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ईवीएम पर उठ रहे सवाल से लग रहा चुनाव आयोग की साख पर प्रश्नचिह्न, नहीं है वीवीपैट से मिलान में कोई हर्ज

चुनाव में सभी ईवीएम के वोटों की गिनती की वीवीपैट से मिलान कराने वाली मांग पर हाल ही में एक अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई. जस्टिस बी आर गवई और संदीप मेहता की बेंच ने नोटिस जारी कर के चुनाव आयोग और केंद्र सरकार से जवाब मांगा है. इस मामले की अगली सुनवाई 17 मई को होगी. इसमें कहा गया है कि ईवीएम के सभी वोटों का वीवीपैट से मिलान किया जाए, ये भी कहा गया है कि जब भी इस मामले पर सवाल उठता है तो सिर्फ पांच ईवीएम का ही मिलान होता है. इसको भी संज्ञान में लिया जाए और सभी मतों का मिलान हो. 

लंबे समय से उठ रहे सवाल

लोकतंत्र में इस प्रकार के सवाल उठने जरूरी होते हैं. सरकार या कोई व्यक्ति जो शीर्षस्थ पदों पर है, वे क्या कर रहे हैं, यह जानने का सभी को अधिकार है. लोकतंत्र में किसी को भी ये अधिकार नहीं है कि जो मन में आए वो मनमानी करे. लोकतंत्र में जानने का अधिकार बहुत व्यापक है. वर्ष 1950 में सुप्रीम कोर्ट में जब फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन पर विचार हो रहा था, और उस समय जो निर्णय दिए गए, उसमें कहा गया है कि हर किसी को हर कुछ कहने का अधिकार है, लेकिन शब्दों की मर्यादा होनी चाहिए. हर किसी को ये जानने का हक है कि सरकार उसके लिए क्या कर रही है, उसके लिए क्या कुछ बोला जा रहा है. इसमें सुप्रीम कोर्ट ने खुद कहा था कि जानने का जो हक हर किसी को है. क्योंकि लोगों के पास सूचना हो औऱ तब वो निर्णय ले सकें. तो, फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन का जो भी प्रोविजन है उसके बारे में जानें और समझें, उसके बाद वो फैसला ले सकें. इससे समाज में एक तरह से पारदर्शिता रहेगी. पारदर्शिता की जरूरत इसलिए होती है क्योंकि समाज में अगर कोई बात सबको पता हो तो उससे समाज में लोगों पर एक दूसरे के प्रति संदेह नहीं होता है.

इलेक्ट्रॉनिक मशीन में जो हम वोट डाल रहे हैं इसका कोई अता-पता नहीं है. मशीन के अंदर क्या हो रहा है, ये आम लोग नहीं जान पाते. इसलिए, वीवीपैट की जरूरत पड़ी, कि हम जो वोट डाल रहे हैं वो किसको जा रहा है. उसके वेरिफाई करने के लिए ये मशीन लाई  गई और ये अचानक नहीं आया इसके लिए काफी समय तक मुकदमे चले. सबसे पहले एक केंद्र पर वीवीपैट का प्रयोग हुआ. उसके बाद एक विधानसभा में पांच जगहों पर लगाई गई. उसके बाद ये सवाल उठाने शुरू हुआ कि सिर्फ पांच ही मतदान केंद्र पर ऐसा क्यों हो रहा है? वीवीपैट का पर्चा मशीन के अंदर ही क्यों रहेगा और कुछ सेकेंड में तो मतदाता ये जान भी नहीं पाता कि वो जिसको वोट किया है उसे मिला है या नहीं. वोटर के मन में ये हमेशा से संदेह भी रहा है. ये सवाल किसी एक से नही बल्कि पूरr जनतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए याचिका आया है.

इलेक्ट्राॅनिक उपकरणों में दखल

चुनाव आयोग का कहना है कि ईवीएम में किसी प्रकार से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है, और इसी विश्वास के दम पर आज तक चुनाव की प्रक्रिया पूरी होती आई है. हालांकि, हम आज के समय में ये देख चुके है कि इस मशीनी युग में कई साफ्टवेयर आ चुके हैं जिसके माध्यम से कई चीजों में डायरेक्ट बदलाव किए जाते हैं. इंटरवेंशन के माध्यम से आज के समय में किसी भी इलेक्ट्राॅनिक डिवाइस में बदलाव किए जा सकते हैं. इसको एक उदाहरण के तौर पर ऐसे भी देखा जा सकता है कि हवाई जहाज में बैठने के बाद अपील किया जाता है कि लोग अपने फोन बंद कर दें, क्योंकि हो सकता है कि फोन के सिग्नल की वजह से जहाज के सिग्नल में ट्रैफिक आ जाए. जब चीजें इतनी बारीकी तक हो सकती है तो ये कहना कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर दखल नहीं दी जा सकती, ये पूरी तरह से गलत होगा.

विश्व के कई देशों में ईवीएम नहीं

आमतौर पर पूरे विश्व में काफी कम देश है जहां पर इलेक्ट्रॉनिक मशीन के माध्यम से वोटिंग की प्रक्रिया पूरी होती है. इसके साथ वहां भी ये सवाल उठाए जाते रहे हैं. अमेरिका में इतने चुनाव हुए हैं, लेकिन वहां पर इलेक्ट्रॉनिक मशीन का उपयोग नहीं होता है. अमेरिका विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र वाला देश है. यूरोप के ज्यादातर देश में भी इलेक्ट्रॉनिक मशीनों का उपयोग नहीं होते हैं. किसी देश को भी इलेक्ट्रॉनिक मशीन पर भरोसा नहीं है कि उसमें दखल नहीं दी जा सकती है. चुनाव के प्रक्रिया में किसी तरह के विश्वास को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता. जब भारत में ईवीएम आया था तो उस समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी और कांग्रेस दोनों ने इस प्रणाली का विरोध किया था. इसका कई बार विरोध हुआ है इस मामले को लेकर कई बार पार्टियां कोर्ट गई. आज भी कोर्ट में ये मामला फिर से आया है. इसमें सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा है कि पांच लाख करोड़ रुपए खर्च कर के 26 लाख ईवीएम लाए और उसमें से कुछ मशीनों को वीवीपैट लगाने की बात कह रहे हैं, जबकि ऐसा सारी मशीनों पर क्यों नहीं हो सकता है?

