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कर्नाटक की सत्ता: कांग्रेस के लिए होगी संजीवनी, तो बीजेपी के लिए दक्षिण भारत की राह होगी आसान

कर्नाटक की सत्ता पर कौन सी पार्टी काबिज होगी, ये तो 13 मई को पता चलेगा. ऐसे तो कर्नाटक महज़ एक राज्य है और एक राज्य की सत्ता का असर देशव्यापी राजनीति पर बहुत ज्यादा नहीं पड़ती है. लेकिन फिलहाल जिस तरह का राजनीतिक माहौल है, उसके हिसाब से कर्नाटक की सत्ता बीजेपी, कांग्रेस और जेडीएस के लिए अलग-अलग नजरिए से बेहद ख़ास है.

सबसे पहले कांग्रेस के नजरिए से बात करते हैं. कांग्रेस के लिए कर्नाटक की सत्ता एक तरह से अस्तित्व बनाए रखने के लिहाज से जरूरी है. हम कह सकते हैं कि अगर कर्नाटक में कांग्रेस अकेले बहुमत हासिल कर सरकार बनाने में कामयाब हो जाती है तो ये उसके लिए किसी भी तरह से संजीवनी से कम नहीं होगी. इसके पीछे बहुत सारे कारण हैं. अभी कांग्रेस की राजनीतिक स्थित देशव्यापी नजरिए से बेहद दयनीय है.

कर्नाटक की सत्ता कांग्रेस के लिए बन सकती है संजीवनी

पिछला एक दशक चुनावी राजनीति के लिहाज से कांग्रेस के लिए बहुत ही बुरा रहा है. इस दौरान कांग्रेस को चुनाव दर चुनाव हार का ही सामना करना पड़ रहा है. 2014 और 2019 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत ही खराब रहा है. इसके साथ ही इस दौरान उसे हिमाचल और राजस्थान को छोड़ दें, तो कई राज्यों में हार का सामना करना पड़ा है. इन 10 सालों में दो बार 2014 और 2019 में लोकसभा चुनाव हुए. दोनों बार ही कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत ही खराब रहा. 2014 के लोकसभा चुनाव में तो कांग्रेस ने अब तक का अपना सबसे खराब प्रदर्शन किया. उसे सिर्फ़ 44 सीटें हासिल हो पाई. कांग्रेस का वोट शेयर भी पहली बार गिरकर 20 फीसदी नीचे जा पहुंचा. कांग्रेस उतनी भी सीट नहीं ला पाई कि लोकसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा तक हासिल कर पाए. वहीं 2019 में भी कांग्रेस के प्रदर्शन में कोई ख़ास सुधार नहीं हुआ और वो 52 सीट ही ला पाई. उसे अपना वोट शेयर बढ़ाने में भी कामयाबी नहीं मिली.

इन 10 सालों में एक-एक कर कई राज्यों से भी कांग्रेस की सरकार खत्म हो गई. अब सिर्फ हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ही कांग्रेस की अपने दम पर सरकार है. उसमें भी छत्तीसगढ़ और राजस्थान में इस साल ही चुनाव होने हैं, जहां पार्टी की स्थिति उतनी अच्छी नहीं मानी जा रही है. लगातार हार की वजह से कांग्रेस का जनाधार तो घटा ही है, कार्यकर्ताओं और समर्थकों में भी निराशा का माहौल है. संगठन के भीतर सब कुछ पहले जैसा नहीं रहा है. कई बड़े नेता इस दौरान पार्टी को छोड़कर जा चुके हैं. भारतीय राजनीति में इस वक्त कांग्रेस की हालत डूबती हुई नैया की तरह होते जा रही है.

जनता के बीच कांग्रेस की धूमिल होती छवि का ही नतीजा है कि धीरे-धीरे बाकी विपक्षी दल भी कांग्रेस पर पहले की तरह खुलकर भरोसा नहीं जता पा रहे हैं. पिछले एक दशक में कांग्रेस के घटते जनाधार का ही असर है कि ज्यादातर क्षेत्रीय दल भी उसे मुख्य विपक्षी पार्टी मानने से कतरा रहे हैं और 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को विपक्ष की अगुवाई सौंपने से भी किनारा कर रहे हैं. स्थिति इतनी बुरी है कि कांग्रेस को लेकर जनता के बीच जो धारणा बनते जा रही है, उसकी वजह से बाकी विपक्षी दलों के नेताओं, ख़ासकर क्षेत्रीय क्षत्रपों, को भी लगने लगा है कि कहीं कांग्रेस से हाथ मिलाने के चक्कर में उन्हें अपने ही राज्य में नुकसान न झेलना पड़े.

