(Source: ECI / CVoter)
वामपंथी विचारधारा हावी हुई कांग्रेस पर, जमीनी नेताओं-कार्यकर्ताओं की नहीं सुनी जाती आवाज, ना ही मुद्दों की समझ
लोकसभा चुनाव में दो चरणों के मतदान हो चुके है. कांग्रेस इस चुनाव में कई फ्रंट पर जूझ रही है. चुनाव के बीच में ही उनके नेताओं के पार्टी छोड़ने का सिलसिला भी जारी है. पार्टी छोड़ने के साथ ही पुराने कांग्रेसी पार्टी पर ही कई आरोप भी मढ़ रहे हैं. इसी क्रम में दिल्ली में अब अरविंदर सिंह लवली ने पार्टी के सभी पदों से त्यागपत्र दे दिया है. अपने चार पन्नों के त्यागपत्र में लवली ने आम आदमी पार्टी से गठबंधन को गलत फैसला बताया है, साथ ही कन्हैया कुमार का भी जिक्र किया है. उन्होंने अपनी बात न सुने जाने और सभी फैसलों को बदले जाने का आरोप भी लगाया है.
लवली का इस्तीफा, दिल्ली का चुनाव
अरविंदर सिंह लवली की टाइमिंग को दो चरणों के चुनाव संपन्न होने से ज्यादा दिल्ली के चुनाव से जोड़कर देखना चाहिए. उन्होंने चुनाव से ठीक पहले इस्तीफा दिया है. अरविंदर सिंह लवली की पहचान और प्रभाव दिल्ली में काफी ज्यादा है. वह दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे हैं. दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार में काफी महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाल चुके हैं. कांग्रेस का काफी महत्वपूर्ण चेहरा रहे हैं. राजनीतिक घटना का प्रभाव लंबे समय तक और काफी दूर तक पड़ता है. अरविंद केजरीवाल को उभरते हुए और शीला दीक्षित को बदनाम होते हुए अरविंदर सिंह लवली ने देखा है. पहले ही दिनों से अरविंदर सिंह लवली और संदीप दीक्षित दोनों नेता आम आदमी पार्टी के खिलाफ रहे हैं. चूंकि आम आदमी पार्टी की पूरी राजनीति ही कांग्रेस और उनकी प्रिय नेत्री शीला दीक्षित के खिलाफ शुरू हुई, इसलिए लवली उसके साथ गठबंधन करने के पक्ष में नहीं थे.
शीला दीक्षित पर केजरीवाल का हमला
अरविंद केजरीवाल ने शीला दीक्षित के विकास के कामों को गलत बताते हुए ये कहा था कि अगर उनकी सरकार बनेगी तो वो उनके भ्रष्टाचार को लेकर जेल भेजने का काम करेंगे. बाद के दिनों में अरविंद केजरीवाल भले ही शीला दीक्षित से मिलने भी गए थे. इसी प्रकार से वीपी सिंह भी चुनावी सभा में एक खास तरह की शेरवानी पहनते हुए पॉकिट से एक पर्चा निकाल कर कहा करते थे कि जैसे ही उनकी सरकार बनी तो बोफोर्स के दलालों का नाम उजागर करेंगे और जेल भेजा जाएगा. ये अलग बात है कि 11 महीने उनकी सरकार भी रही और अब वीपी दुनिया में भी नहीं हैं, पर बोफोर्स के दलालों का कुछ नहीं हुआ. उसी प्रकार से अरविंद केजरीवाल ने भी शीला दीक्षित के खिलाफ अभियान चलाया. अब दिल्ली में चर्चा होने लगी है कि जिन कानून को लेकर अरविंद केजरीवाल दलील देते रहते हैं उसी कानून में रहकर शीला दीक्षित ने दिल्ली में विकास के काम किए है जबकि केंद्र में अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार भी रही थी और वह कांग्रेस की विरोधी सरकार थी.
आज उसी कानून को लेकर आए दिन केजरीवाल की सरकार से केंद्र सरकार की ठनी रहती है. शीला दीक्षित के किए गए विकास-कार्यों के सामने एक अरविंद केजरीवाल का विकास एक कंकड के जैसा है. आम आदमी पार्टी के साथ कांग्रेंस के गठबंधन पर संदीप दीक्षित और अरविंदर सिंह लवली खिलाफ थे, लेकिन ये विरोध पार्टी के अंदर ही था. इस्तीफा देने की टाइमिंग का जहां तक सवाल है तो उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दिया है, लेकिन जनता को इसका कुछ और ही संदेश गया होगा. जो कांग्रेस की घोर विरोधी आम आदमी पार्टी थी वो आज दिल्ली में चार सीटों पर चुनाव लड़ रही है और कांग्रेस गठबंधन कर के मात्र तीन सीटों पर चुनाव लड़ रही है. कांग्रेस की तो हाल खराब थी लेकिन अब आम आदमी पार्टी के चुनावी अभियान में भी इस इस्तीफे ने एक सुई चुभो दी है जिससे अब उसकी हवा निकलते जा रही है.
