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UP: ओबीसी की जातियों को सियासी रेवड़ी बांटने में संविधान की धज्जियां उड़ाने में भी पीछे नहीं रहतीं पार्टियां और सरकारें

OBC Reservation in UP: यूपी में 3 बार नोटिफिकेशन के ज़रिये ओबीसी की डेढ़ दर्जन जातियों को एससी कैटेगरी का कास्ट सर्टिफिकेट जारी करने का आदेश दिया जा चुका है. जबकि हाईकोर्ट इस पर नाराजगी भी जता चुका है.

OBC Politics in UP: नेता जब सत्ता में आते हैं तो कुर्सी पर बैठने से पहले संविधान का पालन और उसकी रक्षा करने की शपथ लेते हैं, लेकिन अपने सियासी फायदों के लिए कई बार वह जानबूझकर ऐसे काम करते हैं, जो संविधान की मूल भावनाओं के खिलाफ होते हैं या फिर उनसे उनके वोटबैंक में इजाफा होता है. ऐसा ही एक मामला देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का है जहां अब तक तीन बार साधारण नोटिफिकेशन के ज़रिये ओबीसी की डेढ़ दर्जन जातियों को एससी कैटेगरी का कास्ट सर्टिफिकेट जारी करने का आदेश दिया जा चुका है. जबकि हाईकोर्ट ने हर बार इस कोशिश पर नाराज़गी जताई है. 
 
मायावती को छोड़ हर पार्टी की ये कोशिश
पिछले सत्रह सालों में मायावती को छोड़कर यूपी की हरेक सरकार ने ओबीसी की जातियों को एससी में शिफ्ट करने का नोटिफिकेशन जारी किया है, हालांकि हर बार मामला हाईकोर्ट तक गया और हर बार अदालत ने सरकारोंं के इस सियासी दांव पर रोक लगा दी. हाईकोर्ट से रोक इसलिए लगी क्योंकि अनुसूचित जाति की लिस्ट में किसी भी तरह के बदलाव का अधिकार न तो केंद्र सरकार को है और न ही राज्य सरकारों को. इसमें किसी भी तरह का संशोधन सिर्फ और सिर्फ देश की संसद ही कर सकती है. संसद ही अनुसूचित जाति या जनजाति की सूची में किसी नई जाति को शामिल करने या फिर उसे बाहर करने का हक़ रखती है.

तीन बार दिया जा चुका है नोटिफिकेशन
यह हकीकत जानते हुए भी यूपी में अब तक तीन बार साधारण नोटिफिकेशन के ज़रिये ओबीसी की डेढ़ दर्जन जातियों को एससी कैटेगरी का कास्ट सर्टिफिकेट जारी करने का आदेश दिया जा चुका है. हाईकोर्ट ने हर बार सरकारों की इस कोशिश पर कड़ी फटकार लगाई है. साल 2016 में तत्कालीन अखिलेश यादव सरकार में जारी हुए दो नोटिफिकेशन पर तो हाईकोर्ट ने यूपी सरकार से जवाब भी मांग रखा है, लेकिन साढ़े पांच साल का वक़्त बीतने के बावजूद अभी तक सरकार का जवाब कोर्ट नहीं पहुंच सका है. जब संविधान में राज्यों को इस तरह के आदेश जारी करने का कोई नियम ही नहीं है तो समझा जा सकता है, कि सरकार क्या जवाब दाखिल करेगी. 
 
राजनीति को चमकाने की कोशिश
ये नोटिफिकेशन को सियासत की शतरंजी बिसात पर मोहरे की तरह इस्तेमाल की गए. ओबीसी की डेढ़ दर्जन जातियों को भले ही कोई फायदा न हो सका हो, लेकिन इस असंवैधानिक शिगूफे ने कई लोगों को राजनीति करने व चमकाने का मौका दिया. डा० संजय निषाद और ओम प्रकाश राजभर जैसे नेताओं ने न सिर्फ इसी को मुद्दा बनाकर सियासी पार्टियां बना लीं, बल्कि कैबिनेट मंत्री भी बन गए. दोनों की राजनीति चमकने का सबसे बड़ा आधार अपनी जातियों को ओबीसी से बाहर निकालकर एससी कैटेगरी में शामिल कराने के लिए संघर्ष करने का मुद्दा ही रहा.