पिछले 10 साल से कांग्रेस की राजनीति राहुल गांधी के इर्द-गिर्द घूमते रही है, इसमें किसी को कोई संदेह नहीं है. हालांकि उसके पहले भी कांग्रेस के नीतिगत फैसलों में राहुल गांधी का दखल रहता था, लेकिन जनवरी 2013 में कांग्रेस के जयपुर चिंतन शिविर में  राहुल गांधी को कांग्रेस उपाध्यक्ष बनाया गया. उसके बाद हम कह सकते हैं कि व्यावहारिक तौर पर पार्टी के हर छोटे-बड़े फैसले राहुल गांधी ही लेते रहे. ये भी कड़वा सच है कि इन 10 सालों में ही कांग्रेस की स्थिति लगातार बद से बदतर होते गई. अब तो मानहानि से जुड़े आपराधिक केस में दो साल की सज़ा मिलने के बाद राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता भी जा चुकी है. अगर आने वाले वक्त में उन्हें ऊपरी अदालतों से राहत नहीं मिलती है, तो फिर राहुल गांधी अगले 8 साल के लिए चुनावी राजनीति से बाहर हैं. ऐसे में कांग्रेस फिलहाल राष्ट्रीय स्तर पर चेहरे के संकट से भी जूझ रही है.

कुल मिलाकर कांग्रेस को एक ऐसी टॉनिक चाहिए, जिसकी बदौलत उसकी राजनीतिक सांस पहले की तरह ही रफ्तार पकड़ सके और कर्नाटक की सत्ता उसके लिए ऐसी ही टॉनिक का काम कर सकती है. हम कह सकते हैं कि अस्तित्व के संकट से जूझ रही कांग्रेस के लिए कर्नाटक उम्मीद की किरण बन सकती है. अभी जहां कुल 200 से ज्यादा विधानसभा सीटें है, उन राज्यों में अपने दम पर कहीं भी कांग्रेस की सरकार नहीं है. कर्नाटक में जीत हासिल करने पर कम से कम एक ऐसा राज्य कांग्रेस के पास हो जाएगा.

दूसरा फायदा कांग्रेस को 2024 के आम चुनाव के लिए रणनीति बनाने के लिहाज से भी होगा. ये हम सब जानते हैं कि केंद्रीय राजनीति के हिसाब से बीजेपी अभी जितनी मजबूत है, बिखरा विपक्ष 2024 में उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती. बीजेपी के खिलाफ 'एक के मुकाबले एक' फार्मूले की रणनीति को लेकर विपक्षी एकता बनाने की कोशिश की जा रही है. हालांकि उसमें सबसे बड़ी बाधा ये आ रही है कि उस विपक्षी एकता की अगुवाई कौन सी पार्टी करेगी. कायदे से पैन इंडिया जनाधार होने की वजह से ये सिर्फ़ कांग्रेस ही कर सकती है, लेकिन अभी भी बहुत सारी विपक्षी पार्टियां पूरी तरह से मुखर होकर इस बात को स्वीकार नहीं कर रही हैं.  चाहे ममता बनर्जी, केसीआर,  नवीन पटनायक हों या फिर अखिलेश यादव, एम. के. स्टालिन और अरविंद केजरीवाल हों. लेफ्ट नेताओं की भी सोच कमोबेश ऐसी ही है. ये लोग फिलहाल इस मूड में नहीं हैं कि 2024 लोकसभा से पहले खुलकर कांग्रेस को विपक्ष का अगुवा मान लें. यानी कांग्रेस की स्थिति को देखते हुए ये लोग लोकसभा चुनाव पूर्व कांग्रेस को नेतृत्व देने के मुद्दे पर संशय में हैं.

