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लालू परिवार से पप्पू यादव की लड़ाई की क्या है असली कहानी?

Lalu Yadav vs Pappu Yadav: बिहार में लालू यादव और पप्पू यादव को दोस्ती कहानी लगभग हर घर में लोगों को पता है. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त से दोनों नेताओं के बीच दूरियां बढ़ने लगी.

कुछ लोग कहते हैं कि पप्पू यादव की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने ही उन्हें लालू यादव का दुश्मन बना दिया, तो कुछ लोग कहते हैं कि तेजस्वी यादव को बिहार की राजनीति में स्थापित करने के लिए लालू यादव ने पप्पू यादव को किनारे लगा दिया. कुछ लोगों का मानना है कि लालू परिवार की बाहुबली आनंद मोहन के परिवार से बढ़ी नजदीकियों ने पप्पू यादव को राजनीति में हाशिए पर डाल दिया. आखिर क्या है लालू परिवार से पप्पू यादव की अदावत की असली कहानी, जिसमें 25 साल दोस्ती के और 10 साल दुश्मनी के हैं. 

पूर्णिया से आरजेडी ने बीमा भारती को दिया टिकट 

लालू परिवार का पप्पू यादव से किस कदर विरोध है, इसके अंदाजा ऐसे लगाया जा सकता है कि तेजस्वी यादव खुद पूर्णिया लोकसभा सीट से आरजेडी की उम्मीदवार बीमा भारती के नामांकन में पहुंचे थे. इससे भी बात नहीं बनी तो तेजस्वी यादव ने पूर्णिया में कैंप कर दिया, जिसमें पार्टी के 40 से ज्यादा विधायक पूर्णियां पहुंच गए.

पार्टी के नेताओं का एक बड़ा हिस्सा पूर्णियां में पहुंच गया ताकि पप्पू यादव की हार सुनिश्चित की जा सके. तेजस्वी यादव ने एक जनसभा में ऐसा कुछ कह दिया, जिसने लालू परिवार और पप्पू यादव की अदावत के वो पन्ने खोल दिए, जिनकी शुरुआत तब से होती है, जब तेजस्वी यादव पैदा भी नहीं हुए थे.

लालू परिवार से पप्पू यादव की लड़ाई की कहानी

यहा कहानी साल 1988 की है, जब बिहार में नेता प्रतिपक्ष और समाजवाद के पुरोधा रहे कर्पूरी ठाकुर का निधन हो गया था. उस वक्त कर्पूरी ठाकुर की पार्टी लोकदल के पास कुल 46 विधायक थे. इन विधायकों में नीतीश कुमार से लेकर लालू यादव, छेदी पासवान, वशिष्ठ नारायण सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, नवल किशोर भारती जैसे नेता थे.

कर्पूरी ठाकुर के बाद अनूप लाल यादव और गजेंद्र प्रसाद हिमांशु दो ऐसे नेता थे, जो 1967 से ही विधायक बनते आए थे और नेता प्रतिपक्ष बनने की दौड़ में आगे थे. इनके अलावा मुंशी लाल और सूर्य नारायण भी नेता प्रतिपक्ष बनने की कवायद में जुटे थे. उस वक्त 29 विधायक निर्दलीय थे. ऐसे वक्त में पप्पू यादव दावा करते हैं कि तब वो अनूप लाल यादव के ही घर में रहते थे.

अनूप लाल यादव पप्पू यादव के फूफा थे. इसके बावजूद पप्पू यादव ने विधायकों को लालू यादव के पक्ष में लामबंद कर दिया. नेता प्रतिपक्ष की ये लड़ाई इसलिए भी बड़ी थी कि ये तय था कि जो भी नेता प्रतिपक्ष होगा, आगे चलकर वही बिहार का मुख्यमंत्री भी बनेगा. उस समय लालू यादव नेता प्रतिपक्ष बन गए, जिसका श्रेय गाहे-बगाहे पप्पू यादव लेते रहते हैं.