पहली बार मुलायम सरकार में आया नोटिफिकेशन
ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग की जिन डेढ़ दर्जन जातियों को अनुसूचित वर्ग में शामिल करने की कवायद पिछले सत्रह सालों में तीन बार की जा चुकी है, उनमे मझवार, कहार, कश्यप, केवट, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धीवर, बिंद, भर, राजभर, धीमान, बाथम, तुरहा, गोड़िया, मांझी और मछुआ शामिल हैं. ओबीसी की इन जातियों को एससी यानी शेड्यूल कास्ट में शामिल करने का सबसे पहला नोटिफिकेशन साल 2005 में 10 अक्टूबर को जारी किया गया था. उस वक़्त यूपी में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी. जिसे गोरखपुर की संस्था डा० बी. आर. अम्बेडकर ग्रंथालय एवं जन कल्याण समिति ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी थी. संस्था की तरफ से हाईकोर्ट में जनहित याचिका (नंबर- 76922 /2005) दाखिल की गई.
 
मायावती ने आदेश को वापस लिया
हाईकोर्ट में जस्टिस आर के अग्रवाल और जस्टिस सरोज बाला की डिवीजन बेंच ने 20 दिसंबर 2005 को आदेश जारी कर इस नोटिफिकेशन के अमल होने पर रोक लगा दी थी और सरकार से जवाब तलब कर लिया. इस मामले में लम्बे अरसे तक सरकार का जवाब दाखिल नहीं हो सका था. इस बीच यूपी में सत्ता परिवर्तन हुआ और मायावती की सरकार हुकूमत करने लगी थी. मायावती सरकार ने मुलायम के इस आदेश को वापस ले लिया. आदेश वापस लेने की वजह से हाईकोर्ट ने 17 मई 2010 को जनहित याचिका को खारिज कर दिया.

2016 में अखिलेश यादव ने भी कोशिश
साल 2012 में यूपी की सत्ता में समाजवादी पार्टी ने एक बार फिर से वापसी की और अखिलेश यादव सीएम बने. अपना कार्यकाल ख़त्म होने से कुछ दिन पहले ही अखिलेश सरकार ने भी 21 और 22 दिसंबर 2016 को दो अलग- अलग नोटिफिकेशन जारी किये. 21 दिसंबर 2016 को जारी हुए पहले नोटिफिकेशन में अकेले मझवार जाति को ओबीसी के बजाय अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र देने का आदेश था. इसके अगले दिन 22 दिसंबर को पिछड़े वर्ग की सत्रह अन्य जातियों को अनुसूचित जाति मानते हुए उसका सर्टिफिकेट जारी किये जाने का आदेश दिया गया.
 
हाईकोर्ट ने जवाब दाखिल करने को कहा
ये नोटिफिकेशन समाज कल्याण विभाग के तत्कालीन प्रमुख सचिव मनोज सिंह की तरफ से जारी किये थे. गोरखपुर की संस्था डा० बीआर अम्बेडकर ग्रंथालय एवं जन कल्याण समिति ने इन दोनों नोटिफिकेशन के खिलाफ भी इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की. इस जनहित याचिका पर तत्कालीन चीफ जस्टिस दिलीप भोंसले और जस्टिस यशवंत वर्मा की डिवीजन बेंच ने 24 जनवरी 2017 को हुई पहली ही सुनवाई में इस आदेश पर रोक लगा दी. अदालत ने इस मामले में यूपी सरकार से जवाब तलब कर लिया. पिछले साढ़े पांच सालों में इस जनहित याचिका पर ग्यारह बार सुनवाई हो चुकी है, लेकिन लंबा अरसा बीतने के बाद भी सरकार जवाब दाखिल नहीं कर पाई है. कोर्ट इस पर नाराजगी भी जता चुका है. 

