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मिज़ोरम चुनाव: ज़ोरमथंगा की राह आसान नहीं,  MNF के सामने  ZPM की दावेदारी मज़बूत, लालदुहोमा बन सकते हैं नये क्षत्रप

मिज़ोरम विधान सभा चुनाव के लिए पूरी तरह से तैयार है. यहाँ की सभी 40 विधान सभा सीट पर 7 नवंबर को मतदान होना है. इस बार मिज़ोरम का चुनाव बेहद दिलचस्प होने वाला है. आम तौर से पूर्ण राज्य बनने के बाद अब तक मिज़ोरम में मुख्य मुक़ाबला मिज़ो नेशनल फ्रंट  और कांग्रेस के बीच ही होता रहा है. इस बार हालात बदले हुए हुए हैं. ज़ोरम पीपल्स मूवमेंट या'नी ZPM के रूप में प्रदेश के लोगों को नया विकल्प भी मिल सकता है.

केंद्र शासित प्रदेश और पूर्ण राज्य मिलाकर मिज़ोरम में अब तक 12 बार विधान सभा चुनाव हुए हैं. इनमें पूर्ण राज्य के तौर पर 8 विधान सभा चुनाव शामिल हैं. इस बार मिज़ोरम के लोग बतौर पूर्ण राज्य 9वीं बार विधान सभा चुनाव में वोट डालेंगे.

क्या ज़ोरमथंगा चौथी बार बनेंगे मुख्यमंत्री?

मिज़ोरम में फ़िलहाल मिज़ो नेशनल फ्रंट की सरकार है. प्रदेश के कद्दावर नेता 79 साल के ज़ोरमथंगा अभी मिज़ोरम के मुख्यमंत्री हैं. मिज़ो नेशनल फ्रंट की पूरी कोशिश है कि ज़ोरमथंगा चौथी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. हालांकि मिज़ो नेशनल फ्रंट के इस लक्ष्य के बीच में इस बार  ज़ोरम पीपल्स मूवमेंट के लालदुहोमा की ऐसी चुनौती है, जिसे पार करना ज़ोरमथंगा के लिए बेहद मुश्किल होने वाला है.

इस बीच कांग्रेस भी पूर्वोत्तर राज्यों में एक पुराने मजबूत गढ़ को दोबारा हासिल करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है. कांग्रेस की मज़बूत संभावना को देखते हुए इस बार मिज़ोरम का मुक़ाबला त्रिकोणीय हो गया है. त्रिकोणीय मुक़ाबला होने की वज्ह से सियासी गलियारों में त्रिशंकु जनादेश की अटकलों को भी हवा मिल रही है.

ऐसे तो मिज़ोरम से बीजेपी को कुछ ज़्यादा उम्मीद नहीं है, लेकिन उसकी पूरी कोशिश है कि पूर्वोत्तर के बाक़ी राज्यों की तरह यहाँ भी उसका जनाधार पूरे प्रदेश में फैले. बीजेपी के नज़रिये से यही पहलू सबसे अधिक महत्वपूर्ण है.

मिज़ोरम में ज़ेडपीएम के रूप में नया विकल्प!

पिछले कुछ सालों में मिज़ोरम की राजनीति में  ज़ोरम पीपल्स मूवमेंट या'नी ZPM का उभार तेज़ी से हुआ है. लालदुहोमा की अगुवाई में ज़ेडपीएम इस बार के चुनाव में उस स्थिति में पहुँच गयी कि प्रदेश के लोगों में दशकों बाद नये विकल्प पर चर्चा होने लगी है. ज़ेडपीएम इस बार प्रदेश की सभी 40 सीटों पर चुनाव लड़ रही है.

ज़ेडपीएम नेता लालदुहोमा की बढ़ती लोकप्रियता

जे़डपीएम की ताक़त शहरी इलाके हैं. हालांकि प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में अपनी पकड़ बढ़ाने के लिए चुनाव प्रचार के दौरान लालदुहोमा ने किसानों के लिए कई वादे किए हैं. सबसे प्रमुख वादों में सरकार की नीतियों में किसानों को सबसे अधिक महत्व देना शामिल है. इसके साथ ही तक़रीबन 300 मेगावाट बिजली उत्पादन से जुड़े तीन नये पनबिजली बाँध बनाने का भी वादा किया. जे़डपीएम ने ग्रामीण इलाकों के साथ ही पूरे प्रदेश में लोगों का समर्थन हासिल करने के लिए सरकार बनने पर अगले पाँच साल पर बिजली दरों में कोई इज़ाफ़ा नहीं करने का भी वादा किया है.

