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Explained: PUBG जैसे वीडियो गेम्स क्या हमारे बच्चों को साइकोपैथ बना रहे हैं ?

PUBG Row: बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए मनोरंजन भी जरूरी है, लेकिन वीडियो गेम्स (PUBG) जैसे मनोरंजन के साधन उन्हें एडिक्ट बना दें, या अपराध की तरफ धकेले तो ये एक गंभीर समस्या है.

PUBG Like Video Games Making Our Children Sick: संचार क्रांति ने जहां हमारे नौनिहालों के मानसिक विकास के लिए 10 रास्ते खोलें हैं, वहीं यह क्रांति हमारे नन्हें- मुन्नों के दिलो दिमाग पर भी खासा असर डाल रही है. परेशानी ये हैं कि आप संचार के इन साधनों से बच्चों को दूर भी नहीं कर सकते,क्योंकि कोरोना काल ने दिखा दिया कि इंटरनेट की पावर क्या है.ऑन लाइन क्लासेज ने छोटे-छोटे बच्चों के लिए मोबाइल और लैपटॉप से इंटरनेट की इस बड़ी दुनिया में दरवाजे खोल दिए. लखनऊ में हुई घटना इस बात का सबूत हैं कि वीडियो गेम्स जैसे एंटरटेनमेंट के साधन किस कदर बच्चों की मानसिक स्थिति को प्रभावित कर उन्हें एडिक्ट की कैटेगिरी में ला खड़ा कर रहे हैं. आलम ये है कि इस एडिक्शन के चलते बच्चे भयंकर अपराध करने से भी नहीं घबरा रहे हैं. इससे पहले कि देर हो जाए हमें अपने बच्चों के लिए एक गाइड लाइन तय करनी होगी कि वो साइकोपैथ की कैटेगिरी में खड़े हो या एक सही इंसान बन पाएं. 

PUBG का हालिया मामले क्या कर रहा इशारा

लखनऊ की यमुनापुरम कॉलोनी के महज 17 साल के एक लड़के ने PUBG न खेलने देने पर पिता की लाइसेंसी रिवाल्वर से मां को मौत घाट उतार डाला और लाश को तीन दिन तक एयर कंडीशनर वाले कमरे में रखा. इतना ही नहीं बदबू दूर करने के लिए उसने रूम फ्रेशनर का इस्तेमाल किया. अपनी 10 साल की बहन को धमकाया कि वह ये बात किसी को न बताए. सब कुछ सामान्य दिखे इसके लिए दो दोस्तों को बुलाकर पार्टी की, मां के बारे में बताया कि वो बीमार दादी को देखने गई हैं. इतना सब करने के बाद मोहल्ले में खेलने के लिए भी निकला.इतना ही नहीं पिता को वीडियो कॉल कर शव दिखाया और मां की हत्या के बारे में भी बताया.

स्वाभाविक है कि इस लड़के को लेकर सब के मन में गुस्सा ही होगा, लेकिन क्या किसी ने गौर किया इस लड़के का दिलो-दिमाग किस हद तक बीमार और अपराधी माइंड सेट में बदल चुका था कि हत्या करने के बाद भी वह सामान्य इंसान की तरह बिहेव करता रहा. इतनी असंवेदनशीलता इस बच्चे में कैसे घर कर गई इसके व्यक्तित्व से बचपन की वो मासूमियत कहां काफूर हो गई. ये सवाल सच में संजीदा है. बताया जा रहा है कि ये लड़का वीडियो गेम्स का एडिक्ट था. ऐसे में सवाल ये उठता है कि बच्चों को खुश रखने और उनके मानसिक और भावनात्मक विकास के लिए क्या केवल सभी वीडियो गेम्स, मोबाइल जैसे साधन जुटाना ही काफी है. इस मामले में गौर किया जाए तो ये लड़का केवल अपनी मां और बहन के साथ ही अकेला रहता है. पिता सेना में अधिकारी हैं और दूसरी स्टेट में पोस्टेड हैं. इस घटना के बाद किशोरवय के बच्चों का ये भावनात्मक और मानसिक अकेलापन उन्हें किस तरफ धकेल रहा है इस पर सोचने की भी जरूरत है. ये एक अकेला मामला नहीं है जहां PUBG की दीवानगी में हत्या करने जैसा खतरनाक कदम उठाया है. इससे पहले भी साल 2019 में कर्नाटक के बेलगावी जिले में 21 साल के एक युवक ने PUBG खेलने से मना करने पर अपने पिता का सिर काट डाला था. 

