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सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बच्चियों को ताकत देगा

वैसे हमारे यहां बाल विवाह के खिलाफ भी कानून है. बाल विवाह निषेध अधिनियम के मुताबिक, शादी के लिए लड़की की उम्र कम से कम 18 साल और लड़के की 21 साल होनी चाहिए. लेकिन यह भी सच है कि देश में 47 प्रतिशत लड़कियां 18 साल और 18 प्रतिशत 15 साल से भी कम उम्र में ब्याह दी जाती हैं.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत है. फैसला यह है कि अब 15 से 18 साल की नाबालिग बीवी से जबरन संबंध बनाने पर रेप की दफा लगेगी. बीवी चाहे तो पति के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकती है. उसे रेप के केस में जेल भिजवा सकती है. अब तक तमाम फैसलों में अलग-अलग अदालतें इससे एकदम उलट फैसला सुना चुकी हैं. मतलब बीवी अगर 15 से 18 साल के बीच की है तो उससे जबरन संबंध बनाने पर पति को कानूनन जेल नहीं करवाई जा सकती. इसके पीछे आईपीसी की धारा 375 का एक अपवाद है जोकि साफ-साफ कहती है कि 15 साल से अधिक उम्र की बीवी से पति के संबंधों को हम रेप नहीं कह सकते. अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि धारा 375 का अपवाद असंवैधानिक है. बेशक, यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन है जोकि हर व्यक्ति को स्वतंत्रता और सम्मान से जीने का हक देते हैं.

 नाबालिग लड़की की असहमति भी मायने रखती है

वैसे हमारे यहां बाल विवाह के खिलाफ भी कानून है. बाल विवाह निषेध अधिनियम के मुताबिक, शादी के लिए लड़की की उम्र कम से कम 18 साल और लड़के की 21 साल होनी चाहिए. लेकिन यह भी सच है कि देश में 47 प्रतिशत लड़कियां 18 साल और 18 प्रतिशत 15 साल से भी कम उम्र में ब्याह दी जाती हैं. फिर अक्सर ब्याह से पहले लड़कियों से पूछा तक नहीं जाता, चाहे बालिग हो या नाबालिग. ऐसे में शादी के बाद के संबंधों पर लड़की की सहमति-असहमति का क्या सवाल है. अब देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा है कि नाबालिग लड़की की असहमति भी मायने रखती है. अगर वह सेक्स संबंध से इनकार करती है तो उसके फैसले का सम्मान किया जाना चाहिए. अगर मर्द इस फैसले की धज्जियां उड़ाए तो बीवी एक साल के भीतर शिकायत कर सकती है और पति को जेल की हवा खिला सकती है. यूं इसका एक मायने यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट भी यह मानता है कि शादियां लीगल उम्र से पहले कर दी जाती हैं. इसके खिलाफ कानून की कड़ाई से पालन नहीं होता. इसीलिए इससे पहले केंद्र सरकार से कहा चुका है कि वह बताए कि उसने चाइल्ड मैरिज प्रोहिबिशन ऑफिसर नियुक्त करने की दिशा में क्या काम किया है. सामाजिक ढांचे की वजह से बनना पड़ा कानून

बाल विवाह हमारे यहां बहुत कॉमन फेनोमिना है. लड़की बड़ी होने लगी तो सबसे पहले उसे ठिकाने लगाओ. कहीं बहक न जाए. लड़कियों का बहकना हमें मंजूर नहीं. जिसके साथ बहकती है, उसे पिंजड़ों में हम कैद नहीं करते- मतलब लड़के. सामाजिक ढांचा ही ऐसा बनाया हुआ है हमने. फिर हमारे अपने-अपने कानून भी हैं- हर धर्म, हर प्रदेश के अपने. हम अपनी सहूलियत से उसमें छेद करते रहते हैं. जैसे हिंदू मैरिज एक्ट को ही उठाइए. इसमें यह प्रोविजन है कि 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी हो सकती है और यह शादी अमान्य नहीं है. यह शादी तब अमान्य हो सकती है, जब लड़की-लड़का बालिग होने के बाद ऐसा करना चाहें. शरीयत का अपना कानून है. इंस्टेंट ट्रिपल तलाक पर अभी सुप्रीम कोर्ट फैसला दे चुका है. पीछे खबर आई है कि कोई मौलाना साहब कहते हैं कि निकाह के लिए लड़की की उम्र 9 साल और लड़के की 14 साल काफी है. वह यह भी मानते हैं कि इस उम्र में शादी के लिए लड़का-लड़की दोनों, शारीरिक रूप से तैयार हो जाते हैं. इन हज़रत का नाम मुफ्ती तारिक कासमी देवबंदी है.