पप्पू यादव के घर की कुर्की हुई

बिहार की सियासत को जानने वाले ये बताते हैं कि नेता प्रतिपक्ष बनाने में पप्पू यादव का कोई हाथ नहीं था, बल्कि लालू यादव ने अपने राजनीतिक कौशल से वो पद हासिल किया था. लालू यादव के नेता प्रतिपक्ष बनने के अगले ही दिन पटना के अखबारों में खबर छपी कि कांग्रेस नेता शिवचंद्र झा की हत्या करने के लिए पूर्णिया से कुख्यात अपराधी पप्पू यादव पटना पहुंचा है. इससे बाद पप्पू यादव फरार हो गए, उनके घर की कुर्की भी हुई, मीसा भी लगा और गिरफ्तार कर उन्हें भागलपुर जेल भी भेजा गया.

इस बीच साल 1990 का विधानसभा चुनाव आ गया. विश्वनाथ प्रताप सिंह हाल ही में देश के नए प्रधानमंत्री बने थे. पूरे देश में जनता दल की लहर थी. हालांकि बिहार में जनता दल गुटों में बंटा हुआ था. उस समय लालू यादव का गुट, रामसुंदर दास का गुट, रघुनाथ झा का गुट और भी छोटे-छोटे गुट थे.

पप्पू यादव उस समय लालू यादव के साथ थे. वो मधेपुरा के एक बड़े जमींदार परिवार से थे, जिनके पास पैसों की कमी नहीं थी. उन पर माफिया का ठप्पा लग ही चुका था. इस बीच 1990 में ही भागलपुर के नौगछिया में एक नरसंहार हो गया. पप्पू यादव वहां पहुंच गए, लेकिन तब उन्हें लालू यादव ने डांटते हुए कहा, "यादवों का नेता बनने की कोशिश मत करो."

जब पप्पू यादव को टिकट देने से किया गया इंकार

इसके बाद फिर लालू यादव ने पप्पू यादव को विधानसभा चुनाव का टिकट देने से इंकार कर दिया. इसका नतीजा ये हुआ कि पप्पू यादव ने मधेपुरा में आने वाली सिंघेश्वर विधानसभा सीट से निर्दलीय ही पर्चा दाखिल कर दिया और जीत भी गए. इस दौर में एक और बाहुबली नेता का उभार हुआ था, जिसका नाम आनंद मोहन था.

आनंद मोहन जनता दल के टिकट पर शिवहर से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. इस बीच केंद्र की विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दीं. इसमें अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान था. राजपूत जाति से आने वाले आनंद मोहन ने इसका विरोध किया. वहीं लालू यादव इसके समर्थन में थे. लालू यादव को आनंद मोहन जैसे नेता की काट के लिए एक शख्स की जरूरत थी और पप्पू यादव इस खांचे में फिट बैठते थे. लिहाजा लालू यादव ने पप्पू यादव को आनंद मोहन के खिलाफ खड़ा कर दिया.

आनंद मोहन और पप्पू यादव आमने-सामने

कोसी-सीमांचल के इलाके में आनंद मोहन और पप्पू यादव की अदावत की कहानियां लोगों की जुबान पर चढ़ने लगीं. इस बीच साल 1991 में सहरसा के बनमनखी में आनंद मोहन के काफिले पर फायरिंग हो गई, जिसमें दो लोग मारे गए. इसका आरोप पप्पू यादव पर लगा, लेकिन तब लालू यादव मुख्यमंत्री थे और उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके पप्पू यादव को बचा लिया.

इन सबके बावजूद 1991 के लोकसभा चुनाव में लालू यादव ने पप्पू यादव को लोकसभा का टिकट नहीं दिया. नतीजा ये हुआ कि पप्पू यादव एक बार फिर से निर्दलीय ही चुनावी मैदान में उतर गए. इसके लिए उन्होंने पूर्णिया लोकसभा का सीट चुना, लेकिन इस सीट के नतीजे ही घोषित नहीं हुए, क्योंकि तब के चुनाव आयुक्त टीएन शेशन ने इस सीट पर वोटिंग में हुई धांधली को देखते हुए चुनावी नतीजे जारी करने पर रोक लगा दी थी. कोर्ट के आदेश पर करीब चार साल बाद फिर से वोटिंग हुई और नतीजे घोषित हुए तो पप्पू यादव ने निर्दलीय ही यहां से जीत दर्ज कर ली थी.

