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हाइब्रिड वॉर, साइबर जासूसी... चीन के साइबर युद्ध वाले हनी-ट्रैप को मात देने के लिए भारतीय सेना ने बनाई ठोस रणनीति

भारतीय सेना अब साइबरस्पेस डोमेन को संभालने के लिए देश भर में अपने प्रत्येक छह ऑपरेशनल या क्षेत्रीय कमांड में एक डेडिकेटेड विशेष एजेंसियों को स्थापित करेगी. भारत के पास 12 लाख सैनिकों की मजबूत सेना है.

चीन की शक्तिशाली साइबर-युद्ध और साइबर-जासूसी की क्षमता के वर्तमान खतरे को देखते हुए भारतीय सेना अब साइबरस्पेस डोमेन को संभालने के लिए देश भर में अपने प्रत्येक 6 ऑपरेशनल या क्षेत्रीय कमांड में एक डेडिकेटेड विशेष एजेंसियों को स्थापित करेगी. भारत के पास 12 लाख सैनिकों की मजबूत सेना है. चूंकि अब युद्ध करने के तरीके बहुत तेजी से बदल रहे हैं और अब दुनिया भर की मिलिट्री हाइब्रिड वॉरफेयर के साथ की तैयारियों के साथ आगे बढ़ रही है. भारतीय सेना को भी चीन के साथ तकनीकी युद्ध कौशल में मजबूत बनाने के लिए ड्रोन, ड्रोन झुंड, काउंटर-ड्रोन सिस्टम, इलेक्ट्रॉनिक युद्ध और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित युद्ध प्रणाली जैसी "आला प्रौद्योगिकियों" के लिए परिचालन को विकसित करने के लिए "लीड डायरेक्टोरेट्स" और "टेस्ट-बेड फॉर्मेशन" भी निर्धारित किए गए हैं.

ये फैसला पिछले हफ्ते सेना कमांडरों के सम्मेलन के दौरान लिए गए हैं. सेना के तेजी से नेट सेंट्रिसिटी की तरफ झुकाव बढ़ा रहा है और यह सभी स्तरों पर आधुनिक संचार प्रणालियों पर बढ़ती निर्भरता को दिखाता है. सम्मेलन के दौरान नेटवर्क की सुरक्षा की आवश्यकता की समीक्षा की गई और तत्काल भविष्य में कमांड साइबर ऑपरेशंस एंड सपोर्ट विंग्स (CCOSWs) को संचालित करने का निर्णय लिया गया.

ये साइबर स्पेस या डोमेन में चीन की बढ़ती शक्ति को संतुलित करने के लिए बहुत आवश्यक है. चूंकि, चीन बहुत तेज गति से अपने साइबर हथियारों की एक विस्तृत श्रृंखला को विकसित कर रहा है. जो कि युद्ध शुरू होने से पहले ही अपने विरोधियों की सैन्य संपत्ति और रणनीतिक नेटवर्क के साथ-साथ ऊर्जा, बैंकिंग, परिवहन और संचार ग्रिड की क्षमता को कम कर देगा या फिर उसे पूरी तरह से नष्ट कर देने में सक्षम है. चीन द्वारा हाइब्रिड युद्ध की तैयारियों की पृष्ठभूमि को देखते हुए भारतीय सेना को इसके लिए तैयार रहने की तत्काल आवश्यकता है. चीन लगातार दुर्भावनापूर्ण साइबर गतिविधियों को अंजाम देने में जुटा हुआ है और साथ ही अपने "ग्रे ज़ोन युद्ध" (ग्रे ज़ोन रणनीति, टकराव और संघर्ष गैर-सैन्य साधनों के उपयोग से संबंधित है- सशस्त्र संघर्ष के स्तर से नीचे की बात होती है. यह मुख्य रूप से राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शांति और युद्ध के बीच का टकराव होता है. जो कि काफी खतरनाक होता है. इसके अंतर्गत की जाने वाली गतिविधियों में राजनीतिक और चुनावी हस्तक्षेप, साइबर खतरे और हमले, आर्थिक जबरदस्ती, और कई अन्य उपाय शामिल हो सकते हैं और जिसमें सैन्य कार्रवाई भी शामिल होती है) के लिए साइबर स्पेस का भी इस्तेमाल कर रहा है. जो कि शांति और युद्ध के बीच मूल रूप से यथास्थिति को बदलने के लिए अपने विरोधी को मजबूर करता है.

