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हिंदोस्तां की जंग-ए-आजादी में कला के संवरते-निखरते रंगों संग फना हो जाने वाले वतन परस्तों की कहानी…

The Art Of The Freedom Struggle In India: ‘आजादी’ इस लफ्ज़ से ही पुरसुकूं एहसास टपकता है. ऐसे में जब देश को आजादी का जश्न मनाए हुए चंद दिन ही बीते हो तो फिर आजादी से पहले औपनिवेशिक शासन की गुलामी का वो दौर बरबस ही जेहन में ताजा हो जाता है. इस दौर के साथ ही याद आते हैं वो लोग जिन्होंने आजादी की इस इमारत को खड़ा करने में अहम वास्तुकारों की भूमिका अदा की है.

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भले ही आजादी को हकीकत में बदलने वाले नामों में आमतौर पर "राष्ट्रपिता", महात्मा महात्मा गांधी का नाम पाकीजगी से लिया जाए, लेकिन आजादी की इस इमारत को खड़ा करने में कई अन्य महान वास्तुकारों की मौजूदगी से किनारा नहीं किया जा सकता है. कुछ वक्त से आजादी के लिए अहम योगदान देने वालों नामों में महात्मा गांधी का नाम हाशिए पर ले जाया जा रहा है. वास्तव में मौजूदा सरकार के सत्ता में आने से बहुत पहले से ही हमारे वक्त का सिनेमा इस बारे में बहुत कुछ साफ कर देता है. सिनेमा के इसी परिदृश्य के तले जंग-ए आजादी से लेकर मौजूदा वक्त में आजादी के परवानों को देखने के नजरिए में आए इस बदलाव के सफर में हम आपको ले चलते हैं. 

'आरआरआर' जगं-ए आजादी की नई रिवायत

"आरआरआर"(RRR) की असाधारण कामयाबी बहुत कुछ कह रही है. आरआरआर से मतलब साल 2022 में एसएस राजामौली निर्देशित भारतीय तेलुगु भाषा की महाकाव्य एक्शन ड्रामा फिल्म से है. इसमें दो वास्तविक जीवन के भारतीय क्रांतिकारियों, अल्लूरी सीताराम राजू (चरण) और कोमाराम भीम (राम राव) के ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़ाई के बारे में बताया गया है.

फिल्म की कहानी 1920 के दौर से शुरू होती है.ये फिल्म हमें हमारे दौर की फिल्म संस्कृति, कई भारतीयों की राजनीतिक संवेदनशीलता और भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए गढ़े जा रहे एक नई रिवायत या नए कथानक के बारे में बताती है.असाधारण काल्पनिक दृश्यों से सजी यह फिल्म अधिकांशतः "असली योद्धाओं" के होने का जश्न मनाती है,जिन्होंने भारत को औपनिवेशिक शासन के गुलामी से आजाद कराया.

यह आश्चर्य की बात है कि आजादी की जंग के नायकों की इस आकाशगंगा में न तो महात्मा गांधी और न ही जवाहरलाल नेहरू नजर आते हैं. जाहिर है कि ये फिल्म खास तौर से आखिर में सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह और सरदार पटेल की विरासतों का आह्वान करती है.मतलब साफ है कि फिल्म स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी नायकों की विचारधारा को आगे बढ़ाती प्रतीत होती है.

इस फिल्म के पटकथा लेखक विजयेंद्र प्रसाद ने ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स इंस्टाग्राम, ट्विटर और व्हाट्सएप इस बात को अधिकृत तौर पर स्वीकारा भी है.जब इन ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर पांच साल पहले उनसे कुछ दोस्तों ने सवाल किया था कि क्या महात्मा गांधी और नेहरू ने देश के लिए कुछ किया है ? तब  विजयेंद्र प्रसाद ने जवाब दिया कि उन्होंने उस रूढ़िवादी ऐतिहासिक विचारधारा को खारिज करना शुरू कर दिया जो भारतीय स्कूलों में बचपन से पढ़ाई  जा रही थी.

स्वाभाविक है कि जब आप व्हाट्सएप और ट्विटर से अपना इतिहास समझते हैं, तो आपको "आरआरआर" मिलता है. निश्चित तौर यह इस सवाल से परे है कि फिल्मों के निर्माता भारत की आदिवासी संस्कृति या जाति और उसके राजनीतिक इतिहास को किस तरह से लेते और समझते हैं.

