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मध्य प्रदेश: विधानसभा चुनाव के नतीजे क्या इस बार बाबाओं के पंडाल से तय होंगे, जानिए कैसे फिट किए जा रहे हैं चुनावी समीकरण?

मध्यप्रदेश चुनाव 2023 से पहले नेता ज्यादा से ज्यादा प्रवचन और कथाओं का आयोजन कर हिंदू वोटरों को साधने में लगे हैं. कमलनाथ ने छिंदवाड़ा में धीरेंद्र शास्त्री की आरती उतारते नजर आए हैं.

चुनावी राज्य मध्य प्रदेश में बाबाओं और राजनेता के बीच रिश्ता गहरा होता जा रहा है. विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान अभी नहीं हुआ, लेकिन नेता बाबाओं की चौखट पर सिर झुकाते नजर आ रहे हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में कंप्यूटर बाबा का खासा दबदबा देखा गया था, वहीं इस बार अभी से ही कई बाबा चर्चाओं में हैं. बागेश्वर धाम यानी पंडित धीरेंद्र शास्त्री, प्रदीप मिश्रा, पंडोखर सरकार, जया किशोरी, रावतपुरा सरकार संत रविशंकर और कमल किशोर नागर के पंडाल हर नेता अपने चुनावी क्षेत्र में सजा रहा है. पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने अपने गढ़ छिंदवाड़ा में हिंदू राष्ट्र समर्थक पंडित धीरेंद्र शास्त्री की कथा का आयोजन करवाया. कमलनाथ ने इस कार्यक्रम में कई धर्मगुरुओं को तो बुलाया ही था साथ ही धीरेंद्र शास्त्री की आरती भी उतारी. 

चुनाव से पहले बाबाओं को साध रहे बीजेपी और कांग्रेस के नेता
मध्य प्रदेश में इस साल के आखिरी में विधानसभा चुनाव होने हैं. इससे पहले दोनों ही पार्टियों के नेता प्रचार-प्रसार में लग गए हैं. राघौगढ़ में भी शास्त्री की कथा का आयोजन किया गया जहां पूर्व मंत्री जयवर्धन सिंह बागेश्वर बाबा की मेजबानी करते नजर आए. सूत्रों के अनुसार जयवर्धन सिंह छतरपुर से अपनी पार्टी के विधायक आलोक चतुर्वेदी के जरिए से धीरेंद्र शास्त्री के साथ अपने रिश्ते बनाए रखते हैं. कहा ये भी जाता है शास्त्री को धर्मगुरु के रूप में यहां तक पहुंचाने के पीछे भी उन्हीं का हाथ है. 

वहीं बीजेपी नेता भी बाबाओं को साधने में पीछे नहीं हैं. हाल ही में बीजेपी से मंत्री विश्वास सारंग ने अपने विधानसभा क्षेत्र नरेला में पंडित प्रदीप मिश्रा (रुद्राक्ष वाले बाबा) की कथा का आयोजन करवाया था. उन्होंने पूरे नरेला क्षेत्र में प्रदीप मिश्रा के साथ भव्य शोभा यात्रा भी निकाली थी. वहीं पूर्व सीएम कमलनाथ की देखरेख में प्रदीप मिश्रा का भी कार्यक्रम छिंदवाड़ा में हो रहा है. इस आयोजन के दौरान बड़े पैमाने पर मुफ्त में रुद्राक्ष वितरण की भी योजना है.

कथा वाचक जया किशोरी भी उत्तर भारत के राज्यों में खासी लोकप्रिय हैं. उन्हें बड़ी संख्या में युवा फॉलो करते हैं. इसे देखते हुए बीजेपी और कांग्रेस के नेता उन्हें भी कार्यक्रमों में आमंत्रित कर रहे हैं. हाल ही में उन्होंने भोपाल में बीजेपी के विकास विरानी और इंदौर के पास महू में कांग्रेस के जीतू ठाकुर के द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में दिखाई दी थीं. इससे पहले जया किशोरी कांग्रेस नेता मितेंद्र दर्शन सिंह के लिए ग्वालियर में हुए कार्यक्रम में भी भाग ले चुकी हैं. हालांकि जया किशोरी विवादास्पद बयान नहीं देती हैं, लेकिन भीड़ खींचने वाले लोगों में उनका प्रभाव ज्यादा माना जाता है.

वोट दिलाने में बाबाओं का कितना रोल?
बीजेपी और कांग्रेस के नेता बाबाओं को साधकर वोट की फसल काटने की चक्कर में हैं, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है?  इस सवाल का जवाब जानने के लिए एबीपी ने  मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार राजेश पांडेय से बातचीत की तो उन्होंने कहा, 'मध्यप्रदेश में बाबा वोट दिला पाते हैं या नहीं ये तो नहीं पता, लेकिन वो बड़े लेवल पर माहौल जरूर बना देते हैं. ऐसा नहीं है कि बाबा ने किसी नेता को हराने की घोषणा कर दी तो भीड़ उनकी ही बात सुनती है. एक बार जब रावतपुरा सरकार ने गोविंद सिंह को चुनाव हराने की घोषणा कर दी थी, लेकिन फिर भी वो जीते थे.' 