योगी सरकार में भी जारी हुआ नोटिफिकेशन
बहरहाल ओबीसी की डेढ़ दर्जन जातियों को एससी कैटेगरी में शिफ्ट करने का सियासी दांव अखिलेश यादव के काम नहीं आ सका और विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने बड़ी जीत हासिल कर सरकार बनाई. योगी आदित्यनाथ की अगुवाई वाली बीजेपी की सरकार ने भी 24 जून 2019 को नोटिफिकेशन के जरिए ओबीसी की अठारह जातियों को एससी का सर्टिफिकेट दिए जाने का आदेश जारी कर दिया. योगी सरकार ने इस नोटिफिकेशन के लिए हाईकोर्ट के 29 मार्च 2017 के आदेश का हवाला दिया. हालांकि गोरख प्रसाद नाम के एक सामाजिक कार्यकर्ता ने योगी सरकार के इस नोटिफिकेशन को भी हाईकोर्ट में चुनौती दी और कहा कि सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले की गलत व्याख्या कर मनमाने तरीके से आदेश जारी किया है.
 
हाईकोर्ट ने फिर जताई नाराजगी
जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस राजीव मिश्र की डिवीजन बेंच ने गोरख प्रसाद की याचिका (नंबर- C /27122/ 2019 ) 16 सितम्बर 2019 को सुनवाई करते हुए यूपी सरकार के आदेश पर रोक लगा दी. अदालत ने हाईकोर्ट के फैसले की गलत व्याख्या करने पर गहरी नाराज़गी भी जताई और नोटिफिकेशन जारी करने वाले प्रिंसिपल सेक्रेट्री मनोज सिंह का व्यक्तिगत हलफनामा मांग लिया. हालांकि अदालत की फटकार के बाद मनोज सिंह को हटा दिया गया और उनकी जगह दूसरे प्रिंसिपल सेक्रेट्री की नियुक्ति कर उनका हलफनामा दाखिल करा दिया गया.

कई बार हो जारी हो चुके हैं ऐसे फरमान
ऐसा नहीं है कि ओबीसी की जातियों को एससी की कैटेगरी में शामिल करने की सिर्फ यही तीन कोशिशें हुई हैं. समय-समय पर अलग-अलग सरकारें एक-एक, दो-दो जातियों को दूसरी कैटेगरी में शिफ्ट करने का फरमान जारी कर सियासी वाहवाही लूट चुकी हैं. हालांकि जानकारी में आने पर वह फरमान भी अदालत में औंधे मुंह गिर जाते हैं. अखिलेश यादव सरकार ने धनगर जाति के लिए एससी का सर्टिफिकेट जारी करने का आदेश 2013 में जारी किया था. केंद्रीय मंत्री एसपी सिंह बघेल का आगरा संसदीय और टूंडला सीट से विधानसभा का निर्वाचन इसी वजह से विवादों में आया था. दरअसल एसपी सिंह बघेल बीजेपी पिछड़ा वर्ग के अध्यक्ष थे, लेकिन उन्होंने एससी के लिए रिजर्व सीटों से चुनाव लड़ा था. हालांकि बाद में ये मामले भी हाईकोर्ट आए थे.

जानिए क्यों बदलाव करना चाहती हैं सरकारें
अब ये जानना ज़रूरी है कि आखिरकार यूपी की सरकारें ओबीसी की तमाम जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग से निकालकर अनुसूचित जाति में क्यों शामिल करना चाहती हैं. दरअसल अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी, अनुसूचित जातियों को 21 और अनुसूचित जनजाति को 2 फीसदी का आरक्षण मिला हुआ है. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बारे में माना जाता है कि उन्हें तकरीबन अपनी आबादी के अनुपात में आरक्षण मिला हुआ है, जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी करीब पचास फीसदी होने के बावजूद संवैधानिक बाध्यता के चलते सिर्फ 27 फीसदी आरक्षण ही मिला हुआ है. ऐसे में ओबीसी की जातियों को आरक्षण का पूरा फायदा नहीं मिल पाता है. इसके अलावा ओबीसी वर्ग में यादव, कुर्मी और मौर्य जातियों का दबदबा है और वह क्रीमी लेयर बनकर आरक्षण का सबसे ज़्यादा फायदा ले जाते हैं. इसी वजह से सरकारें चाहती हैं कि ओबीसी की तकरीबन डेढ़ दर्जन जातियों को एससी कैटेगरी में शामिल कराकर इन्हे आरक्षण का ज़्यादा फायदा दिलाया जाए.
 
