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क्लाइमेट चेंज दूर की बात नहीं, दरवाजे पर दे रहा है दस्तक, नहीं संभले तो दंडित करती रहेगी प्रकृति

पिछले एक सप्ताह से मौसम का मिजाज कुछ ऐसा है कि लोग चौंक उठे हैं. जेठ का महीना चढ़ गया है लेकिन दिल्ली हो या लखनऊ, पटना हो या नोएडा, बेमौसम की बारिश ने गर्मी को दूर भगा दिया है. यहां तक कि राजस्थान में तीन महीनों में जितनी बारिश होती है, उतनी पिछले तीन दिनों में हो चुकी है. लोग पंखा चलाना बंद करते हैं, तब तक कड़ाके की धूप निकल आती है. जब तक कूलर ठीक करते हैं कि बारिश और ओले पड़ने लगते हैं. यह सारे लक्षण ग्लोबल वार्मिंग के हैं, ऐसा विशेषज्ञ मानते हैं और जो जलवायु-परिवर्तन बहुत दूर की बात लगती थी, वह भी अब हमारे दरवाजे पर खड़ी है.

क्लाइमेंट चेंज दूर की कौड़ी नहीं, आ चुका

ये जो हम बेमौसम बरसात, गरमी के समय ठंड हो जाना, ठंड के मौसम का टलते जाना या देर से आना, बारिश में सूखा होना वगैरह देख रहे हैं, ये सब ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज के लक्षण हैं. पूरे देश में कई जगह जहां बहुत कम वर्षा होती थी या नहीं होती थी, वहां भी खूब बारिश हो रही है. हिमालय के क्षेत्र में खासकर बद्रीनाथ, केदारनाथ और हिमाचल प्रदेश के कई हिस्सों में उम्मीद से अधिक जो बर्फबारी दिख रही है, वह तो सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन की वजह से हो रहा है. इसकी मुख्य वजह यह है कि हम लोग जो जमीन का उपयोग यानी 'लैंड यूज, लैंड कवर चेंज' हमने बदल दिया है. हिमालय क्षेत्र में जो नदियों का वाटरशेड एरिया है, वो हमलोगों ने अपने जीवनयापन के लिए नष्ट कर दिया है. इसका सीधा असर वहां के मूल निवासियों पर पड़ रहा है. जो लोग पर्यटन के उद्देश्य से वहां जा रहे हैं, उनके ऊपर भी दुष्प्रभाव पड़ रहा है.

यह जलवायु परिवर्तन 'लैंड यूज, लैंड कवर' में बदलाव की वजह से हो रहा है. फॉरेस्ट एरिया यानी वन कम हो गए, फॉरेस्ट कवर घट गया, नदियों का सिकुड़ना जारी है और वर्षाजल का हम संरक्षण कर नहीं रहे. हमें तो प्रकृति की हिस्सेदारी वापस बहाल करनी होगी न. इसका मतलब ये है कि हमें 33 फीसदी जमीन पर वन रखना ही चाहिए और खेती का इलाका जो है, वह 40 फीसदी से अधिक होना ही नहीं चाहिए. जब तक ये इकोलॉजिकल बैलेंस नहीं करेंगे, तब तक चैन नहीं मिलेगा. आधिकारिक तौर पर, सरकारी तौर पर जब तक हम जमीन का उपयोग रेखांकित नहीं करेंगे, तब तक समस्या बढ़ती जाएगी और आनेवाले समय में तो ये विकराल रूप धारण करता जाएगा.

तबाही बिल्कुल दरवाजे पर खड़ी है

अभी जो लोग 40-45 के लपेटे में हैं, उन्होंने अपनी किशोरावस्था में सुना होगा कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव 21वीं शताब्दी के अंत तक दिखेगा, लेकिन वह तो अभी ही दिख रहा है, इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में ही हो गया है. हमारा क्लाइमेट चेंज हो रहा है, धरती का तापमान जो औसत 15 डिग्री है, वह 1.5 डिग्री बढ़ चुका है, और यह बात हम वैश्विक स्तर पर कर रहे हैं. हालांकि, अगर रीजनल स्तर पर हम देखें तो कई जगह 8 से 10 डिग्री तक बढ़ गया है. इसके पीछे मानव का अतिक्रमण ही एकमात्र कारण है. हम जितना अपने नेचुरल रिसोर्स का अतिक्रमण कर रहे हैं, वहीं तबाही हमारा दरवाजा खटखटा रही है. यह किसी एक व्यक्ति या समुदाय से जुड़ी बात भी नहीं. अभी आप देखिए अगर हिमालय की ही बात करें तो बद्रीनाथ की यात्रा रुके या केदारनाथ की, नुकसान कितनों का होता है? जिन्होंने भी वहां होटल, रिसॉर्ट, गेस्ट हाउस वगैरह में निवेश किया होगा, सबका नुकसान होता है. खाद्य पदार्थों की सप्लाई चेन से लेकर लगभग ही कोई क्षेत्र बचा होगा, जो जलवायु परिवर्तन से बचा हो.

