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BLOG : प्रेग्नेंसी में सलाह नहीं, सुविधा दीजिए

प्रेग्नेंट औरतों को सलाह देने वाले कम नहीं. हममें से हर कोई उनका खैरख्वाह बन जाता है. अभी पीछे आयुष मंत्रालय ने गर्भवती औरतों को संयम रखने, नॉनवेज वगैरह न खाने की सलाह दी थी. इस बीच यह खबर भी आई है कि तमिलनाडु में सरकार ने सभी प्रेग्नेंट औरतों को हेल्थ डिपार्टमेंट में अपना रजिस्ट्रेशन कराने की हिदायत दी है. ऐसा न करने पर उनके होने वाले बच्चों को बर्थ सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा. ऐसा एमएमआर को कम करने के लिए किया जा रहा है. एमएमआर मतलब मेटरनल मॉरटैलिटी रेट, यानी डिलिवरी के दौरान मौत का शिकार होने वाली औरतों का परसेंटेज. हमारे यहां एक लाख डिलीवरीज के दौरान औसतन 167 औरतें मारी जाती हैं. अधिक खून बहने, असुरक्षित गर्भपात, इंफेक्शन वगैरह के कारण. वैसे औसत का हिसाब बहुत अच्छा है. इसे निकालने के लिए सभी राज्यों के आंकड़ों को मिला दिया जाता है. ज्यादा-कम सब छिप जाता है. लेकिन सिर्फ रजिस्ट्रेशन से क्या होने वाला है... कोई क्यों यह बताना चाहेगा कि वह प्रेग्नेंट है. अपनी जान बचाने के लिए क्या हम सबको मुनादी करने की जरूरत है- हम ब्लड प्रेशर के मरीज हैं. हम भयंकर कैंसर से जूझ रहे हैं. हम एचआईवी इंफेक्टेड हैं. तो हम प्रेग्नेंट हैं- इसका ढोल पीटना हम क्यों चाहेंगे? नगाड़ा बजाने की बजाय प्रेग्नेंसी के दौरान अच्छी देखभाल मिल जाए- वही काफी है. पर इसे हासिल करना क्या आसान है. रिप्रोडक्टिव हेल्थ से जुड़े एक गैर सरकारी संगठन की स्टडी कहती है कि देश के जिला स्वास्थ्य केंद्रों में पहुंचने वाली 78 परसेंट औरतों को पैसे देकर डिलिवरी के दौरान चिकित्सा सुविधाएं हासिल करनी पड़ती हैं. बिना पैसे सब सून- जो नहीं दे पाता, मौत का शिकार होता है. डॉक्टर नहीं, दवाएं नहीं, साफ-सफाई नहीं- यहां तक कि सहानुभूति के दो बोल भी नहीं. इसी से यह रिपोर्ट एकदम दुरुस्त लगती है कि पिछले दस सालों में अस्पतालों में डिलिवरी की संख्या बढ़ने के बावजूद एमएमआर में गिरावट नहीं हो रही. होगी भी कैसे- अस्पताल में डिलीवरी कराने के लिए पहुंचने वालों को सुविधाएं कहां मिलती हैं. एक टर्म है- क्वालिटी ऑफ केयर. मतलब अब सिर्फ केयर से काम चलने वाला नहीं है. उसकी क्वालिटी भी बहुत मायने रखती है. इसे डब्ल्यूएचओ भी मान्यता देता है और क्वालिटी ऑफ केयर यानी क्यूओक्यू पर बहुत बल देता है. इसका एक अर्थ यह भी है कि जब तक क्वालिटी ऑफ केयर में सुधार नहीं होगा, तब तक एमएमआर कम नहीं होगा. यूं एमएमआर को कम करने के लिए सरकारी स्कीम भी है. 12 साल पहले इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए जननी सुरक्षा योजना यानी जेएसवाई शुरू की गई थी. इसके तहत गरीब गर्भवती औरतों को मुफ्त चिकित्सा सहायता, दवाएं, पोषक तत्व और प्रसव के बाद पूरी देखभाल का वादा किया जाता है. लेकिन इसका असर कुछ हुआ नहीं. नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के आंकड़े कहते हैं कि 2004 से 2014 के बीच अस्पतालों में की जाने वाली डिलीवरीज में 15 परसेंट का इजाफा हुआ है और घरों में होने वाली डिलिवरीज की दर में 16 परसेंट की गिरावट हुई है. लेकिन फिर भी एमएमआर में उतनी कमी नहीं हुई है, जितनी होनी चाहिए. वैसे जेएसवाई का जोर उन 10 राज्यों पर है, जहां की हालत बहुत खराब है. सरकार एलपीएस और एचपीएस नाम से दो कैटेगरी बनाती है. एलपीएस मतलब ऐसे राज्य जहां का प्रदर्शन निम्न स्तर का है. एचपीएस मतलब अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्य. तो जेएसवाई एलपीएस वाले राज्यों को खूब मदद देती है. वहां औरतों को डिलीवरी के वक्त 1,400 रुपए दिए जाते हैं- एचपीएस में 700 रुपए. इसके अलावा सरकार आशा और एएनएम जैसे हेल्थ वर्कर्स को भी अप्वाइंट करती है. लेकिन जेएसवाई का फायदा गरीब औरतों को नहीं मिल पाता. ‘हाउ इफेक्टिव इज जननी सुरक्षा योजना’ नाम की एक स्टडी में जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी की शिरीन जोशी और अनुसूया शिवराम जैसी स्कॉलर्स ने कहा है कि भारत में गरीब औरतें जागरूक हैं लेकिन फिर भी बहुत कम को सरकारी लाभ मिल पाते हैं. बात सिर्फ पैसे की नहीं है- क्या स्वास्थ्य केंद्रों में तड़पती औरत को उचित डॉक्टरी सलाह मिल पाती है? औरतों और लड़कियों के हक के लिए काम करने वाली नॉन प्रॉफिट संस्थान सीसीसी ने जब एक सर्वे में देश भर की डेढ़ लाख महिलाओं से पूछा कि हेल्थ सिस्टम से वे क्या चाहती हैं तो बहुत दिलचस्प परिणाम सामने आए.

