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Kaifi Azmi Birth Anniversary: मोहब्बत और बगावत के शायर जिन्होंने कभी कहा था- हम भगत सिंह के साथी हैं कोई और नहीं

कैफ़ी आजमी, शायरी की दुनिया में वो नाम हैं जिन्हें कोई भी न मुल्क समझकर जला सकता है, न दीवार समझकर गिरा सकता है, न सरहद की तरह बना सकता है और यादों की तरह भुला सकता है.

हिन्दुस्तान में सत्ता द्वारा मजलूमों के शोषण के विरोध में लिखी गई ग़ज़ल, गीत, कविता या नज़्म पर जब भी इब्तिदाई (शुरुआती) दस्तख़त करने वाले शायरों का नाम आएगा तो पहली सफ में एक नाम जो निश्चित तौर पर होगा वह नाम कैफी आजमी है. जी हां.. हिन्दुस्तान के ज़ज्बये जम्हूरियत और मज़हबी रवादारी का एहतराम करने वाले शायर कैफी आजमी. वह इल्मी तौर पर इतने मालामाल शख्स थे कि उनके सामने बादशाहों के ख़जाने भी कमतर मालूम होते हैं.

कैफ़ी आजमी के तक़रीर और तहरीर में इंसानियत का वह पैगाम था जिसे फिरक़ा परस्ती, तअस्सुब और तंग नज़री की आंधी कभी मिटा नहीं सकी. उनका लिखा एक-एक लफ़्ज़ नफ़रत के अंधेरे को मिटा कर मोहब्बत और क़ौमी यक़जहती की मशाल बन गया.

शायरी बगावत भी सिखाती है और मोहब्बत भी. कैफ़ी आज़मी की लेखनी और शख़्सियत भी कुछ ऐसी ही थी. वह जानते थे कि हुकूमत मौसमों की तरह आते-जाते हैं, लेकिन तारीख के माथे पर झूमर हमेशा जगमगाता है.

14 जनवरी 1919 को आज़मगढ़ के मिजवां गांव में जन्मे कैफ़ी का असली नाम अख़्तर हुसैन रिज़वी था. बचपन से ही कविताएं और शायरी लिखने के शौक़ीन कैफ़ी किशोरावस्था में ही मुशायरों में हिस्सा लेने लगे थे. वह 11 साल के थे जब उन्होंने अपनी पहली गज़ल लिखी थी. कैफी आजमी शिया घराने में एक जमींदार के घर में पैदा हुए थे.

क़ैफी आज़मी ने 11 साल की उम्र में पहली ग़ज़ल लिखी, 19 साल की उम्र में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ज्वाइन किया और फिर क़ौमी जंग में एक कॉलमिस्ट बन गए. बाद में गीतकार बने और बुजदिल फिल्म में पहला गाना लिखा.

क्रांति का दूसरा नाम कैफी आजमी

कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है

कै़फी आजमी इन शाश्वत पंक्तियों में जिस 'कर्ज' की बात करते हैं, वह आज भी नहीं चुकाया गया है. महज 11 साल की उम्र में अपनी पहली गजल लिखने वाले आजमी अविभाजित भारत में वामपंथी आंदोलन का प्रमुख चेहरा बन गए थे. दरअसल भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी. हालांकि उनके माता-पिता चाहते थे कि वह मौलवी बने. पढ़ाई छोड़ने के बाद वह पूर्णकालिक CPI के सदस्य बन गए. वह इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) के अखिल भारतीय अध्यक्ष और प्रगतिशील लेखक संघ (पीडब्ल्यूए) के सक्रिय सदस्य भी रहे. यह वह समय था जब उन्होंने अपने नज्मों के माध्यम से युवा क्रांतिकारियों को प्रेरित करने की जिम्मेदारी ली. उनके प्रसिद्ध नज्म नौजावन काफी मशहूर हुआ

राह अगयार की देखें ये भले तौर नहीं हम भगत सिंह के साथी हैं कोई और नहीं जिंदगी हमसे सदा शोला-ए-जवानी मांगे इल्म-ओ-हिकमत का खज़ाना हमदानी मांगे ऐसी ललकार की तलवार भी पानी मांगे ऐसी रफ्तार की दरिया भी रवानी मांगे

कैफी आजमी की कविता गरीबों और दबे लोगों के जीवन को उजागर करती है. उन्होंने एक बार गर्व से घोषणा की थी,"मैं औपनिवेशिक भारत में पैदा हुआ था, मैं एक स्वतंत्र भारत में रह रहा हूं और मैं एक समाजवादी भारत में मरूंगा.''

कैफी आजमी की जिंदगी मोहब्बत का पैगाम देती है

जैसा की ऊपर बता चुका हूं कि शायरी बगावत और मोहब्बत दोनों सिखाती है. बगावत की बात हो चुकी, अब मोहब्बत की बात करते हैं. यहां यह कहना उचित होगा कि जब भी लूट और जुल्म हद से गुजरती हैं तो कैफ़ी आजमी की शायरी अचानक किसी कोने में नजर आती है और मोहब्बत का पैगाम देते हुए पूछती है

झुकी झुकी सी नज़र बे-क़रार है कि नहीं दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं

कैफी साहब की खुद की मोहब्बत की कहानी भी उनके शेर की तरह दिल को छू लेने वाली है. दरअसल, वाकया उनकी सबसे मशहूर नज़्मों में एक 'औरत' से जुड़ा है. वह हैदराबाद के एक मुशायरे में हिस्सा लेने गए. मंच पर जाते ही अपनी मशहूर नज़्म 'औरत' सुनाने लगे.

"उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे, क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं,

तुझमें शोले भी हैं बस अश्क़ फिशानी ही नहीं तू हक़ीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं,

तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं, अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे,

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे,"

उनकी यह नज़्म सुनकर श्रोताओं में बैठी एक लड़की नाराज हो गई. उसने कहा, "कैसे बदतमीज़ शायर हैं, वह 'उठ' कह रहे हैं. 'उठिए' नहीं कह सकते क्या? इन्हें तो अदब के बारे में कुछ नहीं आता. कौन इनके साथ उठकर जाने को तैयार होगी? "लेकिन जब कैफ़ी साहाब ने अपनी पूरी नज्म सुनाई तो महफिल में बस वाहवाही और तालियों की आवाज सुनाई दे रही थी. इस नज़्म का असर यह हुआ कि बाद में वही लड़की जिसे कैफी साहाब के 'उठ मेरी जान' कहने से आपत्ति थी वह उनकी पत्नी शौक़त आज़मी बनीं.

दरअसल उस मुशायरे में अपने भाई के साथ पहली पंक्ति में बैठीं शौकत नज़्म खत्म होते-होते कैफी पर अपना दिल हार बैठीं. इसके बाद अपनी मोहब्बत में उन्होंने हर इम्तेहान पास किया और शौकत से शौकत आजमी बन गईं. शादी के बाद उनका एक बेटा हुआ जिसकी कुछ दिनों बात ही मृत्यु हो गई. इसके बाद वह लखनऊ आ गए. कुछ दिनों बाद उनकी पत्नी शौकत फिर गर्भवती हुईं लेकिन कम्यूनिस्ट पार्टी ने फरमान सुना दिया कि गर्भपात कराओ, कैफ़ी उस वक्त अंडरग्राउंड थे, उनके पास इतने भी रुपये भी नहीं थे कि वह शौकत की डिलीवरी करा पाते. वह अपनी मां के पास हैदराबाद चली गईं और वहीं पर उनकी बेटी शबाना आज़मी का जन्म हुआ. उस वक्त कैफी आजमी की हालत इतनी खराब थी कि उनकी मदद के लिए महान लेखिका इस्मत चुगताई और उनके पति शाहिद लतीफ़ ने एक हज़ार रुपये आज़मी जी के पास भिजवाए ताकि वो बच्ची का खर्च उठा सकें.

फिल्मी पर्दे पर नर्म नाजुक शब्दों से सजे अदबी गाने

जब भी फिल्मी पर्दे पर अदब की बात होगी तो तीन नाम जरूर याद किए जाएंगे, साहिर, मजरूह और कैफी आजमी. कैफी ने नर्म नाजुक शब्दों से सजे न जाने कितने ऐसे गीत हैं जिनसे उनकी सौंधी महक आती है. उनकी कलम से झरे खूबसूरत बोलों की रंगत, खुशबू और ताजगी आज भी वैसी ही है. कैफी की कलम का करिश्मा ही था कि वे ‘जाने क्या ढूंढती रहती हैं ये आंखें मुझमें’, जैसी कलात्मक रचना के साथ सहज मजाकिया ‘परमिट, परमिट, परमिट....परमिट के लिए मरमिट’ लिखकर संगीत रसिकों को गुदगुदा गए.

कैफ़ी आज़मी ने 1951 में पहला गीत 'बुजदिल फ़िल्म' के लिए लिखा- 'रोते-रोते बदल गई रात'. उन्होंने अनेक फ़िल्मों में गीत लिखें जिनमें कुछ प्रमुख हैं- 'काग़ज़ के फूल' 'हक़ीक़त', हिन्दुस्तान की क़सम', हंसते जख़्म 'आख़री ख़त' और हीर रांझा'.

'हुस्न और इश्क दोनों को रुस्वा करे वो जवानी जो खूं में नहाती नहीं ' कैफी आजमी की यह पंक्ति उनके जीवन की सबसे बड़ी पंक्ति है और इसी लाइन के आस-पास उन्होंने पूरा जीवन जिया है.

मिले कई अवॉर्ड

1975 कैफ़ी आज़मी को आवारा सिज्दे पर साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से सम्मानित किये गये. 1970 सात हिन्दुस्तानी फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला. इसके बाद 1975 गरम हवा फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ वार्ता फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला. 10 मई 2002 को दिल का दौरा के कारण मुंबई में उनका हुआ.

अंत में ये दावे के साथ कहा जा सकता है कि कैफ़ी आजमी, शायरी की दुनिया में वो नाम हैं जिन्हें कोई भी न मुल्क जमझकर जला सकता है, न दीवार समझकर गिरा सकता है, न सरहद की तरह बना सकता है और यादों की तरह भुला सकता है. बल्कि वह तो दीवानों के दिल के अरमान हैं, वह तो कुचले हुए इंसानों का ख्वाब हैं. वह गांवों में हैं, वह शहरों में हैं, वह हर बस्ती और हर जंगल में हैं. कैफ़ी आज़मी मोहब्बत करने वालों के दिल में हैं.

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