वोटबैंक की चाहत में सियासी चाल
आरक्षण के साथ ही एससी वर्ग के दायरे में आने वालों को तमाम दूसरे फायदे भी मिलते हैं. सियासी पार्टियां चाहती हैं कि अगर ओबीसी की जातियों को अनुसूचित वर्ग में शामिल करा दिया जाए तो इन जातियों का वोट बैंक उनके साथ आकर उनकी ताकत को और मजबूत कर सकता है. ख़ास बात यह है कि यूपी में इन डेढ़ दर्जन जातियों की संख्या करीब पंद्रह से अठारह फीसदी के करीब है। एक बात और भी कि यह जातियां किसी पार्टी विशेष के साथ स्थाई तौर पर नहीं जुडी हैं. बेहतर की आस में ये जातियां अलग-अलग पार्टियों पर भरोसा करती हैं. सियासी पार्टियों को लगता है कि अगर इन जातियों का एक बड़ा वोट बैंक उनके साथ जुड़ जाएगा तो कुर्सी पर काबिज़ होने की राह और आसान हो जाएगी. यही वजह है कि कोई भी पार्टी इस फैसले का विरोध भी नहीं कर पाती है.

मायावती क्यों हैं इस मुद्दे पर अलग
हालांकि मायावती और उनकी पार्टी कभी इस खेल का हिस्सा नहीं बनी. इसकी भी अलग वजह है. दरअसल मायावती दलितों की राजनीति करती हैं. अनुसूचित वर्ग के लोग दलित समुदाय में ही आते हैं. मायावती को लगता है कि अगर अनुसूचित वर्ग में डेढ़ दर्जन नई जातियों की इंट्री हो जाएगी तो पहले से शामिल जातियों के हक़ का ही बंटवारा होगा. ऐसे में पहले से ही मौजूद अनुसूचित वर्ग की जातियां नाराज़ हो सकती है. वह इसी बात को अपने वोटरों के बीच बताकर उन्हें साधने की कोशिश करती हैं. हालांकि ओबीसी की डेढ़ दर्जन जातियों की सीधी नाराज़गी से बचने के लिए वह भी कभी खुलकर इसका विरोध नहीं कर सकीं.

क्या कहता है भारत का संविधान
अब यह जानना ज़रूरी है ओबीसी- एससी और एसटी कैटेगरी में बदलाव किस तरह हो सकता है. एससी और एसटी की सूचियां प्रेसिडेंशियल नोटिफिकेशन के ज़रिये तैयार की गई थीं, लेकिन उनमें किसी तरह के बदलाव का अधिकार सिर्फ और सिर्फ देश की संसद को है. संसद से बिल पास होने के बाद राष्ट्रपति के दस्तखत होने के बाद ही किसी तरह का बदलाव संभव है. संविधान के अनुच्छेद 341 में अनुसूचित जातियों और 342 में अनुसूचित जनजातियों की सूची में बदलाव के बारे में बताया गया है. संविधान के अनुच्छेद 341 में अनुसूचित जातियों के बारे में लिखा गया है 

संसद विधि द्वारा किसी जाति, मूलवंश या जनजाति के भाग या उसमे के यूथ को खंड (1) के अधीन निकाली गई अधिसूचना में विनिर्दिष्ट अनुसूचित जातियों की सूची में सम्मिलित कर सकेगी या उसमे से अपवर्जित कर सकेगी, किन्तु उसके सिवाय उक्त खंड के अधीन निकाली गई अधिसूचना में किसी पश्चावर्ती अधिसूचना द्वारा परिवर्तन नहीं किया जाएगा.

ख़ास बात यह है कि एससी-एसटी की जातियों की सूची अलग - अलग तैयार की गई है. जातियों को राज्य या क्षेत्र विशेष में अलग अलग वर्ग का माना जा सकता है. संशोधन के बाद उत्तर प्रदेश राज्य में अनुसूचित जाति की कैटेगरी में कुल 66 जातियां शामिल हैं. एससी-एसटी के अलावा ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग की दो सूचियां होती हैं. एक केंद्र द्वारा तैयार होती हैं और दूसरी राज्यों द्वारा. अपनी-अपनी सूचियों में दोनों को ही बदलाव का अधिकार होता है.