ऐसे समझे जंग ए आजादी को कला के नए नजरिए से

स्वतंत्रता संग्राम के दौर में और उसके तुंरत बाद में क्या हुआ था उसे समझने का एक तरीका है कि उस वक्त की कला की तरफ नजर दौड़ाई जाए. जाना जाए कि उस दौर के कलाकारों ने अपने सामने आने वाली घटनाओं पर कैसे प्रतिक्रिया दी. आजादी की जंग के दौर की कला के अवलोकन से जो साफ होता है वह यह है कि कलाकारों और पोस्टर प्रिंट निर्माताओं ने महात्मा गांधी को आजादी पाने के लिए छटपटा रहे भारतीयों की आकांक्षाओं का सर्वोच्च अवतार बनाकर पेश किया.

इन कलाकारों ने बेहिचक महात्मा गांधी को राजनीतिक परिदृश्य के पीठासीन देवता में तब्दील कर दिया. अब तक सबसे बड़ी संख्या में राष्ट्रवादी पोस्टर प्रिंट यानी तस्वीरों में महात्मा गांधी एक नायक बनकर उभारे गए. राष्ट्रवादी पोस्टर प्रिंट इसलिए कहा जा सकता है,क्योंकि उन्होंने अपनी कला में महात्मा गांधी के क्रिया -कलापों से पैदा हुई राजनीतिक घटनाओं और राजनीतिक रंगमंच को चित्रित किया. फिर चाहे वो चंपारण सत्याग्रह हो, असहयोग आंदोलन हो, गैर-कर अभियान जैसे कि बारडोली सत्याग्रह, नमक सत्याग्रह या भारत छोड़ो आंदोलन हो.

इससे भी अधिक असाधारण बात यह है कि पोस्टर प्रिंट निर्माताओं और कलाकारों ने भी बिना किसी हिचकिचाहट के महात्मा गांधी को उस वक्त के सभी राजनीतिक दिग्गजों में से आला दर्जा दिया. एक तरह से उन्होंने महात्मा गांधी को एक धर्म संस्थापक की तरह  और भारतीय सभ्यता की आध्यात्मिक विरासत के सच्चे उत्तराधिकारी के तौर पर पेश किया.

इस तरह से उदाहरण के लिए पीएस रामचंद्रा राव के बनाए पोस्टर को ही ले लें. ये पोस्टर साल 1947-48 में मद्रास से "द स्प्लेंडर दैट इज इंडिया" शीर्षक से प्रकाशित हुआ था. इसमें  महात्मा गांधी को "महान आत्माओं" के देव समूह या पंथ में रखा गया है. इस पोस्टर में महात्मा गांधी को वाल्मीकि, तिरुवल्लुवर, बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, दार्शनिक रामानुज, गुरु नानक, रामकृष्ण, रमण महर्षि के साथ चित्रित किया गया है. पोस्टर में महात्मा गांधी को उन महान विभूतियों के साथ दिखाया गया था, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने लोगों के आध्यात्मिक जीवन को जीवंत किया.

कानपुर का राष्ट्रवादी कला में रहा अहम योगदान

आइए हम कुछ और साधारण पोस्टर प्रिंटों की तरफ नजर दौड़ाते हैं. इनमें  श्याम सुंदर लाल स्थापित कानपुर की एक कार्यशाला में बनाए गए चित्रों को शामिल किया जा सकता है. श्याम सुंदर लाल खुद को "पिक्चर मर्चेंट" कहा करते थे और उन्होंने कानपुर के चौक पर अपना ये व्यवसाय स्थापित किया था.

इस बात के तफ्सील में जाना मुमकिन नहीं है कि कानपुर को राष्ट्रवादी कला में इतना अहम मुकाम कैसे मिला, हालांकि राष्ट्रवादी कला में कानपुर एक अकेली जगह नहीं थी. लेकिन यहां ये सब छोड़कर यह याद रखना ज्यादा जरूरी है कि कवानपुर(Cawnpore) जैसा कि अंग्रेज कहा करते थे, वह जगह थी जो 1857-58 के विद्रोह के दौरान महत्वपूर्ण घटनाओं का केंद्र रही थी.

19वीं सदी के अंत तक कानपुर सेना को की जाने वाली आवश्यक आपूर्ति के लिए एक मुख्य विनिर्माण और उत्पादन केंद्र था तो दूसरी तरफ कानपुर श्रमिक संघ के आयोजन के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण स्थान  था. यह एक ऐसा शहर था जहां कम्युनिस्ट और कांग्रेसी दोनों सत्ता के लिए संघर्ष करते थे.

