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मॉम कॉप कहकर अर्चना जयंत पर भार मत बढ़ाएं- उसे बांटना सीखें

‘मातृशक्ति’ की एक गजब मिसाल देखने को मिली है दो दिन पहले. झांसी की कॉन्स्टेबुल अर्चना जयंत थाने में अपनी दुधमुंही बच्ची को डेस्क पर लिटाकर फाइलें निपटा रही हैं. बच्ची छह महीने की है, सो मां के दूध पर निर्भर है. दिल पसीज जाता है यह फोटो देखकर. क्या अच्छी तरह से अर्चना अपना काम और परिवार संभालती हैं. हम उन पर वारि-वारि जाते हैं. देखो, औरत में संतुलन बैठाने की क्या जबरदस्त प्रतिभा होती है. सलाम है, माताओं को. कुछ समायोजन भी किया जाता है- अब अर्चना का ट्रांसफर आगरा कर दिया गया है ताकि उनके घर वाले बच्ची की देखभाल कर सकें. गर्व थोड़ा-थोड़ा करुणा में बदल रहा है. हम मैथिलीशरण गुप्त की शरण में जाते हैं- अबला तेरी यही कहानी. आंखों की कोर भीग जाती है. फिर पोंछ-पाछ कर हम भिड़ जाते हैं दूसरे मोर्चों पर. अर्चना जैसी औरतें जहां-तहां ममता और करियर की पतली डोरी पर गिरती-पड़ती, आगे बढ़ती हैं.

‘मातृ शक्ति’- उसके बारे में क्या कहा जाए. इन दो शब्दों के भार से दबकर, हमारी छाती जमीन से चिपक गई है. पिछले साल एक मशहूर सामाजिक संगठन के दिल्ली स्थित समर कैंप में 50 लड़कियों को सिखाया गया कि उन्हें कैसे बर्ताव करना चाहिए. कहा गया कि उनकी आदर्श कौन होनी चाहिए-शिवाजी का मां जीजा बाई. जिसने शिवाजी जैसा बेटा पैदा किया. शिवाजी, यानी देश के सच्चे सपूत. जाहिर सी बात है, माता का दायित्व अपने बच्चों को देश का बेहतर नागरिक बनाना है. कहा गया कि औरतों को अपने-अपने घर में मिनी इंडिया बनाने की कोशिश करनी चाहिए. यही उनकी समाज सेवा है. देश के विकास में उनकी भागीदारी का सर्वोत्तम उदाहरण- ‘मातृ शक्ति’ देश का रूप बदल सकती है. लीजिए तराजू में कुछ किलो का और इजाफा हो गया.

अर्चना की तस्वीर भी उस भार को थोड़ा बढ़ाती है. मॉम कॉप जैसी पदवी देकर हम उसे लगातार दोहरा दायित्व निभाने के लिए उकसाते हैं. नौकरी के साथ घर-परिवार संभालने का मैसेज देते हैं. मां हो तो जिम्मेदारी तो निभानी ही होगी. कौन निभाएगा... बाहर वाले थोड़ी ना! जब भी हम अर्चना जैसी औरतों की तस्वीर देखकर गर्व से भरते हैं- औरत पर एकाध किलो वजन और लाद देते हैं. उसकी तस्वीर पर हमें गुस्सा नहीं आता. गुस्सा हर उस व्यवस्था से, जो अर्चना को यह संतुलन बनाने पर मजबूर करता है. एसोचैम का 2015 का एक सर्वे कहता है कि पढ़ी-लिखी शहरी औरतें ज्यादा से ज्यादा संख्या में फुल टाइम मदर बनने के लिए अपनी प्रोफेशन लाइफ छोड़ रही हैं. बच्चों को पालने के साथ-साथ करियर संभालना मुश्किल काम होता है. तभी 2013 में विश्व बैक की एक स्टडी में कहा गया था कि भारत में 15 साल से ऊपर की सिर्फ 27% औरतें काम करती हैं. यह ब्रिक्स देशों में सबसे कम दर है. यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि 2017 में मिस वर्ल्ड बनी मानुषी छिल्लर ने पब्लिकली कहा था कि मदरहुड ऐसा प्रोफेशन है जिसमें सबसे ज्यादा सैलरी मिलनी चाहिए. मतलब हम, बलिदान को मदरहुड से जोड़कर एक त्रुटिपूर्ण परिभाषा गढ़ते हैं. करियर और अपनी च्वाइस को छोड़ने वाली मां को अधिक सम्मान देते हैं, तो हम यह भी बताना चाहते हैं कि जो ऐसे बलिदान नहीं करती, वह मां अच्छी मां नहीं हो सकती.