अगर कांग्रेस कर्नाटक में बहुमत हासिल कर सत्ता पाने में कामयाब हो जाती है, तो इससे कांग्रेस की अगुवाई में विपक्षी एकता की संभावना को भी ज्यादा बल मिल सकता है. साथ ही कांग्रेस कार्यकर्ताओं और समर्थकों में भी अच्छा संदेश जाएगा कि संघर्ष करने पर उनकी पार्टी बीजेपी को बड़े राज्यों में भी हरा सकती है. इससे देशभर में कांग्रेस के सुस्त पड़े कार्यकर्ताओं के बीच सकारात्मक संदेश जाएगा.

2024 के आम चुनाव से पहले कांग्रेस  के सामने  देश के अलग-अलग राज्यों में अपनी खोई सियासी जमीन पाने की बड़ी चुनौती है. इस साल नगालैंड, त्रिपुरा, मेघालय और कर्नाटक के बाद 5 और राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम में चुनाव होना है. इसके अलावा 2024 के लोकसभा चुनाव के साथ ही आंध्र प्रदेश के लिए भी विधानसभा चुनाव होना है.

इनमें से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की स्थिति बाकी राज्यों की तुलना में थोड़ी अच्छी है. छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस अंदरूनी गुटबाजी से जूझ रही है. जहां राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट ने एक-दूसरे के खिलाफ साधी मोर्चा खोल दिया है, वहीं छत्तीसगढ़ में भी पिछले 4 साल से जारी सीएम भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव के बीच तनातनी अब चुनाव से पहले खुलकर बाहर दिखने लगी है. ऐसे में अगर कांग्रेस को कर्नाटक में जीत मिल जाती है तो पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के लिए ये एक अच्छा उदाहरण होगा राजस्थान और छत्तीसगढ़ के नेताओं के बीच टकराव को खत्म करने के लिए. पार्टी का शीर्ष नेतृत्व कह सकता है कि कैसे सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार ने आपसी अदावत को दरकिनार करते हुए पार्टी के हितों को महत्व दिया जिसकी बदौलत ये कामयाबी हासिल हुई. वहीं कभी कांग्रेस का मजबूत किला रहा आंध्र प्रदेश में भी पार्टी को कर्नाटक के नतीजे से कुछ हद तक फायदा मिल सकता है. पिछली बार आंध्र प्रदेश विधानसभा चुनाव लोकसभा में कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई थी.

पिछले साल अक्टूबर में मल्लिकार्जुन खरगे कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे. खरगे खुद कर्नाटक से आते हैं, ऐसे में यहां की जीत पार्टी अध्यक्ष के तौर पर उनके कद को भी बढ़ाएगा. इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए कर्नाटक की सत्ता हासिल करना न सिर्फ़ कांग्रेस के लिए जरूरी है, बल्कि एक तरह से उसकी भविष्य की राजनीति के लिए बूस्टर डोज भी साबित हो सकता है.

कर्नाटक की सत्ता बीजेपी के मिशन साउथ के नजरिए से अहम

अब बात बीजेपी की करते हैं. कर्नाटक में सत्ता हासिल करना बीजेपी के लिए कई नजरियों से महत्वपूर्ण है. ऐसे तो पिछले 9 साल से पूरे देश में बीजेपी का परचम लहरा रहा है. बीजेपी नरेंद्र मोदी की अगुवाई में लगातार दो बार लोकसभा चुनाव जीत चुकी है. इस दौरान कई राज्यों में भी बीजेपी को जीत मिली है. लेकिन कर्नाटक की सत्ता को फिर से हासिल करना बीजेपी के मिशन साउथ के लिहाज से बेहद जरूरी है.

कर्नाटक की सत्ता में वापसी बीजेपी के लिए कई कारणों  से महत्व रखता है. दक्षिण के 5 बड़े राज्यों कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में से सिर्फ़ कर्नाटक ही ऐसा सूबा है, जहां हम कह सकते हैं कि बीजेपी का सही मायने में जनाधार है. बाकी आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में बीजेपी पिछले 30-35 साल से चाहे कितने भी हाथ-पांव मारते आई हो, राज्य में सरकार बनाने के लिहाज से न तो उसकी राजनीतिक हैसियत बन पाई है और न ही जनाधार में कोई बड़ा उछाल आया है. अगर इस बार कर्नाटक की सत्ता बीजेपी के हाथों से चली जाती है, तो फिर दक्षिण भारत से उसका पूरी तरह से सफाया हो जाएगा और उसके मिशन साउथ को भी गहरा झटका लगेगा.

