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Vedas: वेदों से ही मनुष्य ने सीखी राजनीति, कुशल राजनीतिज्ञ को लेकर क्या कहते हैं वेद

Vedas: यह कहना गलत नहीं होगा कि, प्राचीन ग्रंथ वेद से ही मनुष्य ने सारी राजनीति सीखी है. राजनीतिज्ञ यदि वेदों के अनुसार चले तो इससे न केवल राष्ट्र बल्की विश्व का भी कल्याण होता है.

Vedas: वेद संपूर्ण मानव सभ्यता का प्राचीन ग्रंथ है. एक कुशल राजनीतिज्ञ होना मानव को वेद ने ही सिखाया. क्योंकि इन दिनों चुनाव (Parliamentary Election 2024) का समय चल रहा है, इसलिए हम जानेंगे कि राजनीति (Politics), लोकतंत्र (Democracy) और मतदान (Vote) के बारे में वेदों में क्या कहा गया है.

त्वं ह त्यदिन्द्र सप्त युध्यन् पुरो वज्रिन् पुरुकुत्साय दर्दः।
बर्हिर्न यत् सुदासे वृथा वर्गहो राजन् वरिवः पूरवे कः॥
(ऋग्वेद 1.63.7)

हे उत्तम शास्त्रों से युक्त राजन्! प्रकाशवान विजय देने वाले सभा के अधिपते! जो आप सभा, सभासद्, सभापति, सेना, सेनापति, भृत्य और प्रजा-इन सातों के साथ प्रेमपूर्ण बर्ताव करते हैं, इसलिये युद्ध में आप उन शत्रुओं के नगरों का विदारण (या विजित) करते हैं. जो आप प्राप्त होने योग्य, राज्य के मनुष्यों को पूर्ण सुखी करने के लिए उपयोग की वस्तुएं या सेवन करने योग्य पदार्थों के दान करने वाले मनुष्यों को अन्तरिक्ष के समान सभी स्थानों पर फैला देते हैं तथा व्यर्थ काम करने वाले (जिन कार्यों का राष्ट्र के लिये कोई उपयोग न हो) मनुष्यों को वर्जित करते हैं (वैसा करने से रोकते हो), इस कारण आप हम सब लोगों के सत्कार करने योग्य हैं.

तमप्सन्त शवस उत्सवेषु नरो नरमवसे तं धनाय।
सो अन्धे चित् तमसि ज्योतिर्विदन् मरुत्वान् नो भवत्विन्द्र ऊती॥
(ऋग्वेद 1.100.8)

हे मनुष्यों! तुममें जो व्यक्ति सब कार्यों को व्यवस्थित रूप से संचालन की निपुणता, विद्याबल तथा धनादि अनेक बलों वाला हो, वह भी उत्सव तथा आनन्द के अन्य अवसरों पर प्रबल युद्ध करने वाले शत्रु से युद्ध करने वाले सेनापति को सत्कार दे-सम्मानित करें. वह उत्तम वीरों को रखने वाले सेनापति से हमें रक्षा तथा प्रकाश उसी प्रकार प्राप्त कराए, जैसे अन्धकार को नष्ट करके सूर्य प्रकाश देता है. इस मन्त्र में बल दिया गया है कि धनवान्, विद्वान् तथा अन्य प्रकार से सम्पन्न व्यक्ति भी अपने अभिमान में न रहकर राष्ट्ररक्षक सेनापति का तथा सेना का सार्वजनिक स्थलों पर सम्मान करे, उन्हें अभिनन्दित करे.

युवं तमिन्द्रपर्वता पुरोयुधा यो नः पृतन्यादप तंतमिद्धतं वज्रेण तंतमिद्धतम्।
दूरे चत्ताय च्छन्त्सद् गहनं यदिनक्षत्।
अस्माकं शत्रून् परि शूर विश्वतो दर्मा दर्षीष्ट विश्वतः॥
(ऋग्वेद 1.132.6)

हे पहले भी युद्ध किए हुए सूर्य और मेघ के समान वर्तमान सभा एवं सेनाधीशो! जो (शत्रु) हम लोगों की सेनापर आक्रमण करे, सबसे आगे जाकर तीक्ष्ण अस्त्र शस्त्रों से तुम दोनों उसको मारो, दण्ड दो. यदि वह शत्रु वन में या संकट में चला जाए तो दूर चले गये शत्रु को भी पकड़ो. हे शूरवीर! हमारे शत्रुओं को सब तरफ से बेधता हुआ छिन्न-भिन्न कर डालो. युद्ध का निमन्त्रण देने वाले को सम्यक् उत्तर दो. जो शत्रुओं की सेना में (जासूसी-हेतु) व्याप्त हो उसकी तुम निरन्तर रक्षा करो.

