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नमाजियों को लात और कांवड़ियों पर फूल बरसा रही पुलिस क्या राजनीति की हो गई है शिकार

दिल्ली के इंद्रलोक से एक अजीब घटना सामने आयी. दिल्ली के इंद्रलोक इलाके में सड़क किनारे नमाज पढ़ रहे नमाजियों को एक सब-इंस्पेक्टर लात मारते हुए उठा रहा था. एक तरफ पुलिस सावन में कांवड़ यात्रा के दौरान कांवड़ियों पर फूल बरसाती है. वहीं दूसरी ओर सड़क पर नमाज अदा कर रहे लोगों पर लात चलाती है.

लात चलाने वाली घटना बेहद ही शर्मनाक है. तब जब पुलिस की ज़िम्मेदारी बनती है कि सड़कों पर आपसी सौहार्द बना रहे. देखा जाए तो पुलिस भी समाज का हिस्सा होती है. समाज की जिस प्रकार की मानसिकता बनेगी, वैसी ही मानसिकता समाज में रहने वाले लोगों, कामकाजी लोगों पर हावी हो जाता है.

बदकिस्मती है कि जब देश आज़ाद हुआ तो धर्म के नाम पर देश का बंटवारा हुआ. लाखों लोग इधर से उधर हुए. लाखों लोगों का कत्ल और महिलाओं के साथ अपहरण जैसी घटनाएं हुई और इज्जत तार-तार हुआ. लेकिन वैसे घटनाओं से समाज ने सबक नहीं सीखा. कुछ संगठन ऐसे रहें, जिन्होंने दिमाग में लगातार जहर घोलने का काम जारी रखा. पुलिस हमेशा ही सवालों के घेरे में रही है.

पूरे विश्व में अब तक दो विश्व युद्ध हुए. जर्मनी में यहुदियों का कत्लेआम हुआ. बाद में वहाँ के लोगों ने धर्म, नस्ल और भेदभाव से तौबा कर लिया. हालांकि आज यूरोप इन चीजों को भूल कर तरक्की की राह पर आगे चल पड़ा है. लेकिन जब भारत आज़ाद हुआ और मुल्क का बंटवारा हुआ तो, भौगोलिक के साथ ही लोगों के दिलों और दिमाग में भी एक लकीर खींच दी गई. जब भी देश में दंगा हो या किसी अन्य तरह की घटना हो...या चलती हुई ट्रेन में पुलिस पंकज सिंह द्वारा पूछ-पूछकर तीन से चार मुसलमान को मारने की घटना हो, चाहे हाशिमपुरा का मामला हो, हर घटना में नफ़रत की आग देखी गयी है. इन सभी केस में कहीं न कहीं पुलिस हमेशा सवालों के घेरे में रही है.

पुलिस का रोल अब जाति और वर्ग आधारित भी दिख रहा है. चाहे वो आदिवासी हो, या छत्तीसगढ़ का कोई इलाका हो. झारखंड का इलाका हो या दबे -कुचले लोग हों, जो अपने हक़ के लिए आवाज उठाते हैं, पुलिस उन पर ज़ुल्म करती दिखती है. कुछ साल पहले हीरो-होंडा में कामकाजी जब हड़ताल कर रहे थे, वहां पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया था. चाहे वो जंतर-मंतर का मामला हो, सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर कथित तौर से सेक्सुअल हैरेसमेंट के विरोध में महिलाएं प्रदर्शन कर रही है, तब पुलिस ने अजीब-सी हरकत की थी. इस तरह की घटनाओं से दूरी बनाते हुए पुलिस में अब अभूतपूर्व परिवर्तन की जरूरत है.

