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The Girl on the Train Review: बॉलीवुड फॉर्मूले बाजी ने कम किया थ्रिल, सफलता के लिए परिणीति का इंतजार बढ़ा

The Girl on the Train Review: थ्रिलर होने के बावजूद इस फिल्म की रफ्तार बीच-बीच में धीमी पड़ती है. निर्देशक ने हॉलीवुड फिल्म को बॉलीवुड अंदाज में बनाया और गाने भी डाले लेकिन वह देसी संवेदनाओं को नहीं पकड़ सके. परिणीति चोपड़ा ने मेहनत तो की है मगर किरदार की सहजता को अपने अंदर पैदा नहीं कर सकीं. आपके पास खाली वक्त है तो इस फिल्म को देख सकते हैं.

The Girl on the Train Review: विदेशी किताब पर देसी फिल्म. उपन्यास द गर्ल ऑन द ट्रेन 2015 में ब्रिटेन-अमेरिका में प्रकाशित हुआ था. जिम्बाब्वे में जन्मी ब्रिटिश लेखिका पॉला हॉकिन्स का यह उपन्यास घरेलू हिंसा, शराब और ड्रग्स के बीच तीन महिलाओं के जीवन पर आधारित था. 2016 में इस पर अमेरिका में साइकोलॉजिकल थ्रिलर फिल्म बनी और बॉक्स ऑफिस पर सफल रही. अब लेखक-निर्देशक रिभु दासगुप्ता ने इसे हिंदी में बॉलीवुड अंदाज में बनाया है. सवाल यह कि जब अंग्रेजी फिल्म नेटफ्लिक्स और दूसरे प्लेटफॉर्मों पर उपलब्ध है तो इसे क्यों हिंदी में बनाया गया. जबकि लेखक-निर्देशक ने मीरा (परिणीति चोपड़ा) और अन्य किरदारों तथा घटनाओं को ब्रिटेन में ही रखा है.

कहानी को भारतीय देश-काल-परिवेश में ढाला गया होता तो समझ आता कि दासगुप्ता ने कुछ नया करने की कोशिश की है, मगर ऐसा नहीं है. उन्होंने सिर्फ किरदारों को भारतीय मूल का बना कर समझ लिया कि फिल्म हिंदी की हो गई. जबकि यहां ऐसा कुछ नहीं है कि जिससे देसी दर्शक कनेक्ट हो सकें. परिणीति चोपड़ा का स्टारडम या अभिनय प्रतिभा भी ऐसी नहीं कि उन्हें देखने के लिए मन में हूक पैदा हो. निर्देशक ने नाजुक खूबसूरती वाली अभिनेत्री कीर्ति कुल्हारी को इतना खराब मर्दाना गेट-अप दिया है कि हंसी आती है. बेहतर होता किसी पुरुष एक्टर से यह रोल करा लेते.

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बतौर लेखक-निर्देशक रिभु दासगुप्ता ने दस साल पहले नसीरूद्दीन शाह के साथ माइकल नाम से पहली फिल्म बनाई थी. अमिताभ बच्चन को लेकर सुपरफ्लॉप सीरियल युद्ध के कुछ एपिसोड के वह डायरेक्टर थे. फिर उन्होंने अमिताभ के ही साथ एक कोरियाई फिल्म का रीमेक तीन (2016) के रूप में किया. 2019 में नेटफ्लिक्स पर आई शाहरुख खान की कंपनी रेडचिलीज की फ्लॉप सीरीज बार्ड ऑफ ब्लड का निर्देशन भी रिभु ने किया था. द गर्ल ऑन द ट्रेन में भी वह कुछ बेहतर नहीं कर सके.

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फिल्म कहीं नहीं बांधती और इसकी स्क्रिप्ट से ज्यादा ध्यान कैमरा पर दिया गया है. वकील मीरा बनी परिणीति से उसका कार्डियोलॉजिस्ट पति शेखर कपूर (अविनाश तिवारी) से तलाक ले लेता है क्योंकि मीरा एक हादसे में अपने गर्भस्थ शिशु की मौत के बाद खूब शराब पीने लगी है. पीकर उसे पता नहीं चलता कि क्या-क्या कांड किए. वह प्रेक्टिस भी छोड़ देती है और पूरा दिन ट्रेन में यहां से वहां घूमती है. ट्रेन से मीरा को उसका पुराना घर नजर आता है और वहां खुशनुमा नुसरत (अदिति राव हैदरी) दिखती है.

