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हिंदी को मिल रही हैं बाजारवाद से नए स्वरूप और तेवर की चुनौतियां, हिंदी से चलता है जिनका घर, वे रखें व्यापक सरोकार

हर साल हिंदी दिवस के अवसर पर इसकी दशा और दिशा पर चिंतन किया जाता है. त्रिभाषा फॉर्मूले के तहत हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला है. हालिया वर्षों में सरकारी स्तर पर हिंदी का प्रचार-प्रसार बढ़ा है, फिल्मों और ओटीटी की वजह से हिंदी का बाजार भी बढ़ा है और हिंदी की चुनौतियां भी. सोशल मीडिया हो या पत्रकारिता, सिनेमा हो या साहित्य, हर जगह हिंदी का प्रयोग तो बढ़ा है, लेकिन इसकी गंभीरता और शोध की गुणवत्ता घटी भी है. यही हिंदी के चाहनेवालों का दर्द भी है और चुनौती भी. 

मिशन से बाजार तक

हिंदी कई सारी बोलियों से मिलकर बनी है और जिसे हम 'खड़ी बोली' कहते हैं, उसका गद्य या पद्य नवजागरण काल की देन है. यह जो मिशनरी भाव था, भारतेंदु से लेकर उनसे पहले तक भी जो हमारे स्वाधीनता आंदोलन की पहली लड़ाई भी कही जाती है. उस समय भी हम पर्चों और उनकी भाषा के माध्यम से भी अपनी लड़ाई लड़ रहे थे. वही चीजें भारतेंदु काल में आकर ठोस स्वरूप लेती हैं और आगे बढ़ती हैं. लगभग सैकड़ों पत्र-पत्रिकाएं उस समय निकलती हैं, जहां पर डाकखाने या कोई सुविधा भी नहीं थी, लोग अपनी जेब से पैसे लगाकर भी काम करते थे.

भारतेंदु ने स्वयं कई पत्रिकाएं अपने जीवनकाल में निकालीं. उनके पहले भी लगभग दो दर्जन पत्रिकाएं निकल चुकी थीं, हिंदी में. हालांकि, इनका ऐसा कोई डॉक्युमेंटेशन नहीं हुआ है. उसके पहले जिस तरह उर्दू और उससे पहले भी अरबी-फारसी का जो बोलबाला था, हमारी बोलियों का जो साहित्य था और वहां से चलकर हिंदी जिस तरह आयी है, वह पूरी विकास यात्रा जो है, हिंदी भाषा का जो साहित्य है, इसकी चाहे जो भी विधा हो, वह किसी भी भाषा से कमतर नहीं है.

हिंदी की कविता या कहानी या आलोचना, जो भी है, वह कहीं से कमजोर नहीं है. जिसने भारतेंदु से लेकर प्रेमचंद, जैनेंद्र, मुक्तिबोध, निराला, प्रसाद और पंत को पैदा किया. आप हरेक विधा में देखें, चाहे वह जो भी हों, भारतीय अन्य भाषाओं में देखें तो उनका इतिहास बहुत पुराना है और यह भी ध्यान देने की बात है कि दुनिया की किसी भी भाषा की उम्र हजार वर्षों से कम नहीं है, लेकिन केवल डेढ़ सौ वर्षों में हिंदी की जो यात्रा है, वह कमाल की है. उसने अपनी सर्जनात्मकता में, लेखन में, विचार में जो यात्रा तय कर ली है, वह अद्भुत है. जब मैं कहता हूं कि वह जब मिशन से बाजार की तरफ पहुंची है, तो उसके अपने खतरे हैं.

बाजार के अपने खतरे

आप जैसे सोशल मीडिया को लें. उस पर जैसी हिंदी लिखी जा रही है, जो साहित्य रचा जा रहा है, वह सोशल मीडिया के पहले का दौर नहीं है. यहां का मामला तुरंत का है, त्वरित का है. उसमें वह गहराई नहीं, चिंतन नहीं, गंभीरता नहीं है. भाषा अपनी सर्जनात्मकता में जिंदा रहती है. हां, यह ठीक है कि बाजार की वजह से बहुत लोगों की रोजी-रोटी चलती है, फिल्मों की, मीडिया की भाषा बनी है और उसके माध्यम से लोगों का रोजगार चलता है, तो यह मानना होगा कि हिंदी ने बहुत को रोजगार दिया है, लेकिन सवाल है कि क्या हिंदी अपनी जड़ों से कुछ सीखकर आगे बढ़ेगी या नहीं, इस पर मुझे थोड़ी चिंता है. जिस हिंदी में रेणु, मनोहर श्याम जोशी, उदय प्रकाश, निराला, प्रसाद आदि हों, आलोचना में अगर देखें तो जो रामविलास जी की त्वरा है, जो मलय हैं, जो शानी हैं, जो विष्णु खरे हैं, जो कर्मेन्दु शिशिर हैं, जिस तरह की भाषा का उन्होंने प्रयोग किया है, क्या उनकी हिंदी से आगे की चीजें हमें दिखेंगी या नहीं? यह मुझे थोड़ी चिंता की बात लगती है. अभी के लोग बाजार के साथ बहुत तेजी से भाग रहे हैं. संपर्क भाषा के माध्यम से, बाजार के माध्यम से, हिंदी की एक बड़ी दुनिया सृजित हुई है, रोजगार बढ़े हैं, लेकिन इसकी सर्जनात्मकता नहीं दिख रही है और भविष्य में वे बचेंगी या आ जाएंगी, उस पर मुझे संदेह है.