किसान तय करेंगे लालदुहोमा का भविष्य

मिज़ोरम में ग्रामीण इलाकों में किसानों के बीच मौजूदा मुख्यमंत्री ज़ोरमथंगा बेहद लोकप्रिय हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि मिज़ोरम की क़रीब 60 फ़ीसदी जनसंख्या कृषि और उससे जुड़े काम पर निर्भर है. इस लिहाज़ से किसानों का समर्थन पाकर ही मिज़ोरम की सत्ता हासिल की जा सकती है. जे़पीएम के लालदुहोमा को यह आभास है कि किसानों और  ग्रामीण इलाकों में पार्टी की पकड़ मज़बूत होने पर ही वे प्रदेश के लोगों के लिए नया विकल्प बन सकते हैं. इसलिए इस बार के चुनाव प्रचार में उनका मुख्य ज़ोर किसानों पर रहा है.

अगर इस बार मिज़ोरम के लोग मिज़ो नेशनल फ्रंट या कांग्रेस की जगह ज़ोरम पीपल्स मूवमेंट को मौक़ा देते हैं, तो तय है कि लालदुहोमा ही मुख्यमंत्री बनेंगे. मिज़ोरम में जनवरी 1989 से  कांग्रेस नेता ललथनहवलाऔर एमएनएफ के नेता ज़ोरमथंगा ही मुख्यमंत्री बनते आए हैं. अगर इस बार लालदुहोमा को मौक़ा मिलता है तो क़रीब 34 साल बाद प्रदेश के लोगों को इन दोनों की जगह कोई नया मुख्यमंत्री मिलेगा. इस नज़रिये से भी मिज़ोरम का इस बार का चुनाव दिलचस्प होने के साथ महत्वपूर्ण है.

मिज़ोरम की स्थानीय अस्मिता का दाँव

ठीक चुनाव से पहले एक नया दाँव चलते हुए लालदुहोमा ने मिज़ोरम की स्थानीय अस्मिता का कार्ड भी खेला है. उन्होंने स्पष्ट किया है कि सत्ता में आने पर ज़ोरम पीपल्स मूवमेंट पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर न तो नेशनल डेमोक्रिटिक अलायंस (NDA) का हिस्सा बनने वाली है और न ही विपक्षी गठबंधन 'इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस’ (I.N.D.I.A) का.  लालदुहोमा ने इसके ज़रिये मिज़ो नेशनल फ्रंट पर निशाना साधने की कोशिश की है.

भले ही मिज़ोरम विधान सभा चुनाव में  बीजेपी और ज़ोरमथंगा की पार्टी के बीच गठजोड़ नहीं है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर मिज़ो नेशनल फ्रंट एनडीए का हिस्सा है. मिज़ोरम में क्षेत्रीय दल के तौर पर अपनी पहचान को केंद्रीय राजनीति के नियंत्रण से दूर रखने का लालदुहोमा ने एलान कर प्रदेश के लोगों को एक संदेश देने की कोशिश की है. उनका आशय है कि एनडीए का हिस्सा बनकर ज़ोरमथंगा दिल्ली से कंट्रोल होते आए हैं और अगर उनकी पार्टी सत्ता में आयी तो मिज़ोरम केंद्रीय राजनीति का कठपुतली बनकर नहीं रहेगा. यह एक तरह से भावनात्मक चुनावी कार्ड है.

प्रदेश में सत्ता का विकेंद्रीकरण बड़ा मुद्दा

लालदुहोमा ने इस बार प्रदेश में सत्ता के विकेंद्रीकरण को भी बड़ा मुद्दा बनाया है. उन्होंने प्रदेश स्तर से लेकर गांव के स्तर तक गैर सरकारी संगठनों, चर्च और आम लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले दूसरे संगठनों को शामिल करते हुए समितियां बनाने का वादा किया है. ये समितियां विकास कार्यों पर नज़र रखेंगी. लालदुहोमा ने प्रदेश के आम लोगों को अपनी पार्टी का समर्थन हासिल करने के लिए मंत्री और विधायकों को मिलने वाली सुविधाओं में भी कटौती का वादा किया है.

