नीतीश देख बड़ेन को लघु न दीजै डारि, जहां काम आवे सुई कहां करे तरवारि..
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजै डार। जहां काम आवै सुई, काहि करै तरवार।।
रहीम का यह दोहा इस वक्त नीतीश कुमार की अगुवाई वाली विपक्षी एकता मिशन के लिए बिलकुल फिट बैठता है. 23 जून को पटना में भले विपक्षी दलों का महाजुटान तय है लेकिन इस महफ़िल से घर के लोग ही गायब रहेंगे. अब घर के ये अपने कद में भले छोटे हो लेकिन असर इतना कि बिहार के पिछले कुछ उपचुनावों की दशा-दिशा बदल चुके हैं. ऐसे में मोदी के विजय रथ को रोकने का सपना देख रहे नीतीश कुमार अगर बिहार में ही मात खा गए तो लोग कुछ नहीं बहुत कुछ कहेंगे और यही कहेंगे कि “चले थे जमाने को एक करने, अपना घर तक संभाल न सके.”
ओवैसी से डरना जरूरी है
बिहार में ओवैसी जितने बड़े जिताऊ नेता है, उससे भी बड़े हराऊ नेता साबित हुए है. वे खुद हार कर उन्हें जितवा देते है जिन्हें हराने का सपना नीतीश कुमार देख रहे हैं. इसके लिए बस दो उदाहरण देखना काफी होगा. असदुद्दीन ओवैसी के उम्मीदवार ने गोपालगंज विधानसभा उपचुनाव में 12 हजार वोट लिए थे और दूसरी तरफ साधु यादव की पत्नी को 8 हजार वोट मिले थे. यानी, 20 हजार वोट ये दो नेता ले कर निकल गए और इस तरह राजद के उम्मीदवार मात्र 18 सौ वोट से चुनाव हार गए. जाहिर है, यह सत्तापक्ष के लिए एक जोरदार झटका था. तेजस्वी यादव के लिए इससे भी बड़ा झटका था क्योंकि गोपालगंज उनका गृह क्षेत्र है और इस वजह से ही जद (यू) ने इस सीट पर अपना दावा नहीं किया था. तेजस्वी अगर यह सीट जीत जाते तो उनकी नेतृत्व क्षमता और अधिक मजबूत होती लेकिन, “ओवैसी” फैक्टर की वजह से वे चुनाव हार गए. दूसरी तरफ, कुढ़नी में ओवैसी के उम्मीदवार को तीन हजार दो सौ वोट मिले थे और भाजपा के उम्मीदवार तीन हजार चार सौ वोट से जीते थे. दोनों जगहों पर महागठबंधन के लिए हार का अंतर 2 से 3 हजार वोट का रहा. यानी, दूसरे शब्दों में कहे तो यह विशुद्ध रूप से जातीय समीकरण में सेंध लगा कर महागठबंधन के वोट बैंक को तोड़ने का नतीजा भी था.
ओवैसी के मुद्दे पर नीतीश कुमार को इसलिए भी विचार करना चाहिए क्योंकि बिहार में जब से तेजस्वी ने अपनी पार्टी की कमान संभाली है, तब से वे ए टू जेड की बात करते आ रहे है और बाकायदा वे इसका खुला प्रदर्शन भी करते है. यहां नारा लगता है “भूमिहार का चूरा, यादव का दही”. जबकि पार्टी की स्थापना से ही 31 फीसदी का एक कोर वोट बैंक (माई) राजद के साथ रहा है. लेकिन, गोपालगंज में अब्दुल सलाम (ओवैसी की पार्टी) को 12 हजार वोट मिले. तो क्या माई ने ए टू जेड रणनीति को जवाब दिया? ऐसे में, सीमांचल में 6 विधायक हासिल करने वाले ओवैसी अगर पूरे बिहार में चुनाव लड़ जाए और गोपालगंज-कुढनी की तरह या उससे थोड़ा कम स्तर का भी प्रदर्शन कर देते हैं तब बिहार में तेजस्वी यादव के ए टू जेड समेत नीतीश कुमार के महाविपक्ष फार्मूला का क्या होगा? तो सवाल यही है कि क्या नीतीश कुमार की विपक्षी एकता में ओवैसी भी शामिल किए जाएंगे या नीतीश कुमार ओवैसी के बिना ही मोदी के रथ को रोकने का सपना देखते रहेंगे?
सन ऑफ मल्लाह की अनदेखी!