सरकार के पास क्या रास्ता है
एससी-एसटी सूची में बदलाव यानी जातियों को जोड़ने या निकालने के लिए राज्य सरकारें केंद्र से सिफारिश कर सकती हैं. केंद्र इस बारे में बिल लाकर उसे संसद के दोनों सदनों से पारित कराने के बाद राष्ट्रपति के पास भेज सकता है. केंद्र को प्रस्ताव भेजने की कोशिश सरकारों द्वारा अपवादों को छोड़कर कभी नहीं की जाती है. वैसे राजनीति और संविधान के जानकारों का कहना है कि राज्यों के प्रस्ताव के बावजूद केंद्र कभी भी बड़ी संख्या में जातियों को अनुसूचित जाति व जनजाति की सूची में शामिल कराने का फैसला नहीं ले सकती. जानकारों के मुताबिक़ चुनाव आयोग ने अनुसूचित जाति की आबादी के अनुपात में उनके लिए लोकसभा व विधानसभा में सीटें आरक्षित की हुई हैं.

लॉलीपोप बांटने में सब आगे
बड़ी संख्या में जातियों को शामिल करने पर आरक्षित सीटों की संख्या भी बढ़ानी पड़ेंगी और ज़्यादा सीटें रिजर्व होने से बाकी लोगों के लिए राजनीति में अवसर घटेंगे और यह सियासी रिस्क शायद ही कोई सरकार लेना चाहेगी. वैसे ओबीसी की जातियों को एससी में शामिल कराने की कोशिशों पर ज़्यादातर पार्टियां व नेता चुप्पी साधे रहते हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है कि संवैधानिक पद पर बैठकर वह जानबूझकर असंवैधानिक कोशिशें करते रहते हैं। वैसे संजय निषाद और ओम प्रकाश राजभर जैसे नेता अब भी केंद्र में कानून बनवाकर अपने समाज के लोगों को सियासी लालीपाप बाटने की कोशिश में कतई पिछड़ते हुए नहीं दिखना चाहते. 
 
संविधान विशेषज्ञ की राय
संविधान विशेषज्ञ व पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल अशोक मेहता के मुताबिक़ संविधान में जातियों के वर्गीकरण की व्यवस्था दी गई है. सरकारें व न्यायपालिका इसी के तरह फैसले ले सकती हैं. अशोक मेहता का कहना है कि एससी-एसटी की जातियों की सूची में बदलाव का अधिकार न तो केंद्र सरकार को है न राज्य सरकारों को और न ही सुप्रीम कोर्ट को. इसमें किसी तरह का बदलाव सिर्फ और सिर्फ देश की संसद ही कर सकती है. हाईकोर्ट में कई याचिकाओं पर बहस करने वाले एडवोकेट राकेश गुप्ता के मुताबिक़ सिर्फ वोट बैंक की पॉलिटिक्स के चलते सियासी पार्टियां और सरकारें जान बूझकर इस मामले में संविधान के खिलाफ फैसले लेती हैं. 
 
इससे उनकी राजनीति तो चमक जाती है. लेकिन इस तरह के कदम लोकतंत्र को कमज़ोर करते हैं. एडवोकेट और जानकार राकेश कुमार गुप्ता ने इस तरह के असंवैधनिक फैसलों को डर्टी और रांग पॉलिटिक्स का हिस्सा बताया है. वरिष्ठ पत्रकार डॉ संतोष जैन का कहना है कि जातियों को एक से दूसरे वर्ग में इस तरह से शिफ्ट किये जाने से कई दूसरी तरह के संकट सामने आ सकते हैं. उनका कहना है कि सियासत का यह शॉर्टकट फंडा अब बंद हो जाना चाहिए. संतोष जैन के मुताबिक़ इस तरह के हथकंडों से सत्ता तो हासिल की जा सकती है, लेकिन देश व लोकतंत्र का भला कतई नहीं हो सकता.
 
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