गैर-मिज़ो नेशनल फ्रंट और गैर-कांग्रेसी विकल्प

पिछली बार या'नी 2018 के विधान सभा चुनाव में लालदुहोमा की अगुवाई में जे़डपीएम गैर-मिज़ो नेशनल फ्रंट और गैर- कांग्रेसी सरकार के नारे के साथ प्रदेश की सियासी दंगल में उतरी थी. उस वक़्त नयी-नयी पार्टी जे़डपीएम को इसका फ़ाइदा भी मिला था. लालदुहोमा की पार्टी जे़डपीएम 40 में से 8 सीट जीतकर विधान सभा में मुख्य विपक्षी दल बनने में कामयाब हुई थी. ज़ेपीएम का वोट शेयर क़रीब 23 फ़ीसदी रहा था.

लालदुहोमा के नेतृत्व का ही असर था कि 2018 में कांग्रेस ज़्यादा वोट शेयर (29.98%) हासिल करने के बावजूद महज़ 5 सीट ही जीत पायी थी. ज़ेडपीएम के बैनर तले पहली बार चुनाव में उतरी लालदुहोमा की पार्टी के इस प्रदर्शन की वज्ह से कांग्रेस के हाथ से सत्ता तो गयी हीं, इसके साथ ही उसे  तीसरे नंबर की पार्टी बनने के लिए विवश होना पड़ा था. उस चुनाव में मिज़ो नेशनल फ्रंट को 26 सीटों पर जीत मिली थी और ज़ोरमथंगा तीसरी बार मिज़ोरम के मुख्यमंत्री बने थे.

लालदुहोमा 80 के दशक से लोकप्रिय नेता

लालदुहोमा मिज़ोरम की राजनीति में तक़रीबन चार दशक से जाने-पहचाने चेहरे हैं. लालदुहोमा कांग्रेस, मिज़ो नेशनल यूनियन, मिज़ोरम पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, ज़ोरम नेशनलिस्ट पार्टी में भी रह चुके हैं. 74 वर्षीय लालदुहोमा एक बेहद ख़ास वज्ह से भारतीय संसदीय व्यवस्था के इतिहास में महत्व रखते हैं. लालदुहोमा पहले आईपीएस अधिकारी थे. आम चुनाव, 1984  वे कांग्रेस के टिकट पर जीतकर पहली बार लोक सभा सांसद बने.

इन्सर्जन्सी से निपटने में उन्होंने तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार को काफ़ी मदद की थी. लंदन में रह रहे मिज़ो नेशनल फ्रंट के नेता लालडेंगा को भारत सरकार से बातचीत के लिए तैयार करने में लालदुहोमा भी काफ़ी योगदान रहा था. बाद में राजीव गांधी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार की मिज़ोरम से जुड़ी नीतियों से लालदुहोमा बेहद नाराज़ हो गए और सांसद रहते हुए ही कांग्रेस की सदस्यता छोड़ दी. इसके बाद लालदुहोमा पहले ऐसे सांसद बने, जिन्हें दसवीं अनुसूची में शामिल एंटी-डिफेक्शन लॉ या'नी दल-बदल कानून, 1985 के तहत अयोग्य घोषित किया गया.

ज़ोरमथंगा का दबदबा रहेगा क़ायम या फिर...

जहाँ तक ज़ोरमथंगा की बात हैं, तो उनके लिए इस बार की राह बेहद कठिन है. ऐसे तो मिज़ोरम की राजनीति पर ज़ोरमथंगा का दबदबा क़रीब तीन दशक से है. वहीं वे पाँच दशक से भी ज़्यादा समय से मिज़ोरम के लोगों के बीच जाने-पहचाने चेहरा हैं. मौजूदा कार्यकाल को मिलाकर वे तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. इससे पहले ज़ोरमथंगा लगातार दो कार्यकाल में तीन दिसंबर 1993 से लेकर 11 दिसंबर 2008 तक मिज़ोरम के मुख्यमंत्री रहे थे. इस तरह से वे क़रीब 15 साल मुख्यमंत्री रहे हैं. 

मिज़ोरम में शरणार्थियों से जुड़ा मुद्दा महत्वपूर्ण

प्रदेश में कांग्रेस बेहद कमज़ोर स्थिति में है. उसके बावजूद लालदुहोमा के बढ़ते कद की वज्ह से इस बार ज़ोरमथंगा के लिए चौथी बार मुख्यमंत्री बनना आसान नहीं होगा. सत्ता विरोधी लहर के साथ ही एक पहलू पर उनकी स्थिति थोड़ी कमज़ोर नज़र आ रही है. पहला पहलू शरणार्थियों से निपटने के तरीक़े से जुड़ा है और दूसरा पहलू म्यांमा, बांग्लादेश और मणिपुर छोड़कर गए 'ज़ो' लोगों से जुड़ा है. ज़ोरम पीपल्स मूवमेंट का कहना है कि ज़ोरमथंगा सरकार इस मसले से बेहतर तरीके से निपटने में कामयाब नहीं हुई है.

