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21 हजार किलोमीटर की यात्रा पर निकले पत्रकार ने लिखा- चलना दुनिया में खुद को खोजने की प्रक्रिया है

करीब सात साल पहले नेशनल ज्योग्राफिक के पत्रकार पॉल सालोपेक ने चलना शुरू किया था.

आज से करीब सात साल पहले नेशनल ज्योग्राफिक के पत्रकार पॉल सालोपेक ने चलना शुरू किया था. ये चलना यूं ही नहीं था. वो करीब 21 हजार किलोमीटर की यात्रा पर निकले थे दस साल की यात्रा पर. अफ्रीका के इथियोपिया में स्थित हेरतो बुअरी इलाके से जहां मनुष्य के सबसे पुराने अवशेष मिले थे. 2013 में उन्होंने चलना शुरु किया पैदल और उन्हें पैदल चलते हुए दक्षिण अमेरिका के आखिरी बिंदु तक पहुंचना है जहां तक मानव पहुंचा था. ये मानव के पूरी दुनिया में फैलने की कहानी है पैदल पैदल.

इस समय पॉल सालोपेक बांग्लादेश और भारत से होकर गुजर रहे हैं और उनकी यात्रा 2023 में खत्म होगी. पॉल लिखते हैं- चलना आगे बढ़ कर गिरना है. हर कदम जो हम पूरी शिद्दत से उठाते हैं वो हमें भहरा कर गिरने से रोकता है, एक आपदा पर लगाम कसता है और इस तरह चलना भरोसे का कृत्य बन जाता है. चलने के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है. भारत के जाने माने बुद्धिजीवी शिव विश्वनाथन ने कुछ साल पहले वाकिंग की तारीफ करते हुए लिखा था कि चलना लोकतंत्र का महानतम कृत्य है ये सबको एक जमीन पर ले आता है क्योंकि चलना वोट देने से भी पुरातन है.

चलना दुनिया में खुद को खोजने की प्रक्रिया है. क्या जो मजदूर चल रहे हैं वो खुद की जगह तलाश पा रहे हैं दुनिया में. क्या उनका चलना सबको एक धरातल पर ला पा रहा है. लेकिन शायद ये चलना नहीं था. ये बात होगी टहलने के बारे में जो खाए पिए लोग सुबह सुबह करते हैं. मॉर्निंग वॉक यू नो. हालांकि मैं इन सवालों में पड़ना नहीं चाहता क्योंकि मेरे लिए चलना अब तक नितांत निजी कृत्य था. अब ये सार्वजनिक कृत्य है.

मशहूर दार्शनिक नीत्शे हर दिन वॉक करते थे. उनकी वॉक को चलना कहा जाए या टहलना पता नहीं लेकिन वो चलते हुए एक नोटपैड रखते थे जिसमें नए आइडिया आते तो वो नोट करते जाते. इस एकाकी चलने का जिक्र कई दार्शनिक करते रहे हैं लेकिन सामूहिक चलने के बारे में क्या कहा जाए. सामूहिक चलने के उद्देश्यों के बारे में क्या कहा जाए.

न्गूगी वा थियोंगी की पुस्तक पेटल्स ऑफ ब्लड गांवों से गरीब लोगों का जत्था पैदल चलता है अपनी कुछ मांगें सरकार के सामने रखने के लिए. कई दिनों के बाद जब वो जत्था पहुंचता है तो नौकरीशाही के चंगुल में फंस कर नष्ट हो जाता है. कोई मनुष्य चलना क्यों शुरू करता है. किन वजहों से वो चलने लगता है. कभी गांधी के पीछे नमक तोड़ने. कभी बुद्ध के पीछे ज्ञान प्राप्त करने और कुछ नहीं तो हॉलीवुड की फिल्म फॉरेस्ट गंप में फॉरेस्ट गंप के पीछे बिना किसी उद्देश्य के. यू नो वॉकिंग इज हैप्पनिंग. इन सब ख्यालों के बीच समझ में आता है कि कोई मनुष्य यूं ही चलना शुरू नहीं करता. मानव इतिहास में जितनी बार भी लोग चले. वो चले अच्छे भविष्य के लिए.

कुछ नहीं तो जान बचाने के लिए. अफ्रीका में जब आदिम लोग चले होंगे यूरोप की तरफ तो इसलिए नहीं कि वो मरना चाहते थे. वो चाहते थे नई जमीनें देखना. नए फल चखना. नए जानवर देखना. एक जिजीविषा होगी जीने की जो उन्हें अफ्रीका से दुनिया के तमाम देशों में ले गई.चलने का ये सिलसिला रूका नहीं. बुद्ध भी चले ज्ञान के लिए. महल छोड़कर जंगलों जंगलों भटकते रहे. ज्ञान मिला रूक गए. हज़ारों लाखों लोग युद्ध करने भी चले. चंगेज खान चीन से वेनिस तक पहुंच गया पैदल सेना, घोड़े पर सेना लेकर. कहने का मतलब कि लोग चले कुछ नया करने. कुछ जीतने. जीने के लिए बेहतरी के लिए.