हिंदी की चुनौतियां

हिंदी की चुनौतियां जो हैं, वह भूमंडलीकरण, उसकी संस्कृति, उसकी पूंजी और मीडिया है. जो अंग्रेजी का वर्चस्व है, वह भी चुनौती है, लेकिन इस बीच मैं देख रहा हूं कि शासन-प्रशासन से लेकर तमाम जगहों पर हिंदी बढ़ी है. चुनौतियां कम नहीं हैं. वे चाहे राजनीतिक, आर्थिक, भाषिक या आर्थिक हों, लेकिन साथ में सर्जनात्मक और वैचारिक चुनौती भी है. अगर उसमें गंभीर चिंतन नहीं होगा, काम नहीं होगा तो वह भाषा खत्म हो जाएगी, चाहे वह कोई भी हो. हिंदी खुद में पूरी भाषा है. भारतीय भाषाओं में आपस की लड़ाई नहीं होनी चाहिए. सबको बढ़ना चाहिए, लेकिन किसी दूसरे की कीमत पर नहीं. अपनी कीमत पर ही उन्हें बढ़ना चाहिए. जो बोलियां हैं, उनको मैं चुनौती के आधार पर नहीं देखता, बल्कि वे तो साथ में ही हैं. संस्कृत, अरबी जैसी भाषाएं कब की पीछे छूट चुकी हैं.

उर्दू और हिंदी तो साथ की भाषा हैं. वे बोलियों के साथ हैं और हिंदी इनसे बहुत कुछ ग्रहण कर सकती है. आप ऐसा भी नहीं कह सकते कि वर्नाकुलर या लैंगुआ फ्रांका के नाम से जो जानी जाती थी, हिंदी अब वैसी भी नहीं है. जहां तक सवाल है -मूल हिंदी-का, तो उससे आप क्या समझते हैं, आप मूल के तौर पर संस्कृत लेते हैं, हिंदी की बोलियों को लेते हैं या फिर क्या लेते हैं? कोई भी भाषा बिना तत्सम के तो होती नहीं. वह आसान जब भी बनती है तो दूसरी भाषाओं के आदान-प्रदान से ही होता है. मूल हिंदी जिसे आप कह रहे हैं, वह चिंता सहज और सरल हिंदी की है, हम राजभाषा के संदर्भ में भी कहते हैं. अगर हम उसे अनुवाद की भाषा न बनाएं तो बेहतर है.

हिंदी कमतर नहीं

हिंदी के जिन लोगों का हिंदी से परिवार चलता है, रोजी-रोटी चलती है, उनको पहले हिंदी के अखबारा, पत्र-पत्रिकाएं, किताबें खरीदनी शुरू करनी चाहिए. आखिर, इतनी सारी पत्र-पत्रिकाएं थीं, हिंदी की. वे गैर-व्यावसायिक थीं, लेकिन आज वे बंद हो रहे हैं, अखबार बंद हो रहे हैं. हिंदी के नाम पर आप नौकरी करें, पैसा कमें और उसके प्रति आप उदासीन रहें. केवल आप अधिकार समझते हैं कि नौकरी मिल गयी तो अपना स्वार्थ पूरा करें तो हिंदी ऐसे तो नहीं बढ़ेगी. भाषा अगर बचेगी नहीं, किताब नहीं रहेगा, अखबार नहीं रहेगा, पाठक नहीं रहेंगे, तो हिंदी भला कैसे बचेगी. इसीलिए, ये जो हिंदी भाषी 60 करोड़ लोग के बराबर हैं, उसमें अगर कोई कविता या आलोचना की किताब छपे और वह 500 या 300 की संख्या में ही छपे, तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा?

हिंदी का अध्यापन हो या शोध का स्तर है, वह लगातार गिर रहा है. इन सभी चीजों पर आपको नजर रखनी होगी. अब बाजार आ चुका है और मिशन छूट चुका है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप सभ्यता और संस्कृति को छोड़ दें तो उसका आधार भाषा है. अगर भाषा नहीं बचेगी, तो हम और आप भी नहीं बचेंगे. हिंदीवालों को अपने साहित्य और भाषा के प्रति प्रेमिल होना पड़ेगा. वे हिंदी के प्रति ईमानदारी से पेश आएं, तो ही हिंदी का रथ आगे बढ़ेगा. कोलोनियल हैंगओवर से हमें बचना ही होगा. इस मानसिकता से निजात पाए बिना हिंदी का कल्याण नहीं है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.] 

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