चिन-कुकी-ज़ोमी शरणार्थियों के मुद्दे पर सियासत

हालांकि ज़ोरमथंगा को इस बात का एहसास पहले ही हो चुका था. वो भी मिज़ोरम में रह रहे म्यांमार और मणिपुर के चिन-कुकी-ज़ोमी शरणार्थियों के मुद्दे पर मिज़ो लोगों की भावनाओं को समझते हुए क़दम उठा रहे थे. चिन-कुकी-ज़ोमी और मिज़ो का संबंध एक ही जातीय जनजाति  'ज़ो' से  है. चुनावी लाभ के मद्द-ए-नज़र ही ज़ोरमथंगा ने केंद्र सरकार के निर्देश बावजूद म्यांमार के चिन-कुकी शरणार्थियों का बायोमेट्रिक डेटा जमा करने से मना कर दिया था. एक अनुमान के मुताबिक़ म्यांमार के चिन-कुकी-ज़ोमी जनजातियों के क़रीब 40 हज़ार शरणार्थियों को पारिवारिक संबंधों की दलील के आधार पर ज़ोरमथंगा सरकार ने आश्रय दिया है. जहाँ लालदुहोमा मिज़ोरम सरकार पर इस मसले से सही तरीक़े से निपटने का आरोप लगा रहे हैं. दूसरी तरफ इसकी भी चर्चा है कि ज़ोरमथंगा के लिए यही मुद्दा नैया पार करने वाला साबित हो सकता है.

ज़ोरम पीपल्स मूवमेंट का उत्साह चरम पर

नवगठित लुंगलेई नगर परिषद के इसी साल हुए पहले चुनाव में ज़ोरम पीपल्स मूवमेंट को सभी 11 वार्ड पर जीत मिली थी. इस चुनाव में ज़ोरम पीपल्स मूवमेंट का वोट शेयर 49%  से ज़्यादा था. वहीं  मिज़ो नेशनल फ्रंट का वोट शेयर 29%  ही था. मिज़ोरम की 4 विधान सभा सीट लुंगलेई नगर परिषद के दायरे में आती हैं. पिछली बार इन चारों विधान सभा सीच पर ज़ोरमथंगा की पार्टी जीत हासिल करने में सफल रही थी. लुंगलेई नगर परिषद के चुनाव में मिज़ो नेशनल फ्रंट के पूरी तरह से सफ़ाया होने के बाद से ही ज़ोरमथंगा की मुश्किलें बढ़ गयी थी. लुंगलेई नगर परिषद के चुनाव नतीजों के बाद आगामी विधान सभा चुनाव में ज़ोरमथंगा की जगह पर लालदुहोमा के नया विकल्प बनने के विमर्श को भी ख़ूब हवा मिलने लगी.

इन्सर्जन्सी में भी रही थी महत्वूपूर्ण भूमिका

तमाम चुनौतियों के बावजूद ज़ोरमथंगा इतनी आसानी से उम्मीदों को बिखरने देने वाले नेता नहीं हैं. प्रदेश को फ़िलहाल सबसे बेहतर तरीक़े से समझने वाले नेताओं में उनकी गिनती होती है. जब लालडेंगा की अगुवाई में मिज़ोरम में 60-70 के दशक में इन्सर्जन्सी चरम पर थी, तो उस वक़्त ज़ोरमथंगा भी मिज़ो नेशनल फ्रंट विद्रोही गुट के बेहद महत्वपूर्ण नेता थे. मिज़ोरम पीस अकॉर्ड पर हस्ताक्षर से पहले ज़रामथंगा क़रीब दो दशक तक अंडरग्राउंड होकर चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे देशों में रहे थे. भारत सरकार और मिज़ो नेशनल फ्रंट दोनों पक्षों ने  30 जून  1986 को मिज़ोरम पीस अकॉर्ड पर हस्ताक्षर किया था. इसके बाद से मिज़ोरम में इंसर्जेंसी का एक लंबा दौर ख़त्म हुआ था.