ज्योतिष्मतीमदितिं धारयत्क्षितिं स्वर्वतीमा सचेते दिवेदिवे जागृवांसा दिवेदिवे।
ज्योतिष्मत् क्षत्रमाशाते आदित्या दानुनस्पती।
मित्रस्तयोर्वरुणो यातयज्जनो यातयज्जनः
(ऋग्वेद 1.136.3)

जैसे सूर्य और वायु सम्पूर्ण द्युलोक में अपनी आकर्षण-शक्तिद्वारा पृथ्वी को धारण करते हैं, उसी प्रकार शुभ प्रयत्न करने वाले मनुष्य, श्रेष्ठ न्यायाधीश, पुरुषार्थवान् सेनाधीश तथा दान को पालना करने वाले सभाध्यक्ष के प्रभाव से समस्त प्रजाजन न्याययुक्त अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं.

सरस्वति त्वमस्माँ अविड्ढि मरुत्वती धृषती जेषि शत्रून्।
त्यं चिच्छर्धन्तं तविषीयमाणमिन्द्रो हन्ति वृषभं शण्डिकानाम्।।
(ऋग्वेद 2.30.8)

जिस प्रकार विद्युत् या वायु बरसने वाले मेघ पर आघात करता है, हे प्रशंसित रूपवान् विज्ञानयुक्त विदुषी रानी! हे प्रगल्भ उत्साहनी! आप जैसी सेनानायि का जिस प्रकार सेना शत्रुसैन्य के बली वीरों को मारती है, उसी प्रकार हमारे सुख को नष्ट करने वाले शत्रुओं को जीतती हो. इससे हम सबके सम्मान करने योग्य हो.

इमे भोजा अङ्गिरसो विरूपा दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीराः।
विश्वामित्राय ददतो मधानि सहस्त्रसावे प्र तिरन्त आयुः॥
(ऋग्वेद 3.52.7)

हे राजन्! जैसे प्राणवायु शरीर का पालन करती है, उसी प्रकार जो जनता के पालने में तत्पर, युद्ध-विद्या में पूर्ण निपुण, वायु के समान शक्तिशाली असुरों, शत्रुओं के हननकर्ता, असंख्य धनैश्वर्य के उत्पन्नकर्ता, सम्पूर्ण संसार के मित्र हैं, जो अतिश्रेष्ठ धनों को समाज हित के लिए देते हुए मनुष्य के सामान्य स्वभाव (केवल परिवारतक ही अपनत्व रखनेवाला स्वभाव) का उल्लंघन करते हैं, वे ही लोग आपसे सत्कारपूर्वक रक्षा पाने योग्य हैं.

त्वा युजा नि खिदत् सूर्यस्येन्द्रश्चक्रं सहसा सद्य इन्दो।
अधि ष्णुना बृहता वर्तमानं महो द्रुहो अप विश्वायुधायि॥ (ऋग्वेद 4.28.2)

हे चन्द्र के समान कान्तियुक्त प्रजाजन! विद्युत् जिस भांति जल की सहायता से सूर्य के ज्योतिमण्डल को तेजोहीन बना देता है, उसी प्रकार आपका राजा आप प्रजाजन की सहायता से सूर्य के तुल्य शत्रु राजा के राज्यचक्र को कान्तिहीन करता है. शत्रुओं को नाश करने वाला आपका राजा शत्रुओं को वृक्षों की भांति कांपाता हुआ अपने शत्रु-विजयी सैन्य बल से अतिशीघ्र बिलकुल दीन-हीन कर सकता है तथा द्रोही शत्रु के कार्यकारी के रूप में उपस्थित बड़े जीवन सामर्थ्ययुक्त, सर्वत्रगामी बल के भी निराकरण में समर्थ होता है.

उत ग्ग्रा व्यन्तु देवपत्त्रीरिन्द्राण्य ग्राव्यश्विनी राट्।
आ रोदसी वरुणानी शृणोतु वयन्तु देवीर्य ऋतुर्जनीनाम्।।(ऋग्वेद 5.46.8)

देवसमान विद्वानों की विदुषी स्त्रियां न्याय करने हेतु अत्यन्त धनैश्वर्यवान् पुरुषों तथा अग्नि के सदृश तेजस्वी वीर पुरुषों की स्त्रियों की बात सुनें तथा विचारकर न्याय करें. उपदेशक श्रेष्ठजनों की स्त्रियां तथा अन्य विद्यायुक्त स्त्रियां ऋतु ऋतु में उत्पन्न करने (अर्थात् ऋतु-अनुसार उत्पादन हेतु कृषि कार्यमें लगी) वाली स्त्रियों की बात सुन न्याय करें.

अद्या चिन्नू चित् तदपो नदीनां यदाभ्यो अरदो गातुमिन्द्र।
नि पर्वता अद्यसदो न सेदुस्त्वया दुळहानि सुक्रतो रजांसि।। (ऋग्वेद 60.30.3)

हे श्रेष्ठ कर्मों को उत्तम प्रकार जानने वाले सूर्य के समान तेजस्वी राजन्! जैसे सूर्य भूमि का आकर्षण करता, आकर्षण द्वारा नदियों से प्राप्त जल को बरसाता है, इसी प्रकार प्रजाद्वारा प्राप्त धन को आप उसी के हितार्थ बरसावें (उपयोग करें), जैसे सूर्य अपनी परिधिके लोकों को धारण करता है, आपके धारण सामर्थ्य में रक्षक, प्रजा तथा राजाजन स्थित होते हैं.