बीजेपी दावा करती है कि वो कार्यकर्ताओं के लिहाज से दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन अगर वो कर्नाटक का चुनाव हार जाती है, तो दुनिया की उस सबसे बड़ी पार्टी का दक्षिण भारत के पांचों बड़े राज्यों में से किसी में सत्ता ही नहीं रह जाएगी. भले ही बीजेपी फिलहाल देश की सबसे बड़ी और सबसे ज्यादा जनाधार वाली पार्टी हो, लेकिन बीजेपी के अस्तित्व के बाद से ही दक्षिण भारत के ये 5 राज्य किसी तिलिस्म से कम नहीं रहे हैं.

ये बात सच है कि कर्नाटक में बीजेपी 2007 से सत्ता में आ-जा रही है, लेकिन ये भी तथ्य है कि  बीजेपी को कभी भी कर्नाटक में अब तक स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं हुआ है. कर्नाटक में कुल 224 विधानसभा सीटें हैं और बीजेपी को अब तक कभी भी यहां विधानसभा चुनाव में बहुमत के आंकड़े यानी 113 सीटें हासिल नहीं हुई हैं. बीजेपी को 2018 में 104 सीटों पर, 2013 में 40 सीटों पर और 2008 में 110 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं  2004 में 79 सीटों पर, 1999 में 44 सीटों पर और 1994 में 44 सीटों पर पार्टी को जीत मिली थी. अगर कर्नाटक में सत्ता में बने रहने में बीजेपी कामयाब हो जाती है, तो ये पहला मौका होगा जब बीजेपी को यहां बहुमत हासिल होगा और इसलिए भी तमाम राज्यों और केंद्र में सरकार होने के बावजूद कर्नाटक के नतीजे बीजेपी के लिए साख़ का सवाल है. बीजेपी को इस बार जीत बहुमत के साथ जाती है ताकि वो पूरे दमखम के साथ कह सकती है कि दक्षिण भारत में एक राज्य ऐसा है जहां वो बड़ी ताकत बन चुकी है.

एक और 2013 छोड़ दें तो पिछले 6 विधानसभा चुनावों में बीजेपी का ये प्रदर्शन तब रहा था जब वहां पार्टी की कमान पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा संभाल रहे थे. 2013 में जब वो बीजेपी से अलग थे, तो हम सब जानते हैं कि बीजेपी 40 सीटों पर सिमट गई थी. यानी कर्नाटक में बीजेपी का अब तक जो राजनीतिक हैसियत बनी है, उसमें सबसे बड़ा हाथ बीएस येदियुरप्पा का रहा है. इस बार बीएस येदियुरप्पा चुनाव लड़ने की राजनीति से अलग हैं, हालांकि वो पार्टी का चेहरा बनकर प्रचार अभियान में जुटे जरूर रहे. इस लिहाज से भी अगर कर्नाटक में बीजेपी जीत जाती है, तो वो 82 साल के येदियुरप्पा की छत्रछाया से भी बाहर निकल आएगी और वहां बीजेपी के लिए भविष्य का रास्ता पहले से ज्यादा आसान हो जाएगा.

कर्नाटक के अलावा बीजेपी कोशिश में है कि दक्षिण भारत के बाकी राज्यों तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में उसकी पहुंच बढ़े. इनमें से तेलंगाना में इस साल ही चुनाव होने हैं. पार्टी ने जिस तरह से 2019 के लोकसभा चुनाव में वहां प्रदर्शन किया था और पिछले 3-4 साल में वहां के लोगों में बीजेपी को लेकर परसेप्शन बना है, उससे इस बार बीजेपी के मिशन साउथ के तहत तेलंगाना में भी सत्ता हासिल करना उसके लक्ष्यों में शामिल है.