कन्हैया की उम्मीदवारी और कांग्रेस
दिल्ली की उत्तर पश्चिमी सीट पर जहां से भाजपा ने तीसरी बार मनोज तिवारी को चुनावी मैदान में उतारा है. कन्हैया कुमार की उम्मीदवारी जब तक तय नहीं थी तब तक माना जा रहा था कि कांग्रेस की उस सीट पर जबरदस्त टक्कर होगी. माना जा रहा था कि कांग्रेस से संदीप दीक्षित वहां से उम्मीदवार तय होंगे. जिस दिन कन्हैया कुमार वहां से उम्मीदवार घोषित हो गए वहां से चुनावी संभावनाएं काफी कम हो गई. भारत एक विशाल देश है. आम जनता कन्हैया कुमार के भाषणों से भले ही खूब प्रभावित हो, लेकिन जेएनयू में जो कन्हैया कुमार ने किया उससे दिल्ली की जनता पूरी तरफ से वाकिफ है. दिल्ली का बड़ा मतदाता वर्ग शहरी है. शहरी वोटर ग्रामीण वोटर की अपेक्षा थोड़ा अलग तरीके से सोचता है. ग्रामीण वोटर थोड़ा भावुक हो जाता है लेकिन शहरी मतदाता कई बार ज्यादा कैलकुलेशन करता है. आम वोटर सभी बातों पर समझौता कर सकता है लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दा पर समझौता नहीं कर सकता है. कन्हैया की उम्मीदवारी की घोषित होते ही कांग्रेस के लिए फिर से चिंताएं बढ़ गई है.
उ0म्मीदवारों से परिचय सेशन के समय में खुलेआम कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और नेताओं की ओर से सवाल पूछे गए और संदीप दीक्षित ने भी सवाल पूछे. राजकुमार चौहान ने भी विद्रोह कर दिया. जबकि 1993 में नांगलोई विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से राजकुमार चौहान, भाजपा से देवेंद्र शौकीन और जनता दल से डॉ. सतीश यादव चुनाव लड़े थे. उस समय तीनों ने एक दूसरे के बारे में कुछ विरोध में नहीं कहा और आज भी कोई टिप्पणी नहीं करते. उसके बावजूद राज कुमार चौहान जैसे शालीन नेता ने जब कन्हैया कुमार का विरोध किया, तो समझना चाहिए कि फांस गहरी है. अरविंदर सिंह लवली ने अपने ही नहीं बल्कि कांग्रेस के आम कार्यकर्ता के क्षोभ को भी उजागर किया है. इस फैसले के साथ कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों को झटका लगेगा.
कांग्रेस वामपंथ की शिकार
आम आदमी पार्टी की आधी कैबिनेट जेल में है. दिल्ली में चार आप को तो तीन सीट कांग्रेस को है. कांग्रेस के मुख्यालय में भी देखा जाए तो पता चलेगा कि जमीनी स्तर पर भी चुनाव को किस तरह से देखा जा रहा है. निश्चित तौर पर कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की गलती है कि वो आम कार्यकर्ता और उसके नेता जो सोच रहे हैं और उसकी धारणा की रिपोर्ट कार्यकारिणी तक नहीं पहुंच पा रही है. इसमें केंद्रीय कार्यकारिणी को हस्तक्षेप करना चाहिए. जमीनी नेता और कार्यकर्ता जमीनी मुद्दों और उसकी समस्या को ज्यादा जानता है. उस पर वो अच्छे से काम कर सकता है. कांग्रेस जो पुराना दल है और पूरे देश में संगठन का ढ़ांचा रहा है. वह इन मामलों में आकलन करने में चूक रहा है. कांग्रेस का जो शीर्ष नेतृत्व है उसके पास वामपंथी विचारधारा के लोग आ गए है. वामपंथ जमीनी मुद्दों की समझ कम रखता है और वो एक खास तरह के नैरेटिव पाल कर रखता है और उस पर ही वो काम करता है. कांग्रेस नेतृत्व फिलहाल वामपंथ के उसी मोहपास में फंसा हुआ है, और अपने जमीनी नेताओं और कार्यकर्ताओं को समझ नहीं पा रहा है. अगर उसकी कीमत चुकानी पड़े तो इसमें हैरत नहीं होनी चाहिए. उसी कीमत में से एक का नाम अरिवंदर सिंह लवली है.
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