उत त्यं भुज्युमश्विना सखायो मध्ये जहुर्दुरेवासः समुद्रे।
निरीं पर्षदरावा यो युवाकुः॥
(ऋग्वेद 7.68.7)

हे राज्यपुरुषो, तुम उस भोक्ता सम्राट्‌ को मित्रता की दृष्टि से देखो, जो एक स्थान में रहने रूपी दुःखरूप वास को त्यागकर समुद्र के मध्य में गमन करता है (अर्थात् जो समुद्रादि की यात्रा कर दूसरे देशोंसे धनैश्वर्य तथा अन्यान्य सामग्री जनता के हितार्थ अर्जित कर जनता को सुखी-सम्पन्न करता है) और जो तुम लोगों के निरन्तर उत्तम आचरण की शिक्षा दे, तुम्हारी बाधाओं को दूरकर तुम्हारी रक्षा करता है.

शश्वन्तं हि प्रचेतसः प्रतियन्तं चिदेनसः।
देवाः कृणुथ जीवसे।
(ऋग्वेद 8.67.17)

हे ज्ञानेश्वर! हे उदारचेता! हे सुयोद्धा विद्वानो! उन पुरुषों की जो अपराध और पाप करने के सदा अभ्यासी हो गये हैं, परंतु उन पापों को करके पश्चात्तापपूर्वक आपकी शरण में आ रहे हैं, उन्हें वास्तविक मानव-जीवन प्राप्त कराने हेतु सुशिक्षित और सदाचारी बनाने का प्रयत्न कीजिये, ऐसी आपसे प्रार्थना है.

वरेथे अग्निमातपो अन्ति वदते वनवत्रये वामवः ।। (ऋग्वेद 8.73.8)

हे अश्विद्वय राजा और अमात्य! आप दोनों मनोहर सुवचन बोलते मातृपितृभ्रातृविहीन (अनाथ) शिशु- समुदाय को तपाने वाले भूख, प्यास आदि अग्निज्वाला का निवारण कीजिए. आपके राज्य में यह महान् कार्य साधनीय (करणीय) है.

अस्मिन्स्वेतच्छकपूत एनो हिते मित्रे निगतान् हन्ति वीरान्।
अवोर्वा यद्धात् तनूष्ववः प्रियासु यज्ञियास्वर्वा॥
(ऋग्वेद 10.132.5)

इस शक्तिमान् पुरुष, हितकारक मित्र तथा सर्वप्रिय राजा का लघु पाप (दुर्गुण या बुराई) भी नीचे विद्यमान वीरों, मित्रों तथा प्रजाओं को प्राप्त होता है, उनमें भी व्याप्त हो जाता है और उनका नाश करता है. इसी तरह इनके जो रक्षण, सहयोग, प्रेम-पालन तथा ज्ञानादि गुण होते हैं, वे सत्संग करने वाले मित्रों तथा प्रिय प्रजाओं में भी चले जाते हैं, उन्हें भी प्राप्त होते हैं.

गायत्रं उक्थं च न शस्यमानं नागो रयिरा चिकेत। न गीयमानम्॥ (सामवेद पूर्वाचिक 20.12.3)

ज्ञानी राजा को योग्य है कि स्पष्टवक्ता (आलोचक)- के कथन को समझे, उसे अवश्य समझे (अर्थात् उसके कथनपर अवश्य विचार करे). आलोचना से क्षुब्ध न होकर शान्त-चित्त से उसपर विचार कर के हितकारी आलोचना का क्रियान्वयन करें.

वि तिष्ठध्वं मरुतो विश्वीच्छत गृभायत रक्षसः सं पिनष्टन।
वयो ये भूत्वा पतयन्ति नक्तभिर्ये वा रिपो दधिरे देवे अध्वरे।।
(अथर्ववेद 8.4.18)

हे शत्रुमारक वीरो! सब समाज में फैल जाओ, उन राक्षसों की खोज करो, पकड़ो, पीस डालो-जो पक्षीके समान रात्रि में विमान से विचरण करके हमारे राष्ट्र की गुप्तचरी करते हैं तथा वह जिन्होंने दिव्य गुणयुक्त यज्ञादि तथा अन्य शुभ व्यवहारों में हिंसाएं धरी हैं, अर्थात उन सद्व्यवहारों में हिंसा का प्रवेश कराया है.

मानव ने सारी राजनीति वेदों से ही सीखी ऐसा कहना गलत नहीं होगा. आशा रखतें है की आज के राजनीतिज्ञ भी वेदों के अनुसार चले ताकि केवल राष्ट्र का ही नही बल्कि विश्व का कल्याण हो.

ये भी पढ़ें: Vedas: क्यों घटती जा रही है वेदों की संख्या, वेदों की 1131 शाखाओं में अब सिर्फ बारह ही शेष
नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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