हम ठीक से नहीं जानते कि ये पोस्टर प्रिंट कैसे प्रसारित, वितरित या इस्तेमाल किए गए थे. क्या ये प्रिट हाथों हाथ लोगों को दिए जाते थे? या सार्वजनिक स्थानों पर उन्हें दीवारों पर चिपकाया जाता था या फिर घरों में फ्रेम करके लगाया जाता था? हम यह भी नहीं जानते कि इस तरह के हर एक पोस्टर प्रिंट की कितनी प्रतियां छपी थीं.

यह भी साफ नहीं है कि कार्यशाला के बिजनेस में रहने तक के लगभग 20 से 30 वर्षों  के दौरान वास्तव में कितने डिजाइन प्रचलन में रहे थे. लेकिन जो पोस्टर प्रिंट बच गए हैं, उनसे कुछ निष्कर्ष निकालना संभव हो जाता है कि पोस्टर प्रिंटमेकर राष्ट्रवादी संघर्ष को कैसे देखते थे.

पिक्चर मर्चेंट का नायाब कलाकार

सुंदर लाल की कार्यशाला के लिए लगन से पोस्टर प्रिंट तैयार करने वाले कलाकारों में से एक प्रभु दयाल थे. हम मौजूदा दौर में उनकी कलाकृति के तीन उदाहरणों से कुछ हद तक उस वक्त के कलाकारों की नजर से राष्ट्रवादी संघर्ष को समझ सकते हैं. कलाकार दयाल ने "सत्याग्रह योग-साधना" नाम के अपने एक पोस्टर प्रिंट में, या योग के अनुशासन से सत्याग्रह की सफलता में महात्मा गांधी को अहम स्थान (बीच में) पर दिखाया है तो मोतीलाल और उनके बेटे जवाहरलाल को दोनों छोरो पर दिखाया है.

इसमें महात्मा महात्मा गांधी को बीच में ध्यान की मुद्रा में कांटों की शैय्या पर बैठे दिखाया गया हैं, शायद यह कांटों की शैय्या पर प्राण त्यागने वाले भीष्म पितामह की याद दिलाता हैं.क्योंकि वो भी शर शैय्या पर लेटे थे और उन्होंने इसी शैय्या पर राजा के कर्तव्यों और धर्म की अस्थिरता पर अपनी अंतिम शिक्षाएं दी थी. इस पोस्टर प्रिंट के जरिए शायद  यह कहने कि कोशिश की गई थी कि जिस तरह से कांटों के बगैर गुलाब की झाड़ियां नहीं होती, उसी तरह से संयम और अनुशासन के बगैर किसी तरह की स्वतंत्रता नहीं पाई जा सकती.

इसी तरह इस पोस्टर प्रिंट में महात्मा गांधी जी और उनके अगल-बगल दिखाए गए मोतीलाल नेहरू और जवाहर लाल नेहरू की तरफ से तीन चमकती किरणें ऊपर जाकर पूरी आजादी के एक गोले में जाकर मिल रही है. इसके जरिए कलाकार प्रभुदयाल पूर्ण स्वराज्य को दिखाना चाह रहे हैं. गौरतलब है कि लाहौर में दिसंबर 1929 में कांग्रेस की वार्षिक बैठक में जवाहरलाल की अध्यक्षता  पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित किया गया था. इस पोस्टर प्रिंट में यह पूर्ण स्वतंत्रता या "पूरी आजादी" की किरणें हैं जो तीनों पर चमकती हैं.

आजादी के संग्राम का भारत कांड पोस्टर

इससे पोस्टर प्रिंट से भी अधिक अनूखा अभी भी 1930 का एक पोस्टर प्रिंट है. इसमें  राम और रावण के बीच महायुद्ध को सहारा लेकर महात्मा गांधी और अंग्रेजों के बीच के युद्ध को दिखाया गया है. यह  पोस्टर प्रिंट अहिंसा और हिंसा सत्य और असत्य के बीच के आधुनिक संघर्ष को दिखाता है. इस पोस्टर प्रिंट में दस सिर वाले रावण को ब्रिटिश राज के रूप में जाने जाने वाली मृत्यु और उत्पीड़न की कई-सिर वाली मशीनरी के रूप में दिखाया गया है. इसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम संघर्ष के संदर्भ में हमारे समय की रामायण के तौर पर दर्शाया गया है.