मुकेश सहनी के विधायक टूट कर भले भाजपा में चले गए हो लेकिन इससे उनकी राजनैतिक ताकत कमजोर हो गयी हो, ऐसा नहीं है. कम से कम बोचहा और कुढनी उपचुनाव के नतीजे तो यही बताते हैं. बोचहा में 25 हजार और कुढनी में 10 हजार वोट लाना चुनावी राजनीति में कोई छोटी बात नहीं है. और इन दोनों जगहों पर तेजस्वी यादव ने मुकेश सहनी का फ़ायदा उठाया था. बोचहा से राजद उम्मीदवार की जीत हुई थी और कुढनी से जद (यू) उम्मीदवार की शर्मनाक हार एक सम्मानजनक हार में तब्दील हो गयी, क्योंकि मुकेश सहनी के भूमिहार उम्मीदवार नीलाभ कुमार ने यहां से करीब 10 हजार वोट हासिल किए थे.
इन पंक्तियों के लेखक से जब भी मुकेश सहनी की औपचारिक बातचीत हुई है, उन्होंने कहा हैं कि वे भाजपा को हारने के लिए कुछ भी करेंगे. लेकिन, यहां एक समस्या आ गयी. नीतीश कुमार-तेजस्वी यादव शायद मुकेश सहनी को टेकेन फॉर ग्रांटेड लेने लगे, इस बिना पर कि वे भाजपा विरोध के नाम पर हमें छोड़ कर जाएंगे कहां? लेकिन, पुरानी मान्यता है, राजनीति में स्थायी दोस्त-दुश्मन नहीं होते. इस वक्त नीतीश कुमार की विपक्षी एकता की कवायद में मुकेश सहनी कहां है, कुछ पता नहीं है. फिर से वहीं बात होती दिख रही है कि भोज में 84 गांव को न्योता दे दिए लेकिन अपने टोला को ही छोड़ दिए. ऐसे में दही-चूरा के मुकाबले मछली-भात का भोज अपनी धमक दिखा दे तो एक बार फिर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए.
पिछड़ा बनाम पिछड़ा
बिहार अब अगड़ा बनाम पिछड़ा की लड़ाई से निकलकर पिछड़ा बनाम पिछड़ा की स्थिति में पहुंच चुका है. बिहार के एक क्षेत्रीय दल के नेता ने इन पंक्तियों के लेखक से एक अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि इस वक्त वन्दोपाध्याय कमेटी की रिपोर्ट को देखना चाहिए. उनका दावा था कि इस कमेटी के अनुसार बिहार में पिछले 30 सालों में जमीन का सबसे ज्यादा हस्तांतरण यादवों और कुर्मी के हाथों हुआ है. तो राजनीति और आर्थिक (जमीन के मामले में भी) जब यही दो जातियां लगातार मजबूत होती गयी है, तो अन्य ओबीसी जातियों के बीच इसे लेकर बेचैनी होगी और शायद यह भी एक बड़ी वजह है कि सत्ता में अब अधिक से अधिक हिस्सेदारी के लिए जातीय अस्मिता के नाम पर राजनीतिक दलों का गठन होने लगा है.
उपेन्द्र कुशवाहा ने एक बार फिर नीतीश कुमार से अलग हो एक नई पार्टी बना ली. नीतीश कुमार कुर्मी जाति से आते हैं, जिसकी बिहार की जनसंख्या में तकरीबन 4 से 5 फीसदी की है जबकि उपेंद्र कुशवाहा जिस कुशवाहा कोइरी जाति से आते हैं उसकी हिस्सेदारी 8 से 9 फीसदी है और निश्चित ही उपेंद्र कुशवाहा यह जानते होंगे कि चुनावी लोकतंत्र में सिर गिने जाते है, तौले नहीं जाते. हालांकि, जातीय अस्मिता या जातीय हिस्सेदारी के आधार पर दल बना कर उपेंद्र कुशवाहा कितना राजनीतिक लाभ ले पाएंगे या 2024 के लोकसभा चुनाव में वे एक बार फिर भाजपा के एजेंडे को मजबूत बनाने का काम करेंगे, इसका जवाब आने वाले समय में पता चलेगा लेकिन 1990 के बरक्स 2023 के बिहार की राजनीतिक तस्वीर इस बात का संकेत है कि अब लड़ाई “अपनों” के बीच ही है.
दूसरी तरफ, दलित-महादलित सत्ता में हिस्सेदारी के लिए अलग-अलग पार्टियां पहले ही बना चुके हैं. जीतन राम मांझी का मध्य बिहार में थोड़ा बहुत असर है. हालांकि चुनावी रूप से उनकी पार्टी उतनी मजबूत नहीं है फिर भी प्रतीकात्मक तौर पर वे महादलित समुदाय का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं. अब वे भी महागठबंधन से अलग हो चुके हैं. अब देर-सबेर ये सारी पार्टियां 2024 के महासमर में भाजपा के खेमे में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष चले जाए तो कोई अनोखी बात नहीं होगी. अंत में बस इतना कि जिस महाविपक्षी जुटान के लिए नीतीश कुमार दिन-रात एक कर रहे हैं उसमें उनके अपने ही घर के लोग अगर नहीं होंगे तो यह मेहनत कितना कारगर साबित होगा, कहना मुश्किल है.
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