सपा के टिकट पर पुर्णिया सीट जीते पप्पू यादव

इस बीच पप्पू यादव ने अपनी एक पार्टी भी बना ली, जिसका बनाम नाम बिहार विकास पार्टी रखा था, लेकिन बाद में उन्होंने मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के साथ अपनी पार्टी का विलय कर लिया. 1996 के लोकसभा चुनाव में पप्पू यादव ने लालू यादव नहीं, बल्कि मुलायम सिंह यादव की पार्टी सपा से पूर्णिया लोकसभा का चुनाव लड़ा और फिर से जीत दर्ज की. सपा के प्रदेश अध्यक्ष भी बन गए. 1998 में जब देश में मध्यावधि चुनाव हुए तो पप्पू फिर से पूर्णिया से चुनाव लड़े, लेकिन इस चुनाव में पहली बार उनकी हार हुई. अबकी बारी-अटल बिहारी के नारे पर सवार बीजेपी ने पूर्णिया सीट जीत लिया था.

इस दौरान लालू यादव और मुलायम सिंह यादव के बीच ऐसे समीकरण बने कि पप्पू यादव ने समाजवादी पार्टी छोड़ दी. वहीं 13 महीने के अंदर ही अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार भी गिर गई और देश में फिर से 1999 में मध्यावधि चुनाव हुए. पप्पू यादव फिर से निर्दलीय चुनाव लड़े और फिर से जीत गए.

इस बीच माकपा विधायक अजीत सरकार की भी हत्या हुई थी, जिसमें मुख्य आरोपी पप्पू यादव ही थे. लालू यादव पप्पू यादव की लगातार चुनावी जीत और बढ़ते रसूख को नजरंदाज नहीं कर पा रहे थे. उन्होंने पप्पू यादव को अपने करीब लाना शुरू कर दिया. ये लालू यादव का वो दौर था, जब चारा घोटाला बाहर आ चुका था, वो गिरफ्तार होकर जेल जाकर बेल पर बाहर आ चुके थे और उन्हें अंदाजा हो गया था कि उनकी लोकप्रियता में कमी आ रही है.

2004 में लालू यादव ने मधेपुरा सीट पप्पू यादव को दिया

इस बीच 2004 के लोकसभा चुनाव भी आ गए. बीजेपी का इंडिया शाइनिंग का नारा पूरे जोर पर था और ऐसे में हार के डर से लालू यादव ने दो लोकसभा सीट मधेपुरा और छपरा से पर्चा दाखिल कर दिया. जैसे ही इंडिया शाइनिंग का नारा धराशायी हुआ, फायदा लालू यादव को भी हुआ. उन्होंने दोनों ही सीटों से जीत हासिल कर ली. उन्होंने छपरा सीट अपने पास रखी और मधेपुरा से इस्तीफा दे दिया. पप्पू यादव को लालू ने मधेपुरा से उम्मीदवार बना दिया. पप्पू यादव मधेपुरा का उपचुनाव जीत गए. लालू-पप्पू के संबंध भी प्रगाढ़ होते गए.

साल 2008 में पप्पू यादव को अजीत सरकार हत्याकांड का दोषी ठहराया गया. सीबीआई की कोर्ट से उन्हें उम्रकैद की सजा हुई तो वो 2009 का चुनाव नहीं लड़ पाए. मां शांतिप्रिया को निर्दलीय चुनाव लड़वाया, लेकिन उनकी मां भी हार गईं. पप्पू यादव करीब पांच साल तक जेल में बंद रहे.

क्यों खराब हुए लालू परिवार से संबंध?

2013 में पटना हाई कोर्ट ने पप्पू यादव को बरी कर दिया और फिर लालू यादव ने 2014 में पप्पू यादव को फिर से मधेपुरा की कमान सौंप दी. जेल से छूटने के बाद पप्पू यादव मोदी लहर के बावजूद 2014 में मधेपुरा से चुनाव जीत गए. 2015 में उन्हें बेस्ट एमपी का खिताब तक मिला, क्योंकि उन्होंने लोकसभा की कुल 57 बहसों में हिस्सा लिया था, लेकिन इसी जीत ने लालू यादव और पप्पू यादव के संबंध हमेशा-हमेशा के लिए खराब कर दिए. क्योंकि यही वो दौर था जब लालू यादव के परिवार की दूसरी पीढ़ी में सियासत में एक्टिव होने लगी.

