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Blog: क्या महाराष्ट्र में हुई हिंसा दलित एकजुटता का उत्प्रेरक बनेगी?

महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाले पुणे शहर से 30 किमी दूर उत्तर-पूर्व में बसे कोरेगांव भीमा नामक गांव से उठी असांस्कृतिक चिंगारी पूरे राज्य को अपनी चपेट में ले चुकी है. जाहिर है, समय के साथ यह चिंगारी तो ठंडी पड़ जाएगी, लेकिन इसकी तपिश अब पूरा देश लंबे समय तक महसूस करेगा. इसकी मुख्य वजह यह है कि दलित और सवर्ण शक्तियां अब खुल कर आमने-सामने आ गई हैं.

अभी तक होता यह था कि भारतवर्ष में बहुसंख्यक होने के बावजूद दलित अपनी खाल उधड़वाते थे, भांति-भांति का समाजार्थिक दमन और अत्याचार सहते थे, धार्मिक तिरस्कार झेलते थे, अपनी हाड़तोड़ मेहनत के फल से वंचित रहते थे और इसे नियति और पिछले जन्मों का कर्मफल मानकर खामोश रह जाते थे. लेकिन महात्मा ज्योतिबा और सावित्री बाई फुले द्वारा जलाए गए शिक्षा के चिराग और डॉ. भीमराव आम्बेडकर जैसे महापुरुष के संघर्ष ने अब उनकी आत्मा को जगा दिया है जिसके परिणामस्वरूप वे न सिर्फ सवर्ण जातियों के विरुद्ध संगठित हो रहे हैं, बल्कि परिस्थितिजन्य प्रतिकार भी करने लगे हैं.

भीमा नदी के तट पर कोरेगांव में आज से लगभग 200 साल पहले आखिरी एंग्लो-मराठा युद्ध में बाजीराव पेशवा द्वितीय की हार के 33 साल बाद 1851 में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए विजय-स्तंभ के राजनीतिक मायने उस वक्त इतने मानीखेज नहीं रहे होंगे, जितने कि आज हैं. यह स्तंभ पहली बार तब सुखियों में आया था जब दलित पुरोधा डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने 1927 में अपने आंदोलन के सिलसिले में यहां का दौरा करके इसे अंग्रेजों की तरफ से लड़े महारों की वीरता का प्रतीक बना दिया. तभी से नए साल की पहली तारीख को दलित यहां की तीर्थ-यात्रा करने लगे. पहले आगंतुकों की संख्या बहुत कम होती थी, लेकिन बीते छह-सात सालों से यह संख्या हजारों में पहुंच गई. लेकिन 2017 में ऐसा पहली बार हुआ कि नए साल की शुरुआत दलितों के साथ भयंकर हिंसा के साथ हुई!

भारिप बहुजन महासंघ के नेता और डॉ. भीमराव आम्बेडकर के पुत्र प्रकाश आम्बेडकर ने इस हिंसा का मास्टरमाइंड राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और गुरु जी के नाम से मशहूर संभाजी भिड़े (शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के अध्यक्ष) और समस्त हिंदू अघाड़ी के कर्ताधर्ता मिलिंद एकबोटे को बताया है. कहा यह भी जा रहा है कि कोरेगांव भीमा में 1 जनवरी, 2017 को दलितों के होने वाले जमावड़े को भंगित करने के लिए कथित हिंदूवादी संगठनों द्वारा दो महीने पहले से ही व्हाट्सएप पर संदेश फॉरवर्ड किए जा रहे थे. अर्थात्‌ यह हिंसा सुनियोजित थी!

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चूंकि इस बार जश्न 200 साल पूरे होने का था, इसलिए कोरेगांव भीमा में 40 हजार से ज्यादा लोग इकट्ठा हो गए. गोवंश रक्षा के नाम पर दलितों की ऊना में हुई निर्मम पिटाई के विरोध में सवर्णों की मुखालफत करने वाले विधायक जिग्नेश मेवानी और जेएनयू के छात्र उमर खालिद के अलावा अन्य दलित नेताओं ने इन लोगों को संबोधित करते हुए कुछ तीखी और वास्तविक सच्चाइयां सामने रखीं. इसका परिणाम यह हुआ कि सभा से लौट रहे लोगों पर ‘नई पेशवाई’ के प्रतीक पुरुष टूट पड़े और अगले ही दिन महाराष्ट्र जलने लगा!