20 फरवरी 1987 को बना था पूर्ण राज्य

मिज़ोरम पीस अकॉर्ड से ही मिज़ोरम के भारत का पूर्ण राज्य बनने का रास्ता साफ हुआ था. पहले यह असम का हिस्सा था.असम से अलग करके मिज़ोरम 1972 में  केंद्र शासित प्रदेश बना. फिर 1986 में संसद से पारित 53वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से मिज़ोरम पूर्ण राज्य बना. मिज़ोरम आधिकारिक तौर से 20 फरवरी 1987 को भारत का 23वां राज्य बना. पूर्ण राज्य बनने के बाद मिज़ो नेशनल फ्रंट के संस्थापक लालडेंगा मिज़ोरम के पहले मुख्यमंत्री बने थे.

एमएनएफ और कांग्रेस के इर्द-गिर्द राजनीति

जनवरी 1989 से मिज़ोरम की राजनीति में कांग्रेस नेता ललथनहवला और मिज़ो नेशनल फ्रंट के नेता ज़ोरमथंगा युग की शुरूआत होती है. पहले दो लगातार कार्यकाल में ललथनहवला दस साल मुख्यमंत्री रहते हैं. उसके बाद फिर दस साल ज़ोरमथंगा मुख्यमंत्री रहते हैं. एक बार फिर दिसंबर 2008 से दिसंबर 2018 तक कांग्रेस नेता ललथनहवला मिज़ोरम की मुख्यमंत्री रहते हैं. उसके बाद 2018 के विधान सभा चुनाव में जीत हासिल कर  मिज़ो नेशनल फ्रंट सत्ता में आती है और ज़ोरमथंगा फिर से मुख्यमंत्री बने हैं. इस पंरपरा को देखते हुए 2023 के चुनाव में ज़ोरमथंगा की बारी है. हालांकि लालदुहोमा की लोकप्रियता से इस परंपरा के टूटने की संभावना प्रबल है.

कांग्रेस के लिए आसान नहीं है लड़ाई

अब मिज़ोरम की सियासी लड़ाई में तीसरा धड़ा कांग्रेस है. कभी मिज़ोरम की सत्ता पर कांग्रेस का ही दबदबा हुआ करता था. फरवरी 2024 में में मिज़ोरम को पूर्ण राज्य बने 37 साल हो जायेगा. इस दौरान मिज़ोरम की सत्ता पर क़रीब 20 साल कांग्रेस ही क़ाबिज़ रही है. हालांकि कांग्रेस का मिज़ोरम में दबदबा तब था, जब ललथनहवला प्रदेश में पार्टी की अगुवाई कर रहे थे. 85 वर्षीय ललथनहवला के राजनीति में सक्रियता कम होने के साथ ही मिज़ोरम में कांग्रेस का प्रभाव भी कम होने लगा. विधान सभा चुनाव, 2018  में तो कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी भी नहीं बन सकी.  ज़ोरम पीपल्स मूवमेंट  के उभार का सबसे अधिक नुक़सान कांग्रेस को ही हुआ है.

कांग्रेस के लिए फिर से वापसी मुश्किल!

इस बार काँग्रेस के तमाम नेता दावा ज़रूर कर रहे हैं कि एक बार फिर से प्रदेश की जनता भरोसा करेगी. मिज़ोरम में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष  लालसावता तो 25 सीट तक जीतने का दावा कर रहे हैं. हालाँकि मिज़ोरम की राजनीति की जो अभी ज़मीनी हक़ीक़त उसमें कांग्रेस की स्थिति उतनी मज़बूत दिख नहीं रही है. हाल ही में पलक सीट से कांग्रेस के विधायक रहे के टी रोखाव ने इस्तीफा देकर मिज़ो नेशनल फ्रंट में शामिल हो गये थे. मिज़ो नेशनल फ्रंट ने उन्हें पलक सीट से उम्मीदवार भी बनाया है.

मिज़ोरम में प्रासंगिकता बनाए रखने की चुनौती

प्रदेश की जनता को लुभाने के लिए कांग्रेस ने भी जमकर वादे किये हैं. इनमें प्रशासन के हर क्षेत्र में सुधार के लिए कैबिनेट उप-समिति का गठन, ग्राम परिषदों और शहरी स्थानीय निकायों को अधिक अधिकार और वित्तीय संसाधन मुहैया कराना शामिल है. कांग्रेस ने युवा मिज़ो उद्यमिता कार्यक्रम शुरू करने का भी वादा किया है, इसके तहत एक लाख नौकरियां पैदा करने के लिए स्टार्टअप को वित्तीय मदद देना शामिल है. ग़रीबों के इलाज और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए भी कांग्रेस ने तमाम वादे किये हैं. कांग्रेस के वादों में महिला प्रधान परिवारों के लिए 750 रुपये में एलपीजी गैस सिलेंडर मुहैया कराना भी शामिल है.