देश ने तरक्की की, लेकिन पुलिस की मानसिकता वही रह गयी. समाज में पहले इतना आपसी दुराव नहीं था. लोगों को नहीं भूलना चाहिए कि ये वहीं पुलिस है, जिसे अंग्रेजों ने विरासत में छोड़ कर गए थे. ये वहीं पुलिस है जब देश के आज़ादी के समय भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल और गुरुदत्त को पकड़ कर जेल में डाला. प्रश्न उठता है कि क्या आज़ादी के बाद उनमें बदलाव आया. दरअसल देखा जाए तो ये हुक्म के बंदे हैं. ये हुक्मरान के लिए काम करते हैं. सत्ताधारी लोग जैसे पुलिस का इस्तेमाल करते हैं वैसे ही पुलिस इस्तेमाल होती है. मजूबत इरादे के कम ही पुलिस अधिकारी होते हैं. सब धारा में रहकर काम करते हैं.

पुलिस में दोहरी मानसिकता क्यों है?

हालांकि दिल्ली के इंद्रलोक वाले मामले में त्वरित कार्रवाई करते हुए उस सब इंस्पेक्टर को सस्पेंड कर दिया गया है. लेकिन सवाल बनता है कि सावन में जो कांवड़िए चलते हैं, उन पर हेलिकॉप्टर से फूल बरसाए जाते हैं. कई दिनों तक सड़कें भी जाम हो जाती है. ट्रैफिक हो जाता है. लेकिन लोग इसका विरोध नहीं करते. नौ दिनों तक नवरात्र के समय भी ऐसा ही होता है. शादी विवाह के समय में रात एक बजे तक संगीत आदि के कार्य होते हैं, तब भी लोग विरोध नहीं करते. लोग आपसी सद्भाव बनाकर रहते हैं. उस समय पुलिस भी शांत रहती है. चाहे ये किसी भी मज़हब का हो. लेकिन सड़क वाले मामले में पुलिस की दोहरी मानसिकता क्यों देखने को मिलती है.

राजनीति के कारण से बढ़ी तल्ख़ियाँ

जिस तरह समाज में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता गया, धीरे-धीरे समाज में तल्ख़ियाँ बढ़ती गई और बाद में पुलिस में ये सब दिख रहा है. सत्ता में गोल गुंबद बने रहने का नाम इन दिनों राजनीति हो गया है. उसके लिए सब गलत कार्य सही हो जाते है और सही कार्य गलत हो जाते हैं. ये सभी चीजें तभी ठीक होगी जब समाज में जनता जागरूक होकर तय करने लगेगी. उतर भारत में जितना भेदभाव है, उतना दक्षिण भारत में ये सब देखने को नहीं मिलता. वहां भी धर्म है, लेकिन वहां इस तरह का मामला सामने नहीं आता. वहां की सोच और शिक्षा अलग है. समय के साथ समझदारी आयी है. वहां के लोगों की सोच है कि अगर समाज टूटेगा तो फिर देश टूटेगा.

ऐसे में यहां रह रही जनता को तय करना होगा कि इसका उपाय क्या है.आजकल के लोग इतिहास से सीख लेने को तैयार नहीं हैं. 1947 के आग ने देश को दो फाँक में कर दिया और देश को बांट दिया. लाखों लोग मर गए, विस्थापित हो गए. ऐसे में पब्लिक को खुद उपाय खोजना होगा कि ऐसे हालात उत्पन्न ही ना हो. कोई भी संगठन या पार्टी जो बंटवारे की बात करती हो, जनता को उसे बाहर की राह दिखाना होगा. पहली प्राथमिकता अपने राष्ट्र के लिए दिखानी होगी. सोवियत संघ के पास ट्रिलियन इकोनॉमी थी. बाद में एक विचारधारा को इस तरह से ठूंसा गया कि सोवियत संघ कुल 14 हिस्सों में बंट गई. ये बात सबको समझना होगा. बाद में ऐसा ना हो कि नेताओं के कंट्रोल से भी हालात बाहर हो जाए. इन सब चीजों पर राजनीतिक पार्टियों को विचार करने की जरूरत है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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