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नेपाल के 'प्रचंड' कहीं भारत को तो नहीं दिखाएंगे 'चीनी प्रचंड' का जलवा?

हमारा पड़ोसी नेपाल इकलौता हिन्दू राष्ट्र है और वहां आज पुष्प कमल 'प्रचंड' की तीसरी बार पीएम पद के पर ताजपोशी हो रही है. दुनिया जानती है कि नेपाल के शासन पर कब्ज़ा करने से पहले वे माओवादियों के संगठन के सबसे बड़े गुरिल्ला रहे हैं. जाहिर है कि प्रचंड की इस तीसरी ताजपोशी पर भारत अपनी प्रतिक्रिया में कोई नाराजगी तो जताएगा नहीं. बल्कि वो अब ये देखेगा कि तमाम संसाधन जुटाने के बावजूद वो चीन की गोद में बैठ रहा है या फिर भारत से बराबर की दोस्ती का हाथ मिलाने के लिए तैयार है.

हम नहीं जानते कि मोदी सरकार नेपाल के इस माओवादी नेता के साथ आगे और कैसा रिश्ता रखेगी. लेकिन दुनिया इसे बेहद गौर से देख रही है कि नेपाल का झुकाव चीन की तरफ ज्यादा रहेगा या भारत की तरफ. शायद इसलिए कि भारत भी प्रचंड की पहली प्रतिक्रिया के इंतज़ार में है. वैसे भी कोई राष्ट्र प्रमुख अपनी ताजपोशी होने के बाद ही तय करता है कि उसे अपने पड़ोसी देशों के साथ कैसा गर्मजोशी वाला रिश्ता रखना है. लिहाजा, देखना ये है कि प्रचंड उस जिनपिंग की गोद में बैठने से पहले ये सोचेंगे कि क्या पीएम मोदी से हाथ मिलाने में ही नेपाल की भलाई है?

दरसअल, कोरोना के वैश्विक खतरों के बीच हम ये भूल जाते हैं कि हमारे आसपास के मुल्कों में क्या हो रहा है. जिसे हम ड्रैगन कहते हैं वहीं चीन इस ताक में रहता है कि भारत की जमीन को कैसे हथियाया जाए. चीन में फिलहाल कोरोना से तबाही मची हुई है लेकिन उसने अपनी सेनाओं को ऐसे मोर्चे पर लगा रखा है कि जितनी ज्यादा जमीन पर कब्ज़ा हो जाए वो उसके सैनिको के लिए बहुत बड़ा बोनस ही होगा. अब सवाल ये है कि नेपाल के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने वाले पुराने माओवादी नेता प्रचंड हमारे पीएम मोदी के साथ रिश्तों की उसी पुरानी गर्माहट को बरकरार रखेंगे या फिर चीन से मिलने वाले अरबों रुपये के कर्ज के बोझ तले दबकर उसकी हर नाजायज़ बात पर हां में ही हां मिलाते रहेंगे?

ये सवाल बेहद अहम है और ऐसा कभी हो नहीं सकता कि सरकार में बैठे हमारे विदेश नीति के जानकारों ने इस तरफ कुछ ध्यान ही न दिया हो. जो बात मेरे दिमाग में आ रही है वो विदेश सचिव से लेकर देश के विदेश मंत्री का ओहदा संभालने वाले एस. जयशंकर के दिमाग में नहीं आयेगी ऐसा क्या मुमकिन है? अगर आप मानते हैं कि नहीं तो फिर वह इस ओहदे पर बैठने के हकदार भी नहीं हैं. इसलिये कि मलाई में लिपटी हुई फर्राटेदार अंग्रेजी बोल देने भर से दो देशों के बीच पनपी दूरी को आप खत्म नहीं कर सकते. इसलिए दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे कि सारे छोटे देशों से उनकी औकात को देखकर ही बात की जाए लेकिन उनकी सभ्यता-संस्कृति का भी पूरा ख्याल रखा जाए. उनका मकसद ये था कि किसी भी छोटे देश को डराना-धमकाना नहीं है बल्कि ये बताना है कि भारत अब कितना मजबूत बन चुका है इसलिये तय आप ही कीजिये कि भारत के साथ आना है या फिर किसी और की गोद में बैठना है.

अब जरा जान लीजिए कि कौन हैं पुष्प कमल दहल 'प्रचंड'? नेपाल में एक दशक तक तक हिन्दू राजशाही का विरोध करने वाले प्रचंड 11 दिसंबर 1954 को पोखरा के निकट कास्की जिले के धिकुरपोखरी में जन्मे प्रचंड ने करीब 13 साल तक बैकग्राउंड में काम किया. वह उस वक्त मुख्यधारा की राजनीति में शामिल हो गए जब सीपीएन-माओवादी ने एक दशक लंबे सशस्त्र विद्रोह का रास्ता त्यागकर राजनीति का मार्ग अपनाया. वे नेपाल के उन चुनिंदा नेताओं में से एक हैं जो लगातार बीते 32 सालों से पार्टी का शीर्ष पद संभाल रहे हैं. 

उन्होंने 1996 से 2006 तक एक दशक लंबे सशस्त्र संघर्ष का नेतृत्व किया था जो अंततः नवंबर 2006 में व्यापक शांति समझौते पर हस्ताक्षर के साथ समाप्त हुआ. इससे पहले ओली के आवास बालकोट पर आयोजित बैठक में पूर्व प्रधानमंत्री ओली के अलावा प्रचंड और अन्य छोटे दलों के नेताओं ने प्रचंड के नेतृत्व में सरकार बनाने पर सहमति जताई. प्रचंड और ओली के बीच बारी-बारी से (रोटेशन के आधार पर) सरकार का नेतृत्व करने के लिए सहमति बनी है और प्रचंड को पहले प्रधानमंत्री बनाने पर ओली ने अपनी रजामंदी जतायी. लेकिन प्रचंड की सियासी जिंदगी का एक पहलू और भी है जिसके कारण नेपाल में उनकी जबरदस्त आलोचना होती रहती है. वो ये है कि उनकी अगुवाई मे हुए संघर्ष में कई निर्दोष लोग मारे गए, कई सारे गायब हो गए और बहुत सारे विस्थापित भी हो गए. लिहाजा, बड़ा सवाल ये है कि नेपाल के प्रचंड चीन के साथ दोस्ती निभाते हुए भारत में अप प्रचंड निगाहें तो नहीं दिखाएंगे?

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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