बीते 4 साल में तेलंगाना में बीजेपी का जनाधार तेजी से बढ़ा है. 2018 के विधानसभा चुनाव में भले ही बीजेपी ज्यादा कुछ हासिल नहीं कर पाई थी. लेकिन उसके 4 महीने बाद ही हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने प्रदर्शन से सबको चौंका दिया था. 2018 में बीजेपी 7 फीसदी वोट के साथ सिर्फ एक ही विधानसभा सीट जीत पाई थी. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी 4 सीटों पर जीतने में कामयाब रही. बीजेपी का वोट शेयर भी 19.45% तक पहुंच गया. वहीं 2014 के मुकाबले 2019 में केसीआर की पार्टी को 3 सीटों का नुकसान हुआ. 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों का आकलन अगर विधानसभा सीटों के हिसाब से करें, तो केसीआर के लिए बीजेपी का खतरा उसी वक्त से पैदा होने लगा था. 2018 में बीजेपी 118 सीट पर लड़ने के बावजूद सिर्फ एक विधानसभा सीट जीत पाई थी, लेकिन 2019 के आम चुनाव में 21 विधानसभा सीटों में वो आगे थी. वहीं केसीआर की पार्टी 2018 में 88 सीटें जीती थी. लेकिन 2019 के आम चुनाव में उनकी पार्टी का जनाधार घट गया था. उस वक्त टीआरएस सिर्फ 71 विधानसभा सीटों पर ही आगे थी.

कर्नाटक में बीजेपी की बड़ी जीत का लाभ तेलंगाना में पार्टी के जनाधार को बढ़ाने में मिल सकता है. तेलंगाना कर्नाटक का पड़ोसी राज्य है और हैदराबाद कर्नाटक रीजन से लगे तेलंगाना के इलाकों में लोगों के बीच कर्नाटक का असर साफ-साफ देखा जाता है. ये भी तथ्य है कि मिशन साउथ में फिलहाल बीजेपी के लिए कर्नाटक और तेलंगाना ही ऐसे राज्य हैं, जहां उसका प्रभाव है.

आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में पार्टी की राह फिलहाल बहुत लंबी है. पिछली बार आंध्र प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली थी और न ही वहां के किसी लोकसभा सीट पर पार्टी जीत पाई थी. वहीं केरल में बीजेपी को अब तक सिर्फ 2016 में एक विधानसभा सीट पर जीत मिली थी. यहां वो लोकसभा सीट कभी जीत ही नहीं पाई है. वहीं तमिलनाडु में 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का खाता नहीं खुला था और 2021 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को महज़ 4 सीटों से संतोष करना पड़ा था. कहने का मतलब है इन तीनों राज्यों में बीजेपी का प्रभाव गौण ही है. लेकिन कर्नाटक की जीत से इन राज्यों में भी बीजेपी का प्रभाव कुछ हद तक बढ़ने की संभावना है.

कर्नाटक की सत्ता हासिल होने पर बीजेपी की ओर से ये संदेश भी जाएगा कि उसके खिलाफ कांग्रेस की अगुवाई में विपक्षी एकता बनाने की कोशिश की जा रही है, वो 2024 में असरकारक नहीं रहने वाली और एक तरह से बीजेपी के खिलाफ विपक्षी लामबंदी की कोशिशों को झटका लगेगा.

जेडीएस के लिए महत्व बनाए रखने की चुनौती

जहां तक बात रही एच डी कुमारस्वामी की जेडीएस की, तो उसके लिए अपने दम पर कर्नाटक की सत्ता हासिल करना एक तरह से दिन में तारे दिखने जैसा ही है. इसके बावजूद इस बार कर्नाटक के नतीजों से जेडीएस के लिए भी बहुत कुछ तय होने वाला है. जेडीएस को 2018 में 37 सीटें, 2013 में 40 सीटें, 2008 में 28 सीटें, 2004 में 58 सीटें और 1999 में 10 सीटें मिली थी. जेडीएस का प्रभाव ऐसे भी पूरे कर्नाटक में नहीं है. उसका ज्यादा प्रभाव ओल्ड मैसूर रीजन में है. पैन कर्नाटक प्रभाव नहीं होने के बावजूद त्रिशंकु जनादेश की स्थिति में जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी राज्य के दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं और इस बार भी अगर बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही बहुमत हासिल करने में कामयाब नहीं रही तो, राज्य में जेडीएस की प्रासंगिकता बनी रहेगी. अगर बीजेपी या कांग्रेस में से किसी पार्टी को बड़ी जीत हासिल होती है, तो फिर जेडीएस के भविष्य की राजनीति की राह बेहद मुश्किल हो जाएगी.

अब ये तो 13 मई को मतगणना के बाद ही पता चलेगा की कर्नाटक की जनता का समर्थन किसे हासिल हुआ है और किस पार्टी के मंसूबे पूरे होने जा रहे हैं.

(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)

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