सीरिया से इराक से बांग्लादेश से भी लोग पैदल चल कर गए दूसरे देशों में. भारत पाकिस्तान विभाजन हुआ तो लोग पलायन कर गए दूसरे देशों में. आखिर क्यों. एक अच्छे भविष्य के लिए. रास्ते में मर खप गए. मार दिए गए. वो दूसरा किस्सा था लेकिन मन में ये तो था कि जहां जा रहे हैं वहां कुछ बेहतर होगा.

मेक्सिको के रास्ते हजारों लातिन अमेरिकी कुछ दूर ट्रेन पर लदकर और बाकी हजारों मील पैदल चलकर अमेरिका में घुसते हैं इसलिए थोड़े कि वो मरना चाहते हैं बल्कि इसलिए कि उन्हें यहां दो रोटी मिलेगी. रोजगार मिलेगा और किस्मत अच्छी रहेगी तो जीवन सुंदर होगा. ये दुनिया के इतिहास में संभवत पहली बार हो रहा है जब लोग अपने घरों को लौट रहे हैं सिर्फ और सिर्फ चैन से मरने के लिए. उन्हें पता है कि इस यात्रा के बाद जहां वो पहुंचेंगे वहां उनके पास कुछ बेहतर नहीं है करने को. बेहतर होता तो वो अपने घरों को छोडकर शहरों को नहीं जाते बारह बारह घंटे काम करने के लिए.

उन्हें पता है कि लौट कर अपने घरों में उन्हें जो एक चीज़ मिलेगी वो ये कि वो शायद भूखे न मरें या फिर मरें तो कोई उनकी लाश फेंक नहीं देगा. ये पहली यात्रा है पांव पांव जो किसी बेहतर भविष्य की तरफ नहीं है. ये यात्रा है मृत्यु की ओर अपनी जमीन पर मरने की आदिम इच्छा की इस यात्रा को उसी तरह देखा जाना चाहिए. ये मृत्यु की यात्रा है जहां मजदूर अपने शव खुद ढोकर चल रहे हैं सिर्फ इसलिए कि वो अपनी ज़मीन पर मर सकें.

कब हुई थी ऐसी कोई यात्रा मृत्यु की ओर. मुझे अपने जीवन में ऐसी कोई यात्रा याद नहीं आती और न इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण दिखता है जब एक देश.....हां वही....तथाकथित देश में बिना किसी युद्ध के बिना किसी प्रताड़ना के एक समुदाय (अगर गरीब को समुदाय मान लें तो) के लोग चलने लगे थे हजारों किलोमीटर एक ऐसे कुएं की ओर जहां से वो हर साल निकल जाते थे कि शहर जाकर बच जाएंगे थोड़ा बढ़ जाएंगे जीवन में. इस हताशा की यात्रा, मृत्यु की इस यात्रा को कैसे देखा जाए जहां बचाने वालों ने इन चलने वालों के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा हो. लोग सड़कों पर चल नहीं सकते क्योंकि पुलिस मारती है.

नहरों के किनारे किनारे पटरियों के किनारे चलने को मजबूर ये लोग कौन हैं. ये लोग रहे नहीं. ये लाशें हैं जो खुद को ढो रही हैं और साथ में ढो रही हैं उन लोगों की लाशों को भी जो अपने ड्राइंगरूम में बैठे कह रहे हैं - अरे ये मजदूर मूर्ख हैं क्या. जा क्यों रहे हैं. पटरी पर सो क्यों रहे हैं. मृत्यु की यात्रा सबको करनी है. अंत में चाहे हिंदू हों मुसलमान हों या फिर ईसाई या बौद्ध अंतिम यात्रा का अंत चार लोगों के कंधे पर पैदल ही होता है. चल कर ही होता है.

इस चलने को याद रखा जाना चाहिए. मुझे नहीं पता कि पॉल सालोपेक अपनी यात्रा में इस समय ठीक ठीक कहां हैं. नेशनल ज्योग्रैफिक के अनुसार वो पाकिस्तान और भारत से गुजर रहे हैं पैदल चलते हुए इस साल. मुझे नहीं पता वो लोगों के इस चलने को क्या कहेंगे.

(उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)
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