वॉयलेंट (Violent) वीडियो गेम्स रिस्की बिहेवियर की वजह

हेल्थ लाइन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 90 फीसदी बच्चे वीडियो गेम्स खेलते हैं और इनमें से 90 फीसदी गेम्स में किसी न किसी तरह की हिंसा होती है. इस मामले में टेक्सास यूनिवर्सिटी की हेल्थ प्रमोशन और प्रिवेंशन रिसर्च की डॉयरेक्टर सूजन टॉरटोलेरो ने वॉयलेंट वीडियो गेम्स प्ले और डिप्रेशन पर स्टडी करने के बाद कहा कि सामान्यत: हम सभी हिंसा के बारे में जानते हैं - या तो एक हिंसा के विक्टिम के तौर पर या फिर हिंसा के विटनेस के तौर पर. इसका सीधा संबंध दिमाग की सेहत संबंधी परेशानियों से है. उनके मुताबिक, हम ब्रेन रिसर्च के जरिए ये पता चला है कि कभी-कभी हमारा दिमाग क्या वास्तविक है और क्या हम टीवी पर देखते हैं, इसके बीच फर्क नहीं कर पाता है. उन्होंने चार साल तक 5 हजार टीनएज बच्चों पर की गई स्टडी में पाया कि एक दिन में दो घंटे से अधिक हिंसात्मक (Violent) वीडियो गेम्स खेलने वाले बच्चों में डिप्रेशन देखा गया है और ये खतरनाक बिहेवयर की वजह बन सकता है.

क्या है राय क्लीनिकल साइकॉलोजिस्ट की

बच्चों में बढ़ते जा रहे गुस्से और रिस्की बिहेवियर को लेकर डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल की डिर्पाटमेंट ऑफ क्लीनिकल साइकॉलोजी की HOD डॉ. रूशी का कहना है कि वैसे तो गुस्सा भी इंसान एक हेल्दी इमोशन है, लेकिन जब ये हद से बढ़ जाए तब ये परेशानी का सबब है. टीनएज बच्चों में हिंसात्मक और विनशकारी प्रवृति इसलिए भी देखी जा रही है कि  इस उम्र में  कई शारीरिक और हॉर्मोनल बदलाव आते हैं. ऐसे वक्त में उन्हें समझा जाना और इन बदलावों के लिए तैयार करना होता. जब अपने शरीर में आ रहे बदलावों से वह खुद ही जूझ रहे होते हैं ऐसे में पेरेंट्स की जवाबदेही बनती है कि वे उन्हें समझे और सपोर्ट करें. इसके लिए जरूरी है कि बच्चों के व्यवहार पर नजर रखी जाएं.  किशोरवय के बच्चों में किसी तरह के असामान्य व्यवहार को अनदेखा न किया जाए. बच्चों के साथ लगातार स्वस्थ संवाद स्थापित करना भी पेरेंट्स का दायित्व है. इसके साथ ही बचपन से ही बच्चों को लाइफ स्किल के बारे में सिखाना चाहिए. फैमिली में प्यार और केयर का माहौल होना भी जरूरी है. बच्चों से पेरेंट्स का रिश्ता इस तरह खुलापन लिए होना चाहिए कि बच्चा बेझिझक किसी भी तरह की परेशानी और बात साझा कर सकें.

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