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BLOG: दलित औरतें अपनी लड़ाई खुद लड़ रही हैं, इसके लिए उन्हें किसी की भी जरुरत नहीं

बदलाव भीतर से ही होता है. इसीलिए दलित औरते अपने साथ होने वाले अत्याचारों से इनकार रही हैं. इस लड़ाई में उन्हें किसी की जरूरत नहीं, किसी की भी नहीं.

गूगल करके देख लीजिए, रैंडमली टाइप कीजिए- दलित वुमेन. कोई न कोई खबर मिल ही जाएगी. नए साल के पहले दिन की एक खबर यह है कि बागपत में 45 साल की एक दलित महिला का गैंग रेप किया गया. ‘गलती’ यह थी कि महिला का बेटा किसी की बेटी को ‘ले उड़ा’ था. तो, ‘सजा’ तो मिलनी ही थी. पूरे कुनबे को ‘सजा’ देने का इससे मुफीद तरीका और क्या हो सकता है कि औरत को बेइज्जत कर दो.

एनसीआरबी, मतलब राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े यूं ही नहीं कहते कि दलितों पर अत्याचार के मामलों में सबसे अधिक मामले महिला उत्पीड़न के ही होते हैं. ब्यूरो की 2016 की रिपोर्ट में कहा गया है कि दलितों के खिलाफ कुल अपराधों में दलित महिलाओं के यौन शोषण, हमले, पीछा करने, छिपकर देखने और उनका शील भंग करने के मामले सबसे अधिक हैं. इस साल दलित महिलाओं पर यौन हमले के 3,172 और रेप के 2,541 मामले दर्ज किए गए.

औरतें यूं भी हाशिए पर हैं, तिस पर दलित औरतों का तो हाल और भी बदहाल है. सवाल नजरिया बदलने का है, नजरिया तो यूं है कि डेढ़ साल पहले नौवीं कक्षा की इतिहास की किताब से केरल के नादर समुदाय का चन्नार विद्रोह वाला चैप्टर ऑब्जेक्शनेबल कंटेंट कह कर हटा दिया गया. दरअसल केरल की दलित औरतों को सवर्णों के सामने अपने शरीर के ऊपरी भाग को खुला रखना पड़ता था. अपना सम्मान सवर्ण कुछ इसी तरह कराते थे. लेकिन धीरे-धीरे औरतों ने इसका विरोध किया और 1800 में विद्रोह कर दिया.

वैसे इसकी एक कोशिश अमेरिका में भी हुई थी. वहां दक्षिण एशिया के इतिहास की एक स्कूली किताब से दलित शब्द हटाने की कोशिश की गई थी, यह कहकर कि यह भारत की पॉलिटिकल पार्टियों का शिगूफा है. लेकिन साउथ इंडियन हिस्टरीज फॉर ऑल नाम के एक प्रोग्रेसिव अलायंस ने इस कोशिश को नाकाम किया. यह मामला 2016 में अदालत तक पहुंच गया था लेकिन किताब से छेड़छाड़ नहीं हो पाई. अपने यहां किताब से इस चैप्टर को हटाकर, इतिहास से आंख मूंदकर हम किसके साथ अन्याय कर रहे हैं? सभी को महसूस होना चाहिए कि सवाल यह है कि बच्चों को अपने पूर्वजों के कुकृत्यों को क्यों नहीं जानना चाहिए?

अन्याय करने का इतिहास पुराना है, और वर्तमान में भी इसी को दोहराया जा रहा है. जैसा कि एनसीआरबी के डेटा ने अगले-पिछले मिथ को उधेड़कर रख दिया. इसमें गांवों से लेकर शहरों तक, सभी जगहों पर दलितों पर अत्याचार के मामले बराबर ही बताए गए हैं. जबकि कहा यही जाता है कि शहरीकरण इन बुरे रिवाजों से हमें आजाद करता है. औरतों के साथ होने वाले अत्याचार की भी यही दशा है. अक्सर यौन हिंसा को ताकत के जातिवादी हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. यह पहले भी होता था, अब भी होता है.

यूं एनसीआरबी के डेटा असल स्थिति का जायजा नहीं ले पाते. इसमें सिर्फ वही आंकड़े होते हैं जो पुलिस थाने में दर्ज किए जाते हैं. पर कितने लोग तो शिकायत दर्ज कराते ही नहीं. फिर इन आंकड़ों को इकट्ठे करने का तरीका भी पुराना है। रेप और मर्डर साथ हो तो जघन्य अपराध, यानी मर्डर को ही इस रिकॉर्ड में शामिल किया जाता है. रेप का मामला पीछे छोड़ दिया जाता है. इस तरीके को स्टैटिस्टिकल भाषा में प्रिंसिपल ऑफेंस रूल कहा जाता है.

ऑफेंस, कई बार हम दर्ज कराने से ही चूक जाते हैं. अक्सर वे उस रूप में नजर भी नहीं आते हैं, न ही इतने थोपे ही जाते हैं. सेंटर फॉर सोशल इक्विटी एंड इन्क्लूज़न की एक स्टडी बताती है कि आर्थिक सुधारों ने पढ़ी-लिखी दलित महिलाओं की जगह निजी क्षेत्र में बनाई है लेकिन इससे उनका ऊंचा वेतन, रोजगार की सुरक्षा या कल्याण सुनिश्चित नहीं होता. स्टडी में शामिल केवल 10% दलित औरतों की इनकम हर महीने नौ हजार से अधिक थी. यह भी पाया गया कि 64% ग्रैजुएट, डिप्लोमा-सर्टिफिकेट होल्डर दलित औरतों की हर महीने की सैलरी तीन से साढ़े छह हजार के बीच है.

इसीलिए सिर्फ पढ़ा-लिखा देने भर से काम नहीं चलता, बल्कि सोच भी बदलनी पड़ती है. दलित औरतें अपनी तरफ से ही पहल कर रही हैं. पिछले महीने पुणे की सावित्रीबाई फुले यूनिवर्सिटी में दलित विमेन स्पीक आउट नाम से एक कांफ्रेंस की गई. इसे ऑल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच और क्रांति ज्योति सावित्रीबाई फुले विमेन्स स्टडीज सेंटर ने आयोजित किया था. इसमें हर राज्य की दलित औरतों ने हिस्सा लिया. एक दूसरे को अपनी भाषा में अपनी-अपनी बात बताई,. भाषा अलग होने के बावजूद भाव बना रहा क्योंकि सब एक दूसरी को समझती थीं. यह सॉलिडैरिटी- एकजुटता का भाव था. इससे पहले चलो नागपुर भी ऐसा ही अभियान था, जिसमें दलित औरतों के साथ, अल्पसंख्यक वर्ग, आदिवासी, हर जाति की औरतें जमा हुई थीं. चूंकि औरतों के साथ जाति, वर्ग, धर्म, विकलांगता, सेक्सुएलिटी और सेक्स वर्क – सभी के आधार पर भेदभाव होता है, इसीलिए यह अभियान छेड़ा गया था कि अब वे चुप रहने वाली नहीं.

बदलाव भीतर से ही होता है. इसीलिए दलित औरते अपने साथ होने वाले अत्याचारों से इनकार रही हैं. वे कह रही हैं कि संविधान ने उनसे जीवन को मानवीय और गरिमापूर्ण बनाने वाले सारे अधिकार देने का वादा किया था और इस वादे से मुकरना एक अपराध है. इस लड़ाई में उन्हें किसी की जरूरत नहीं, किसी की भी नहीं.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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