सेना का मानना है कि CCOSWs थल, जल, वायु और अंतरिक्ष के बाद युद्ध के इस पांचवें आयाम में अपने नेटवर्क को सुरक्षित रखने और तैयारियों के स्तर को बढ़ाने में मदद करेगा. भारतीय सेना के एक अधिकारी का कहना है कि इस कदम से पूरी तरह से साइबर सुरक्षा और पारंपरिक युद्ध अभियानों के साथ-साथ ग्रे जोन युद्ध को समग्र रूप से मजबूती मिलेगी. साइबर युद्ध क्षमताओं को विकसित करने में भारत अब तक काफी पिछड़ा हुआ है. सरकार ने 2019 में केवल एक पूर्ण विकसित साइबर कमांड के बजाय शीर्ष स्तर पर केवल एक छोटी ट्राई-सर्विस रक्षा साइबर एजेंसी (DCA) के निर्माण को मंजूरी दी, जैसा कि सशस्त्र बल चाहते थे.

जबकि, चीन के पास पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के अंतरिक्ष, साइबर और इलेक्ट्रॉनिक युद्ध संचालन की निगरानी के लिए एक प्रमुख रणनीतिक समर्थन बल है. अमेरिका के पास भी एक विशाल साइबर कमांड नेटवर्क है. आवश्यकता पड़ने पर "पूर्ण स्पेक्ट्रम" युद्ध शुरू करने के साथ-साथ 15,000 से अधिक अमेरिकी सैन्य नेटवर्क को चौबीसों घंटे हमलों से बचाता है. आला प्रौद्योगिकियों के लिए, सेना का कहना है कि फील्ड संरचनाओं की युद्धक क्षमता को बढ़ाने के लिए बड़ी संख्या में और विभिन्न प्रकार के उपकरणों का प्रभावी तरीके से दोहन करने के लिए अपेक्षित बल संरचनाओं की आवश्यकता है. भारतीय सेना के एक अधिकारी ने कहा कि "आला तकनीक-सक्षम उपकरणों के निर्बाध दोहन के लिए मौजूदा टीटीपी (tactics, techniques and procedures) के रिफाईनमेंट और रख-रखाव की भी आवश्यकता होगी."

अर्मेनिया-अज़रबैजान और रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान ड्रोन युद्ध को अत्यधिक बढ़ावा दिया है. भारतीय सेना हाल ही में मानव रहित हवाई वाहनों की एक विस्तृत विविधता की खरीद के लिए आगे बढ़ी है. इनमें नैनो, मिनी और माइक्रो ड्रोन से लेकर कामिकेज़, लॉजिस्टिक्स, सशस्त्र झुंड, निगरानी क्वाडकोप्टर और पैदल सेना, तोपखाने, विशेष बलों और इसी तरह के रिमोट-पायलट एयरक्राफ्ट सिस्टम आदि शामिल हैं.

क्‍या है हाइब्र‍िड वॉरफेयर?

'हाइब्रिड वॉरफेयर', टर्म के जनक अमेरिकी डिफेंस रिसर्चर फ्रैंक जी. हॉफमैन हैं. उन्होंने सबसे पहले साल 2007 में अपने एक रिसर्च पेपर जिसका टाइटल 'कनफ्लिक्ट इन द 21st सेंचुरी: द राइज ऑफ हाइब्रिड वॉर' में हाइब्रिड वॉरफेयर की शुरुआत और उसके विकास के बारे में समझाया था. उस रिसर्च में कहा गया था कि दुश्मन को हराने के लिए युद्ध का रुख सैन्य क्षेत्र से हटाकर राजनीतिक, आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र तक ले जाना ही 'हाइब्रिड वॉरफेयर' है.

हाइब्रिड युद्ध सैन्य रणनीति का एक सिद्धांत है जो पारंपरिक और साइबर युद्ध के साथ-साथ राजनीतिक युद्ध की बात करता है. जब हाइब्रिड युद्ध होता है तब बहुत सारी चीजें एक साथ समानांतर तौर पर चलती रहती हैं. जिसमें फेक न्यूज, आर्थिक मैनिपुलेशन, साइबर युद्ध, जासूसी, दुश्मन देश में अशांति पैदा करने, कूटनीतिक दबाव बनाने की की कोशिश चलती रहती है. इस तरह के युद्ध में जहां एक तरफ दो देशों के बीच पारंपरिक जंग चल रही होती है तो वहीं, दूसरी तरफ डिप्लोमेसी, अंतरराष्ट्रीय कानून, फेक न्यूज, और विदेशी दखलंदाजी जैसे तरीकों से भी जंग को प्रभावित करने की कोशिश की जाती है. युद्ध के इसी स्वरूप को 'हाइब्रिड वॉरफेयर' का नाम दिया गया है.

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