मीसा भारती, तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव. मीसा भारती 2014 में लोकसभा का चुनाव हार गई थीं. तेजस्वी और तेजप्रताप 2015 के विधानसभा में उम्मीदवारी दर्ज करवाने लगे थे और पप्पू यादव पार्टी में हाशिए पर जाने लगे थे. क्योंकि पप्पू यादव को लगता था कि यही वक्त है, जब वो लालू यादव के सियासी उत्तराधिकारी बन सकते हैं, लेकिन तेजस्वी-तेजप्रताप की सियासी मौजूदगी ने पप्पू यादव के अरमानों पर पानी फेर दिया.
 
इसी का नतीजा थी जन अधिकार पार्टी जाप, जिसे बनाया तो पप्पू यादव ने था, लेकिन वो आरजेडी के सांसद थे तो पार्टी के पदाधिकारी नहीं बन सकते थे. 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले लालू यादव ने पप्पू यादव को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. यहीं से लालू यादव और पप्पू यादव के संबंध हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गए, लेकिन पप्पू यादव न तो 2015 के विधानसभा चुनाव में कुछ खास कर पाए, न 2019 के लोकसभा चुनाव में और न ही 2020 के विधानसभा चुनाव में कुछ कर पाए.

2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में भी लालू परिवार की पप्पू यादव से नाराजगी तब और खुलकर सामने आ गई, जब तेजस्वी यादव ने बिहार की कुल 243 विधानसभा सीटों पर चुनाव प्रचार तो किया, लेकिन इकलौती सीट मधेपुरा में ही कैंप किया, जहां से पप्पू यादव चुनाव लड़ रहे थे.

लालू यादव और राहुल गांधी से की भावुक अपील

इतनी भयंकर नाराजगी के बीच पप्पू यादव को फिर से लालू की याद आई. 2024 के लोकसभा चुनाव की घोषणा से ठीक पहले उन्होंने लालू यादव के दरबार में हाजिरी दी. उन्हें आश्वासन भी मिला, लेकिन सीट नहीं मिली. इसके बाद पप्पू यादव ने अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया, क्योंकि पत्नी कांग्रेस में हैं और लोकसभा सांसद रह चुकी हैं. वो अभी राज्यसभा से सांसद हैं. उम्मीद थी कि पप्पू यादव को गठबंधन में ही सीट मिल जाएगी, लेकिन गठबंधन में पूर्णिया लोकसभा का सीट आरजेडी के पास चला गया.

लालू यादव पुर्णियां सीट पर जदयू छोड़कर आरजेडी में आईं बीमा भारती को उम्मीदवार बना दिया. यहां भी पप्पू यादव के हाथ खाली रह गए. उन्होंने लालू यादव से भावुक अपील की. राहुल गांधी से भावुक अपील की, लेकिन सब जाया हो गया, जो हाथ खाली थे, वो खाली ही रहे.

इसका नतीजा ये हुआ कि पप्पू यादव पूर्णिया लोकसभा सीट से निर्दलीय ही चुनाव लड़ रहे हैं. वो कह रहे हैं कि लालू यादव ने पार्टी का विलय आरजेडी में करके मधेपुरा से चुनाव लड़ने को कहा और जब मैंने इनकार किया तो मेरी राजनीतिक हत्या कर दी गई.

सियासत में भूल-चूक माफ करने के लिए ख्यात लालू यादव और उनका परिवार पप्पू से इस कदर खार खाए हुए हैं कि तेजस्वी यादव ने अपनी पार्टी की पूरी ताकत इस काम में झोंक दी है कि भले ही बीमा भारती चुनाव जीतें, न जीतें, लेकिन पप्पू यादव किसी भी हाल में चुनाव न जीत पाएं.

ये भी पढ़ें : Lok Sabha Elections 2024: अगर चुनाव में सबसे अधिक वोट नोटा को मिले तो क्या होगा, जानें चुनावी नियम

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