आर्थिक आजादी के बिना दूसरी आजादियां सांस नहीं ले पाएंगी

नाबालिग बीवी से रेप के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला बच्चियों को ताकत जरूर देगा. हालांकि उस पर अमल कितना होगा, यह देखना अभी बाकी है. बीवियों के लिए पति के आगे बोलना आसान नहीं है. पति के फैसलों में हां भरने के अलावा उनके पास अधिकतर विकल्प होते ही नहीं. आर्थिक आजादी के बिना दूसरी आजादियां सांस नहीं ले पातीं. बच्चियों में इतनी हिम्मत कैसे आएगी. यूं मई में रेवाड़ी की 50 बच्चियों ने भूख हड़ताल करके, अपने स्कूल को 12वीं तक करवा कर ही दम लिया था. इसीलिए अदालत के इस फैसले से तसल्ली होती है. उम्मीद भी बनती है. कम से कम उस दिशा में बढ़ने की एक कोशिश तो है जब मैरिटल रेप को रेप कहा जाएगा. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर अपना फैसला सुरक्षित रखा है. लेकिन शादी में बलात्कार को क्रिमिनलाइज किया जाए तो अक्ल ठिकाने आए. महिला रेप विक्टिम्स की तीन श्रेणियां होती हैं

आंकड़ों के लिहाज से देखा जाए तो लगभग सभी प्रकार की सेक्सुअल हिंसा शादी के भीतर ही की जाती है. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2005-06 (इसके बाद का डेटा उपलब्ध नहीं है) का कहना है कि औरतों के साथ होने वाली यौन हिंसा में सिर्फ 2.3 परसेंट दूसरे पुरुषों द्वारा की जाती है. बाकी का हिस्सा पतियों के सिर माथे है. फिर भी हम मैरिटल रेप पर मुंह सिए बैठे हैं. कहते हैं, बेडरूम की बात बाहर क्यों लानी? यह बात और है कि लगातार इस पर कानून बनाने की मांग की जा रही है. 16 दिसंबर, 2012 को दिल्ली गैंग रेप के बाद बनी जस्टिस जे एस वर्मा कमिटी ने भी मैरिटल रेप को क्रिमिनलाइज करने का सुझाव दिया था. इसी साल जुलाई में इस संबंध में तीन एनजीओ ने यूनियन ऑफ इंडिया के खिलाफ सिविल पिटीशन दायर की थीं. पिटीशन में कहा गया था कि महिला रेप विक्टिम्स की तीन श्रेणियां होती हैं- सिंगल या तलाशुदा, सेपेरेटेड और शादीशुदा. सिर्फ तीसरी श्रेणी को कानूनी संरक्षण नहीं मिला है. मतलब बीवी को पीटना क्रिमिनल एक्ट है. उसकी हत्या करना क्रिमिनल एक्ट है. पर उसका रेप करना लीगल है.

ईरान, पाकिस्तान, सीरिया और दक्षिण सूडान सहित दुनिया के उन 36 देशों में शादी में बलात्कार को बलात्कार माना ही नहीं जाता. यह बात और है कि शादी में सेक्स संबंध से इनकार करना पति के साथ क्रुएलिटी का दूसरा नाम जरूर माना जाता है. 2014 के चेन्नई के मामले में हाई कोर्ट ने यही कहा था और तलाक की इजाजत दे दी थी. मजेदार बात है ना.. ट्रांसजेंडरों के मामले में अननेचुरल सेक्स प्रकृति की रीति के खिलाफ है. मैरिटल रेप को मान्यता देने से पारिवारिक ताना-बाना छिन्न भिन्न होता है और सेक्स से इनकार करना पति के साथ क्रूरता है. तो, बेडरूम की बातें बाहर तो आ ही रही हैं.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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