दलितों की बढ़ती ताकत और उनकी लगातार बुलंद होती आवाज से घबराए सवर्ण समाज की यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही है, लेकिन कोरेगांव भीमा का झगड़ा जंगल की आग की तरह पूरे महाराष्ट्र में तत्काल पहुंचने के कई गुप्त अर्थ भी हैं. गौर करें कि महाराष्ट्र के सीएम देवेंद्र फडणवीस ब्राह्मण हैं, पेशवा भी ब्राह्मण थे. अंग्रेजों के जमाने में पेशवाओं ने सत्ता मराठाओं से छीनी थी और लोकतंत्र के जमाने में भी राज्य में हावी मराठों से सत्ता ब्राह्मणों ने छीन ली है. केंद्र में महाराष्ट्र कोटे से मंत्री बने नितिन गडकरी और प्रकाश जावड़ेकर भी ब्राह्मण ही हैं. मराठा शक्तियां महाराष्ट्र में ही राजनीतिक हाशिए पर हैं. मराठा बाहुबली शरद पवार भले ही राज्य और केंद्र की राजनीति से अब बाहर हो चुके हैं, लेकिन दलितों में तोड़फोड़ का खेल वह कई दशकों से खेल रहे हैं. सालों पहले एक बार जब दलितों के सभी धड़ों का महाराष्ट्र में महागठबंधन बना था तो शरद पवार ने रामदास आठवले को फुसलाकर अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया था.

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महाराष्ट्र में दलित पहले भी राजनीतिक इस्तेमाल की वस्तु रहे हैं. बाल ठाकरे के जमाने में शिवसेना उन्हीं के दम पर मुंबई की सांस रोक पाती थी. तोड़-फोड़ और हिंसा करने का काम भी दलित युवकों से ही लिया जाता था. लेकिन जब-जब दलितों ने सारी चाल समझकर एकजुट होने की कोशिश की, सवर्णवादी पार्टियों ने उन्हें तितरबितर कर दिया. आठवले आज बीजेपी की गोद में बैठे हैं, प्रकाश आम्बेडकर कांग्रेस का समर्थन करते हैं, नीलम गोरे शिवसेना का दामन थाम चुकी हैं और शिवसेना के ही टिकट पर पुणे से चुनाव लड़ने वाले दलित नेता-कवि नामदेव ढसाल दिवंगत हो चुके हैं. कोरेगांव भीमा स्थित विजय-स्तंभ के तले नए सिरे से एकजुट होने की कोशिश कर रहे बेरोजगार दलितों के कंधे पर बंदूक रख कर कौन चला रहा है, यह देखने वाली बात है. ब्राह्मणों की पेशवाई खत्म करने का जिम्मेदार महारों को बताकर दलितों के खिलाफ हिंसा करने वाले मराठा जातीय अस्मिता का युद्ध किस हथियार से और क्यों लड़ रहे हैं, यह भी समझने वाली बात है.

दलितों पर हुए हिंसक हमले के प्रतिकारस्वरूप इस बार भारिप बहुजन महासंघ, महाराष्ट्र डेमोक्रेटिक फ्रंट, महाराष्ट्र लेफ्ट फ्रंट समेत 250 से ज्यादा दलित संगठनों ने महाराष्ट्र बंद का समर्थन किया था. लेकिन यह एकता कब तक बरकरार रहेगी? केंद्र सरकार में शामिल रामविलास पासवान, दलितों की स्वयंभू मसीहा बनी बहन मायावती, पलटीमार उदित राज और दलित युवा तुर्क रामदास आठवले का मुंह क्यों नहीं खुल रहा? इस प्रश्न का उत्तर ही देश और महाराष्ट्र में दलित राजनीति का भविष्य तय करेगा.

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