The Girl on the Train Review: बॉलीवुड फॉर्मूले बाजी ने कम किया थ्रिल, सफलता के लिए परिणीति का इंतजार बढ़ा

मीरा को उसे देख कर अपने पुराने हसीन दिन याद आते हैं. हादसे के बाद मीरा एंट्रोग्रेड एमनीसिया नाम की बीमारी का शिकार हो गई है, जिसमें किसी बात/घटना की याद थोड़ी देर के लिए ही रहती है. तभी एक दिन वह पाती है कि पुलिस उसके पीछे है क्योंकि नुसरत की हत्या हो गई है. नुसरत प्रेग्नेंट थी. सीसीटीवी में मीरा उसके दरवाजे पर गुस्से में फनफनाती नजर आ रही है और नुसरत के घर के पीछे जंगल में मिले खून के कतरे और लाश के पास मिले सुबूत उसके वहां होने के गवाह हैं. मगर मीरा को कुछ याद नहीं. क्या है सच्चाई, द गर्ल ऑन द ट्रेन इसी रहस्य को हमारे सामने खोलती है.

The Girl on the Train Review: बॉलीवुड फॉर्मूले बाजी ने कम किया थ्रिल, सफलता के लिए परिणीति का इंतजार बढ़ा

द गर्ल ऑन द ट्रेन एक सफल उपन्यास और हॉलीवुड फिल्म है, परंतु रिभु का रीमेक प्रभावित नहीं करता. इसकी वजह एक तो भारतीय किरदारों को विदेशी जमीन पर देखने का जमाना शाहरुख खान के फीके पड़ चुके स्टारडम के साथ गुजर चुका है. फिल्म में घरेलू हिंसा, शराब और ड्रग्स की समस्या इतनी चमक-दमक के साथ है कि उसका असर ही कहानी में पैदा नहीं होता. फिल्म के संवाद अजीबोगरीब हैं. जैसे प्रेग्नेंट मीरा अपने पति से कहती है, ‘मुझे बच्चा नहीं बच्चन चाहिए.’ मीरा बच्चन की फैन है. एक जगह तलाकशुदा मीरा की सहेली उससे कहती है, ‘तलाक इस बात का संकेत है कि स्त्री मजबूत है और पति की फालतू बातों को बर्दाश्त नहीं करेगी.’ तलाक की सिर्फ यही वजह नहीं होती. संवाद से साफ है कि निर्देशक ने तलाक को सतही ढंग से देखा है. फिल्म का थ्रिल बॉलीवुड की फार्मूलेबाजी, खराब स्क्रिप्ट, हल्के संवादों और लंबे-लंबे दृश्यों में नष्ट हो जाता है.

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द गर्ल ऑन द ट्रेन के साथ फिल्म इंडस्ट्री में दस साल पूरे करने पर भी परिणीति के पास ऐसा कोई किरदार नहीं, जो उनकी क्षमता के लिए याद किया जाए. इस फिल्म में वह लगभग पूरे समय काजल-घिरी आंखों और शराबी चेहरे के साथ नजर आती हैं. चीजों को याद न रख पाने की समस्या, उलझन या तकलीफ उनके चेहरे पर नहीं ठहरती. अदिति राव हैदरी का करियर दिल्ली 6 (2009) से दासदेव (2018) तक कभी उठा नहीं और आज वह फिल्मों की सेकेंड-लीड नायिका बनकर रह गई हैं. यहां भी उनके हिस्से कुछ खास करने को नहीं था. अविनाश तिवारी जरूर प्रभावित करते हैं परंतु हिंदी की सितारा फिल्मों में उन जैसे एक्टरों के लिए जगह नहीं है. जब नायिका प्रधान फिल्मों में परिणीति जैसी कथित ए-ग्रेड अभिनेत्रियों के लिए तथाकथित ए-ग्रेड स्टार नहीं मिलते तो अविनाश जैसे नायकों को लिया जाता है.

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