संदेह के घेरे में है ईवीएम

अगर कोई बैलेट से वोट करता है तो उसमें वो देख सकता है कि उसने कहां वोट दिया है, जबकि ईवीएम में ऐसा नहीं है. ईवीएम सिर्फ काउंटर है. वो सही तरीके से वो काम कर रहा है कि नहीं इसका ऑडिट तो वीवीपैट के मशीन से ही किया जा सकता है. अगर सभी जगहों पर वीवीपैट नहीं लगता है तो कैसे ऑडिट होगा. इससे वोटिंग की प्रक्रिया संदेह के घेरे में आ जाती है . 2019 के लोकसभा चुनाव के रिजल्ट में यही देखने को मिला कि पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम और मेरठ में पहले किसी दूसरी पार्टी के नेता को, उसके कुछ देर बाद दूसरे पार्टी के नेता को जीत बताया गया. तो इन सब चीजों को लेकर ईवीएम संदेह के घेरे में आती है. लोकतंत्र का सिर्फ चलना महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि लोकतंत्र में विश्वास ही सबसे बड़ी जीत है. विश्वास ही लोकतंत्र चलाता है. ऐसे में आयोग को वीवीपैट से मतगणना करने में क्यों दिक्कत हो रही है, हालांकि थोड़ा समय लगेगा लेकिन एक विश्वास लोकतंत्र के तौर पर जनता और राजनीतिक पार्टियों को मिल जाएगा. चुनाव आयोग वीवीपैट से गिनती को लेकर कह रहा है कि इसमें समय और पैसा लगेगा. लेकिन देखा जाए तो पूरे देश में लोकसभा का चुनाव जो दस दिनों के अंदर हो सकता है उसको इस बार आयोग ने करीब तीन महीना तक के लिए खींच दिया. इससे गर्मी में जनता के साथ सभी को परेशानी होगी. इससे प्रशासन, कैंडिडेट, और पॉलिटिक्ल पार्टियों का पैसा ज्यादा खर्च होगा. इस पर आयोग कुछ नहीं बोल रहा है सिर्फ वह वीवीपैट की काउंटिग कराने में पैसे ज्यादा लगने की बात दोहरा रहा हैं. ऐसे में खुद चुनाव आयोग शक के घेरे में आता है और लोकतंत्र में ऐसा बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए.

बैलेट बॉक्स और ईवीएम

लोकतंत्र में विश्वास के लिए सारे मतदान केंद्रों पर वीवीपैट लगाए जाए और पर्चा मशीन में ना गिरकर मतदाता के हाथ में आये. उस पर्चा का मतदाता संतुष्ट होने के बाद उसे बैलेट बॉक्स में डालें तभी तो हम साबित कर पाएंगें कि चुनाव के पर्चा और मशीनें सुरक्षित है कि नहीं . ये सारी चीजें इसलिए करना जरूरी है कि लोकतंत्र में जो अविश्वास ईवीएम के प्रति और अन्य चीजों के प्रति उठ रह है वो ना हों. अगर चुनाव आयोग कहे कि उनके पास वीवीपैट तैयार नहीं है तो इसका खामियाजा आयोग के आयुक्त को भुगतना चाहिए. आयोग ने दूरदर्शी सोच के साथ क्यों वीवीपैट को तैयार कर के नहीं रखा. इंडिया गठबंधन, राहुल गांधी और अन्य विपक्षी पार्टियों का कहीं न कहीं सवाल ईवीएम के आसपास ही रहा है तो चुनाव आयोग को इस पर खरा उतरना होगा. चुनाव आयोग के लिए ये कोई बड़ा मुश्किल कदम नहीं है. किसी भी उपाय से ये काम होना चाहिए और पर्चा वोटर के हाथ में दीजिए ताकि बाद में वो बैलेट बॉक्स में डाल सके ताकि कोई बाद में सवाल ना उठा सके.

चुनाव आयोग पर भी संदेह

लोकसभा चुनाव के पहले चरण के वोटिंग में अभी करीब 15 दिन है. तो अभी ज्यादा देर नहीं हुई है. चुनाव कराने के लिए पांच लाख करोड़ रूपये खर्च कर सकते हैं तो एक छोटे से भाग की व्यवस्था क्यों नहीं कर सकते? चुनाव आयोग को खुद पर से शक दूर करने के लिए सभी मतदान केंद्र पर वीवीपैट लगवाना चाहिए और दोनों का काउंटिंग करवाना चाहिए. इतने बड़े लोकतंत्र वाले देश में 26 लाख ईवीएम के साथ 26 लाख प्रिंटर यानी की वीवीपैट क्यों नहीं लगवा सकते. अगर ऐसा नहीं करता है तो चुनाव आयोग खुद शक के घेरे में आ जा रहा है. देखा जाए तो चुनाव आयोग संवैधानिक-स्वायत्त पद है, और ये सरकार से पूरी तरह से स्वतंत्र होता है. इस समय पूरे देश का प्रशासन चुनाव आयोग के हाथ में है. ऐसे में चुनाव आयोग को सतर्कता से फैसला करना चाहिए.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]  

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