जलवायु-परिवर्तन के साथ जो प्रकृति के संरक्षण का मसला है, उसमें जनसंख्या एक अहम फैक्टर है. उस पर भी हमें गंभीरता से विचार करना होगा. यह हमारे लिए एक मौका भी है और चुनौती भी. हमारे पीएम युवावर्ग को लेकर जनसंख्या को हमेशा फायदेमंद बताते हैं, क्योंकि वह हमारा वर्किंग फोर्स है. लेकिन जनसंख्या नियंत्रण के जो नियम कायदे हैं, उस पर हमें त्वरित कार्रवाई करनी होगी. उसे जल्द से जल्द करना होगा और 2030 की डेडलाइन को भूलना होगा. हमें इस पर ठोस और बहुत त्वरित कार्रवाई करनी होगी. 2024-25 तक हमें राष्ट्रीय नीति में बदलाव लाना होगा.

बेहद तेज हुआ है जमीन का रूपांतरण

वैज्ञानिक भाषा में समझें तो मानव सभ्यता के विकास के साथ उसने वर्षाजल पर आधारित खेती के लिए थोड़ी जमीन पर खेती की, और विकास हुआ तो खेती की जमीन और बढ़ी, फिर विकास हुआ तो मानव सेटलमेंट के लिए जमीन बनाई गई, फिर और विकास हुआ तो इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट हुआ, इस तरीके से विकास हुआ. पहले इस क्रम में 400 से 500 वर्षों में होता था. आज यह केवल 4 से 5 साल में हो जाता है. अब आप सोच लीजिए कि हमने जमीन का रूपांतरण किस तेजी से किया है, फिर जमीन पर ही तो जलवायु के सारे कारक होते हैं, जैसे- नदियां, मिट्टी, पत्थर, पहाड़. यह जो लैंड डायवर्सिटी यानी विविधता थी जमीन की, वह अब मोनोटोनस यानी एकरूप हो गयी है. अब सब कुछ हमने एक तरह का बना दिया है.

हमारे देश की जनसंख्या 20 फीसदी है, दुनिया की और यह दुनिया की कुल जमीन के 2.5 फीसदी जमीन पर रहता है. सोचिए कि यह जमीन कितनी उपजाऊ, कितनी फर्टाइल है. अब जब हम 20 फीसदी हो गए हैं, जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव भी हम झेल रहे हैं, तो जल्द से जल्द हमें जनसंख्या नियंत्रण करना होगा. एक परिवार से एक बच्चा जैसी पॉलिसी को अपनाना होगा. जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को रोकने में स्वास्थ्य भी एक अहम भूमिका निभाता है. हमारे देश में स्वास्थ्य व्यवस्था का हाल बेहद लचर है. एक लाख व्यक्ति पर एक डॉक्टर की उपलब्धता बताती है कि अभी हमें इसमें कितना सुधार करना है. स्वास्थ्य का सीधा संबंध जनसंख्या वृद्धि दर से भी है.

जोशीमठ जैसी घटनाएं हिमालय क्षेत्र में लगातार होती रहती हैं. इसलिए होती रहती हैं कि हिमालय क्षेत्र जो है, वह ग्लेशियर के मलबे से बना है. जमीनी सतह के लगातार घर्षण की भी वह जगह है. टेक्टोनिक प्लेट के लगातार टकराव से भी वहां भू-स्खलन वगैरह होता है. यही वजह है कि आप देखेंगे कि हिमालय के कई शिखर बंजर हैं, वहां कोई हरियाली नहीं है. वह सलेटी रंग का है, क्योंकि वह फिनलाइट का बना है. अगर ग्लेशियर का मलबा वहां से खिसकता है, तो उसे रोकना बंद होता है. हिमालय क्षेत्र में छोटे पत्थर नीचे होते हैं और बड़े पार्टिकल्स यानी बड़े पत्थर ऊपर होते हैं. जब उसमें हम किसी भी तरह का मानवीय हस्तक्षेप करते हैं तो उसमें विकार आता है, जैसा हमने जोशीमठ में देखा था.

यह कई सारे इलाकों में होता है. तो, मानवीय स्वभाव है भूमि पर कब्जे का, अधिग्रहण का, उसे बदलना होगा. हमें वैज्ञानिक तरीके से यह देखना होगा कि कहां बसने लायक जमीन है या नहीं. जबर्दस्ती तो प्रकृति के साथ नहीं चल सकती है. निष्कर्ष रूप में इतना समझिए कि प्रकृति का जो मूल आग्रह है, वह है जमीन के उपयोग को उसके तरीके से करना. तो, प्रकृति से सामंजस्य बनाकर रखना ही उचित है. उसी हाल में हम लंबे समय तक यह पारी खेल पाएंगे.

(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)  

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