वहीं एक मध्य प्रदेश के सीनियर पत्रकार राजेश पांडेय का कहना है कि राजनीति में धर्म की खास भूमिका रही है. जो बीजेपी की वजह से है. राम मंदिर शुरू से ही बीजेपी का मुख्य एजेंडा रहा है. उत्तरी राज्यों में धर्म की राजनीति का ज्यादा महत्व रहा है. जिसकी शुरुआत बीजेपी ने ही की है. जिसके चलते ज्यादातर साधु महात्मा इसी पार्टी के साथ ही रहे हैं.'

कांग्रेस क्यों बाबाओं की चौखट में जा रही है?
बीजेपी ने राम मंदिर आंदोलन के जरिए बड़े पैमाने पर हिंदू वोटरों को अपने पक्ष में किया था, लेकिन कांग्रेस का अब बाबाओं की चौखट पर जाना सभी को चौंका रहा है. इस पर राजेश पांडेय का कहना है कि बीजेपी और कांग्रेस समाज के अनुसार चलते हैं. कांग्रेस के नेता भी उसी धर्म को मानते हैं जिसे बीजेपी नेता मानते हैं. ऐसा नहीं है कि सिर्फ अभी ही कांग्रेस बाबाओं से समर्थन मांग रही है.  80 के दशक में बाबा पवन दीवान हुआ करते थे जिन्हें कांग्रेस ने सांसद बनाया था. दिग्विजय सिंह भी अपने कार्यकाल में बाबाओं के पास खूब जाते थे.

 पांडेय का कहना है, 'कांग्रेस बाबाओं से दूर है, ऐसा दिल्ली में रहने वाले नेताओं के लिए कहा जा सकता है, लेकिन मध्यप्रदेश में जहां अल्पसंख्यकों की जनसंख्या 6 या 7 प्रतिशत है, पार्टियां बहुसंख्यकों को साधती हैं. राजनीति और धर्म हमेशा से साथ-साथ चले हैं'.

बातचीत में राजेश पांडेय ने कहा कि हिंदुओं को साधना बीजेपी का पेटेंट हो चुका है. इसलिए जवाब में कांग्रेस ने भी ऐसा करना शुरू कर दिया. कांग्रेस दिखाना चाहती हैं कि वो भी धार्मिक है. हालांकि, कांग्रेस पार्टी में ही बहुत से लोग इससे सहमत नहीं हैं. पूर्व राज्यपाल अजीत कुरैशी ने धर्म की राजनीति का विरोध किया है. कई और कांग्रेसी भी पार्टी के इस नीति से सहमत नही हैं.

धर्म की राजनीति जाति के प्रभाव को कम करती है?
जब धर्म और जाति की बात आती है तो राजनीति दोनों ही मामलों में अपने वोट साधने का काम करती है, लेकिन बाबाओं के वर्चस्व से धर्म की राजनीति पर असर पड़ता है या नहीं इस बारे में राजेश पांडेय कहते हैं, "धर्म की राजनीति जाति के प्रभाव को कम करती है. धर्म के जरिए पूरे समाज को साधा जा सकता है."

हालंकि राजेश पांडेय का ये भी कहना था कि धर्म गुरु, कथा वाचक या बाबा भी कई बार किसी खास जाति ही तवज्जो देते हैं. जैसे उमा भारती लोधी समाज से आती हैं और उन्हीं के जरिए राजनीति करती थीं. वहीं ग्वालियर के संत कृपाल सिंह ठाकुरों की राजनीति करते हैं. इसके अलावा अगर बागेश्वर बाबा की बात की जाए तो वो हिंदू बनाम मुस्लिम करते नजर आते हैं.

राज्य के कितने इलाकों पर बाबाओं का कितना असर?
वहीं बाबाओं के वर्चस्व वाले इलाकों के बारे में जब वरिष्ठ पत्रकारों से सवाल किया गया तो जवाब मिला कि बाबाओं का असर सभी जगह होता है वो किसी एक इलाके के लिए नहीं हैं. बता दें कथाओं का आयोजन करने में लाखों रुपये खर्च होते हैं. आयोजकों को टेंट, भंडारा (भोजन), और परिवहन और आवास के बिल का भुगतान करना पड़ता है. कुछ बाबा अपने प्रवचन के लिए पैसे लेते हैं, जबकि अन्य को दान से कोई आपत्ति नहीं होती है.

धीरेंद्र शास्त्री का दावा है कि वो अपने उपदेशों के लिए कोई शुल्क नहीं लेते हैं, लेकिन आयोजक कार्यक्रम का खर्च वहन करते हैं. हाल ही में एक कथा का आयोजन करने वाले एक राजनेता ने इंडिया टुडे को बताया, ''किसी कार्यक्रम को आयोजित करने की कुल लागत 1 करोड़ रुपये से 2 करोड़ रुपये के बीच होती है, ये उस अवधि पर निर्भर करता है जिसके लिए ये आयोजित किया गया है.'

हालांकि चुनाव परिणामों पर धर्म की राजनीति और बाबाओं का वर्चस्व अटकलों का विषय बना हुआ है. मध्य प्रदेश में आस्था और राजनीति के बीच चुनावी समीकरणों को फिट करने में धर्म गुरु मुख्य भूमिका निभाते नजर आ रहे हैं.

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