इस पोस्टर पोस्टर प्रिंट में  'स्वतंत्रता के लिए संघर्ष यानी स्वराज्य की लड़ाई में  महात्मा गांधी के एकमात्र हथियार धुरी और चरखा हैं, हालांकि जिस तरह राम को हनुमान ने को मदद दी थी. उसी तरह पोस्टर में  नेहरू को महात्मा गांधी को मदद करते हनुमान की तरह चित्रित किया गया है. इस तथ्य को लेकर कोई दो राय नहीं है कि नेहरू को आधुनिक हनुमान के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जो जीवन रक्षक दवा संजीवनी की तलाश में पूरा  द्रोण पर्वत लेकर वापस आ गए थे. इस लंकाकांड के जैसे ही पोस्टर में भारतकांड नाम दिया गया है.

पोस्टर में अंग्रेजों के शक्ति स्मारक के तौर पर बनाई गई नई शाही राजधानी की वास्तुकला की छाया में एक किनारे पर निस्तेज, उदास और लाचार भारत माता को बैठे दिखाया गया है. वहीं महात्मा महात्मा गांधी को नंगे सिने और उनकी देहाती धोती में  हूण दिखने वाले ऊंचे बूट पहने ब्रिटिश अधिकारी के विपरीत दिखाया गया है. इस ब्रिटिश अधिकारी के हाथों में उत्पीड़न के कई हथियार हैं जैसे तोपखाने, पुलिस का डंडा, सैन्य विमान. निसंदेह इस पोस्टर में एक तरह से ब्रिटिश अधिकारी के हाथ में सशस्त्र बलों और नौसेना के पूरे शस्त्रागार को दिखाया गया है.

पोस्टर में ब्रिटिश अधिकारी के हाथ में भारतीय दंड संहिता की धारा 144 का एक पर्चा भी दिखाया गया है. दमनकारी और सत्ता के दीवाने ब्रिटिश धारा 144 का इस्तेमाल औपनिवेशिक शासन में राष्ट्रवादी प्रदर्शनों को विफल करने के लिए करते थे. और अभी भी स्वतंत्र भारत में लोगों की सभा को प्रतिबंधित करने के लिए इसी धारा 144 का इस्तेमाल किया जा रहा है.

हालांकि,प्रभु दयाल स्वतंत्रता आंदोलन के विभिन्न पहलुओं को समझने में विश्वव्यापी या धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण रखते थे. उनका दृष्टिकोण उस दौर के कुछ लोगों से अलग था जो अहिंसा का मजाक उड़ाते थे और मानते थे कि महात्मा गांधी एक अक्षम और अशक्त इंसान थे. जिन्होंने अपने देश को विश्व की नजर में शक्तिशाली राष्ट्र-राज्य के तौर पर सम्मानित दृष्टि में नहीं रखा.

कलाकार दयाल भगत सिंह या सुभाष चंद्र बोस के महात्मा महात्मा गांधी के साथ रिश्तों को प्रतिरोध की तरह नहीं देखते थे. उनका अधिकांश काम महात्मा गांधी और भगत सिंह के बीच पूरकता का सुझाव देता है. उदाहरण के लिए उनका "स्वतंत्रता की वेदी पर वीरों का बलिदान" या "स्वतंत्रता की वेदी पर नायकों का बलिदान" शीर्षक वाले पोस्टर प्रिंट को ही ले लीजिए.  
 
उनके इस पोस्टर ' भारत के अमर शहीद' में भगत सिंह, मोतीलाल, जवाहरलाल, महात्मा गांधी और अनगिनत अन्य भारतीय अमर शहीदों के शीष के साथ भारत माता के सामने खड़े हैं. इन अमर शहीदों में वीरतापूर्वक देश के लिए अपना जीवन बलिदान करने वाले अशफाकउल्लाह खान, राजेंद्र लाहिड़ी, रामप्रसाद बिस्मिल, लाला लाजपत राय और जतिंद्रनाथ दास पोस्टर में चित्रित किए गए हैं. प्रभु दयाल ने "पंजाब के शेर" लाला लाजपत राय या भारत की आजादी की तलाश में हथियार उठाने वाले कई युवाओं के बलिदान पर संदेह नहीं किया और न ही उनके क्रांति के कदम को गलत बताया है.

इस तरह की अधिकांश कलाकृतियां केवल हाल ही के वर्षों में इतिहासकारों और अन्य विद्वानों की आलोचनात्मक समीक्षा के दायरे में आने लगी हैं. उस दौर के ये पोस्टर पोस्टर प्रिंट न केवल स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी बताते हैं बल्कि इससे राष्ट्र की पहचान बनाने में भी मदद मिली है. भारतीय इतिहास के इस अहम मोड़ पर किस तरह की कला इस तरह का असर छोड़े पाएगी ये देखा जाना अभी बाकी है. 

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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