इन तमाम वादों के बीच कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती मिज़ोरम की राजनीति में ख़ुद की प्रासंगिकता को बनाए रखने की है. पिछली बार मिज़ोरम की सत्ता कांग्रेस के हाथों से छीन गयी थी. उसके साथ ही पूर्वोत्तर के किसी भी राज्य में कांग्रेस सत्ता में नहीं रही थी.

बीजेपी पिछला प्रदर्शन में सुधार कर पायेगी!

मिज़ोरम की सत्ता से जुड़ी लड़ाई में इस बार बीजेपी ने भी पूरी ताक़ झोंक दी है. चुनाव प्रचार के आख़िरी दिन 5 नंवबर को बीजेपी के वरिष्ठ नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक वीडियो संदेश के माध्यम से मिज़ोरम के लोगों को संबोधित किया. इस दौरान उन्होंने कहा कि बीजेपी एक शानदार मिज़ोरम बनाने के लिए प्रतिबद्ध है.

हालाँकि बीजेपी कितना भी दावा करे, उसकी लड़ाई सीट जीतने से ज़्यादा वोट शेयर बढ़ाकर पार्टी का प्रदेश में जनाधार विस्तार तक ही सीमित है. फ़िलहाल ऐसा कहा जा सकता है. बीजेपी को 2018 के विधान सभा चुनाव में पहली बार मिज़ोरम में कोई सीट जीतने में कामयाबी मिल पायी थी. उस समय बीजेपी एक सीट जीत पायी थी. हालाँकि उसका वोट शेयर 2013 के मुक़ाबले काफ़ी बढ़ा था. बीजेपी का वोट शेयर 2013 में एक प्रतिशत से भी कम था, जो 2018 में बढ़कर 8 प्रतिशत से अधिक हो गया था.

लालदुहोमा के ज़ोरम पीपल्स मूवमेंट के उभार से प्रदेश में जिस तरह से कांग्रेस को काफ़ी नुक़सान हुआ है, उसी तरह से बीजेपी के विस्तार के मंसूबों को भी झटका लगा है. यह वो पहलू है, जिससे बीजेपी के लिए इस बार पिछली बार के प्रदर्शन में थोड़ा सुधार करना ही बड़ी चुनौती होगी.

मिज़ोरम एक ईसाई बहुल राज्य है

ऐसे भी मिज़ोरम में समाज का जो धार्मिक पैटर्न है, उसमें बीजेपी की राजनीति के विस्तार की गुंजाइश कम हो जाती है. मिज़ोरम एक ईसाई बहुल राज्य है. प्रदेश की 87 प्रतिशत आबादी ईसाई धर्म को मानने वाली है. यहाँ बौद्ध धर्म के लोगों की संख्या 8.51 फ़ीसदी है.  मिज़ोरम में हिन्दू आबादी 2.75% और मुस्लिम आबादी 1.35% है. ईसाई बहुल राज्य होने के कारण प्रदेश के चुनाव में चर्च की भूमिका हमेशा से प्रभावी रही है. 2011 की जनगणना के अनुसार मिज़ोरम की आबादी क़रीब 11 लाख थी. साक्षरता दर लगभग 92% है. मिज़ोरम में इस बार के चुनाव कुल 8 लाख 56 हज़ार 868 मतदाता हैं.

मिज़ोरम सामरिक तौर से बेहद महत्वपूर्ण राज्य

मिज़ोरम सामरिक नज़रिये से काफ़ी महत्वपूर्ण राज्य है. मिज़ोरम से बांग्लादेश और म्यांमार की अंतरराष्ट्रीय सीमा लगती है. मिज़ोरम की म्यांमार से 404 किलोमीटर की सीमा जुड़ी हुई हैं. वहीं बांग्लादेश से 318 किलोमीटर की अंतरराष्ट्रीय सीमा मिज़ोरम से जुड़ी हुई है. इनके अलावा मिज़ोरम से पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा, मणिपुर और असम की सीमा जुड़ी हुई है. सामरिक महत्व को देखते हुए मिज़ोरम विधान सभा चुनाव हमेशा ही पूरे देश के लिए महत्वपूर्ण रहा है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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