अच्छी मां वही, जो सब कुछ संभाल सके. कभी संतुलन बनाए- कभी संतुलन को छोड़कर एक किनारा धर ले. मदरहुड हमारे यहां विकल्प नहीं, अनिवार्यता है. फिर बच्चे की देखभाल पूरी तरह से मां की जिम्मेदारी मानी जाती है. मेटरनिटी बेनेफिट कानून 2017 कामकाजी माताओं के लिए तो छुट्टी का समय 26 हफ्ते करता है पर पिता की छुट्टी की कोई बात नहीं करता. तो, बच्चे संभालते-संभालते औरत के करियर का कब सत्यानाश हो जाता है, यह कोई सेरेना विलियम्स जैसी मशहूर टेनिस स्टार के केस से समझ सकता है. बच्ची पैदा करने से पहले उनकी वर्ल्ड रैंकिंग 1 थी, और मेटरनिटी लीव से लौटकर आने के बाद 491 पर धड़ाम गिरी थी. इसके बावजूद कि आठ हफ्ते की प्रेग्नेंसी के साथ सेरेना ऑस्ट्रेलियन ओपन जीत चुकी थीं. तब कोई जानता भी नहीं था कि वह प्रेग्नेंट हैं.

अर्चना जयंत के केस में ‘मातृ शक्ति’ का उदाहरण देने की बजाय कुछ दूसरे विकल्प सोचे जाने चाहिए. यूपी पुलिस ने एक पहल करने की घोषणा की है. वह सभी पुलिस स्टेशनों में क्रेच की सुविधा देने वाली है. महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने नेशनल क्रेच स्कीम में इस संबंध में दिशानिर्देश जारी करने की बात कही है. जैसा कि मेटरनिटी बेनेफिट कानून कहता है, मेनका ने 50 या 50 से अधिक कर्मचारियों वाले इस्टैबलिशमेंट्स में क्रेच शुरू करने की बात भी दोहराई है. वैसे राजीव गांधी राष्ट्रीय क्रेच योजना जैसे कुछ कार्यक्रम कुछ जिलों में चलाए गए हैं लेकिन इस सिलसिले में अलग से कोई कानून नहीं है. 2006 में इस पर एक ड्राफ्ट बिल का प्रस्ताव रखा गया था लेकिन इस पर कोई काम नहीं किया गया. मेटरनिटी बेनेफिट कानून 2017 में क्रेच वाला प्रावधान इसलिए बहुत प्रभावी नहीं है क्योंकि मेटरनिटी की छुट्टी का पैसा देने में कतराने वाली प्राइवेट कंपनियां क्रेच का खर्चा कहां उठाने वाली हैं. इस कानून का सबसे बड़ा पेंच भी यही है, कि छुट्टी और बाकी सुविधाओं का व्यय कौन वहन करेगा. ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, सिंगापुर जैसे कई देशों में इसकी फंडिंग का बड़ा स्रोत सरकारी होता है. इसके अलावा सरकार को इस बात का प्रोविजन भी करना चाहिए कि काम करने की जगहों या पब्लिक प्लेसेज़ में औरतों के लिए ब्रेस्टफीडिंग के लिए सही तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद हो.

एक विकल्प यह भी है कि पूरा परिवार बच्चे को संभाले. परिवार यानी पति, ससुराली, मायके वाले. घर की आर्थिक जिम्मेदारी संभालने वाली औरत की इस जिम्मेदारी को दूसरे भी संभालें. केयर वर्क और केयर जॉब्स औरतों को रोजगार बाजार से बाहर करते हैं, ऐसा कहना है इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन की 2018 की स्टडी का. यह स्टडी कहती है कि पांच साल से कम उम्र के बच्चों की माताओं की रोजगार की दर 47.6% है, जबकि इस उम्र के बच्चों के पिताओं की 87.9%. यह दुनिया भर का सच है- क्योंकि संगठन ने यह स्टडी 90 देशों में की है. तो, पिताओं और बाकी परिवारीजन को भी बेहतर संतुलन बनाने पर विचार करना चाहिए. अगर ‘मातृ शक्ति’ की पूजा करने की मर्जी है तो इसका सुख पिता और पूरा परिवार भी उठाएं. प्रशासन भी. जब तक ये सुख बाकी न उठाना शुरू करें, तब तक अर्चना जयंत की फोटो देखकर त्यौरियां चढ़ाए रहें!

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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