pregnancy हर 10 में से 4 औरतों ने कहा कि उन्हें मुफ्त दवाएं, ब्लड बैंक की सुविधा, डिलिवरी के बाद देखभाल इत्यादि मिलनी चाहिए. 20 परसेंट ने कहा कि उन्हें अच्छे डॉक्टर, नर्स मिलने चाहिए. 16 परसेंट ने कहा कि हेल्थ सेंटर साफ-सुथरे होने चाहिए- खासकर टॉयलेट्स. इसके अलावा हर 10 में से 2 ने कहा कि वे चाहती हैं कि उन्हें हेल्थ वर्कर दुत्कारे नहीं. जाति या धर्म देखकर उनसे व्यवहार न करें. एक बेड पर दो मरीजों को न रखा जाए. डॉक्टर उनकी पर्सनल बातो को पर्सनल रखे. दाई, सफाई कर्मी बिना बात पैसे न मांगें. हेल्थ सेंटरों में आवारा कुत्ते न घूमें. तो, सिर्फ स्कीम बना देने से सरकारों को जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती. उन्हें अमल में लाना भी उन्हीं का काम है. वैसे हमारे यहां स्वास्थ्य पर जीडीपी का सिर्फ 1.3 परसेंट खर्च किया जाता है. यही वजह है कि एलपीएस की कैटेगरी में आने वाले कई राज्यो की एमएमआर इक्वेरोरियल गिनी, लाओस जैसे देशों के बराबर ही ठहरती है. आपको इन देशों का नाम पता है... यह नहीं पता तो कोई बात नहीं- पर इतना जानना सभी के लिए जरूरी है कि मेटरनल मॉरटैलिटी महिलाओं के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन है और बुनियादी रिप्रोडक्टिव हेल्थ सर्विस न दे पाने पर हम सरकार को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं. 4 जून, 2010 को दिल्ली हाईकोर्ट ने जैतुन अम्मा की याचिका पर यह जजमेंट दिया था. जैतुन अम्मा की बेटी को सड़क पर पेड़ के नीचे बच्चा पैदा करना पड़ा था. सिर्फ इसलिए क्योंकि उसके पास बीपीएल कार्ड नहीं था और सरकारी अस्पताल उसे भर्ती करने को तैयार नहीं था. इसके बाद जैतुन अम्मा ने गुस्से से भरकर कोर्ट में केस दायर किया था. 2016-17 का इकोनॉमिक सर्वे कहता है कि स्वास्थ्य पर कम खर्च करने का खामियाजा औरतों को ही उठाना पड़ता है. तो सरकारी सर्वे के सच को समझें और आधी आबादी को सुविधाएं दें. उनके बिना, आपका होना भी संभव नहीं है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)

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