. लिट्टे पर जीत ने राजपक्षे की सत्ता पर पकड़ मजबूत कर दी. सिंहली के दक्षिण (Sinhalese south) में महिंदा और गोटाबाया दोनों भाई बहुसंख्यक सिंहल-बौद्ध समुदाय की नज़र में लिट्टे(LTTE) के आतंक के खात्मे से उन्हें मुक्त कराने की वजह से मसीहा की तरह लिए गए.

यही वजह रही कि महिंदा ने राष्ट्रपति के रूप में दूसरा कार्यकाल जीता और दो-अवधि (Two-Term ) के प्रतिबंध को हटाने के लिए संविधान में संशोधन किया. उन्हें विश्वास था कि वह आजीवन राष्ट्रपति रहेंगे.

महिंदा के रक्षा सचिव के रूप में गोटबाया एक समानांतर शक्ति केंद्र बन गए जो डर फैलाकर अपना प्रभाव पैदा कर रहे थे. उन्होंने अपने कार्यालय को एक शाही अंदाज दिया. उनकी सिंहासन जैसी कुर्सी को राजा की तरह कुछ ऊपर उठा कर सबसे अलग रखा गया था. उनकी निगरानी में सरकार के आलोचक दर्जनों लोगों का अपहरण कर लिया गया और इनमें से तो कुछ का बाद में कोई अता-पता नहीं मिला.

उनके शासन में साल 2009 में संडे लीडर के संपादक लसंथा विक्रमतुंगे (Lasantha Wickrematunge) की हत्या कर दी गई थी. साल 2010 में लापता हुए कार्टूनिस्ट प्रगेथ एकनेलिगोडा (Prageeth Ekneligoda) को तब से नहीं देखा गया है. यह वह वक्त था जब राजपक्षे ने बौद्ध चरमपंथी समूह बोडु बाला (Bodu Bala Sena) सेना को शासन करने की आजादी दे थी और इस समूह ने मुस्लिम के खिलाफ कई हिंसा की घटनाओं को अंजाम दिया.

उनके सबसे छोटे भाई बासिल आर्थिक विकास के प्रभारी मंत्री थे जो श्रीलंका में सभी निवेशों को नियंत्रित करते थे. सबसे बड़े भाई चमल स्पीकर थे. उस समय, एक अनुमान के मुताबिक लगभग 40 राजपक्षे हर एक - दूसरे ऑफिस में थे. ये सरकार के अधिकांश वित्त (Finances) को नियंत्रित करते थे. उनकी इस तरह से हर जगह काबिज होने से आजादी दूभर थी.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिंदा की चीन ( China) से निकटता ने नई दिल्ली को उस समय चिंता में डालना शुरू कर दिया था. जब इस जब क्षेत्रीय दिग्गज ने भारत के दक्षिण एशियाई (South Asian) पड़ोसियों के साथ पैठ बनाना शुरू कर दिया था. संयुक्त राज्य अमेरिका (United States) भी हिंद महासागर क्षेत्र (ndian Ocean region) में चीन के बढ़ते दावों को लेकर चिंतित था.

इस बात की भी चिंता थी कि राजपक्षे शासन युद्ध के बाद तमिल समुदाय (Tamil Community) के साथ सुलह और युद्ध के दौरान अधिकारों के उल्लंघन की शिकायतों के निवारण पर आगे नहीं बढ़ रहा था.उसने तमिलों की राजनीतिक मांगों को सुनने के भारत के आह्वान को भी खारिज कर दिया गया.

2015 के बाद श्रीलंका का हाल 

महिंदा ने वोटरों को हल्के में लेना शुरू कर दिया था और उनका राजनीतिक अहंकार बढ़ने लगा था. इस वजह से  2015 के राष्ट्रपति चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था. राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव में महिंदा की हार अपमानजनक थी, लेकिन भाइयों ने अपना पूरा समर्थन एक-दूसरे को दिया. श्रीलंका में पेरामुना पोदुजाना ( Peramuna Podujana) राजपक्षे की सत्ता में वापसी का जरिया था.

जब सिरिसेना-विक्रमसिंघे (Sirisena-Wickremsinghe ) की सरकार अपने ही अंतर्विरोधों के बोझ तले दब गई. उसकी सबसे बड़ी असफलता साल 2019 ईस्टर दिवस ( Easter Day) पर आईएस (IS) के आतंकवादी हमलों को रोकने में असमर्थता रही. इसी का फायदा राजपक्षे ने उठाया. इस साल के बाद गोटाबाया राजपक्षे को राष्ट्रपति उम्मीदवार के तौर पर लिया गया.हालांकि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की अर्हता पूरी करने के लिए गोटाबाया को बेमन से अपनी अमेरिकी नागरिकता छोड़नी पड़ी. वहां के लोगों को डर था कि आतंकवाद श्रीलंका में वापस आ जाएगा.

गोटाबाया को इस पद के लिए इसलिए मौका मिला क्योंकि पिछली सरकार ने राष्ट्रपति पद पर दो-अवधि की रोक को  बहाल कर दिया था और इसी वजह से महिंदा  2019 का राष्ट्रपति चुनाव नहीं लड़ सके. हालांकि उन्होंने संसदीय चुनाव में एसएलपीपी (SLPP) की शानदार जीत का नेतृत्व किया और प्रधान मंत्री बने.

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