Bastar News: छत्तीसगढ़ का आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र बस्तर (Bastar) कई रोचक परंपराओं को समेटे हुए है. पूरे देश में होली के मौके पर लोग एक दूसरे को रंग-गुलाल लगाकार अपनी खुशी का इजहार करते हैं. वहीं छत्तीसगढ़ के नारायणपुर के खड़का गांव के आदिवासी समाज के लोग मंदिर में पूजा-अर्चना कर पलाश के फूलो से रंग तैयार करते है. इसके बाद पहले देवी-देवताओं को रंग चढ़ाते हैं, उसके बाद एक दूसरे को रंग लगाते हैं. होली त्योहार के मौके पर आदिवासी समाज पलाश के फूलों के रंग से अपने देवी-देवताओं के साथ होली खेलते हैं.


बस्तर के जानकार बताते हैं कि बस्तर में आदिवासी समाज शुरू से प्रकृति की पूजा करते आये हैं. नए सीजन में कोई भी फसल की पैदावार हो उसे आदिवासी समाज के लोग अपने देवी-देवताओ को चढ़ाते हैं फिर उसका उपयोग करते हैं. फागुन महीने में पलाश के फुल आ जाते हैं और आदिवासी समाज इस फूल के रंग को अपने देवी-देवताओं को चढ़ाते हैं और उनके साथ होली खेलते हैं.


जानकारों ने क्या कहा?
खड़का गांव में होली त्योहार के दिन ग्रामीण पूजा-अर्चना कर पलाश के फूलों से रंग तैयार कर एक दूसरे को लगाते हैं. जानकार शिव कुमार पांडे  बताते हैं कि 'पलाश के फूल का रंग निकाल कर ग्रामीण पहले अपने देवताओं को चढ़ाते हैं जिसे जोगानी कहते हैं, ये परंपरा करीब 500 सालों से चली आ रही है. ठीक होली के समय ही गांव में देवी-देवताओ को रंग चढ़ाने की ये परंपरा है.'


शिव कुमार पांडे ने बताया कि 'शायद ग्रामीणों की मंशा ये है कि देवी-देवता होली के रूप में न सही इसे जोगानी के रूप में मनाएं. इस तरह से आदिवासी समाज अपने देवी-देवताओ के साथ होली खेलते हैं. अक्सर शादी-विवाह के समय हल्दी और रंग खेले जाते हैं और ग्रामीण इलाकों में होली के बाद शादी-विवाह होता है.'


'आदिवासी अपनी परंपरा और सभ्यता को नहीं भूले'
इतिहासकार खेम वैष्णव ने बताया कि 'मान्यता है कि जहां भी रंगों का उपयोग होता है, वहां पहले देवी-देवताओं को अर्पण किया जाता है.देवी देवताओं के साथ जुड़े होने के कारण इसे देव होली भी कहते हैं. उनका कहना है कि बस्तर के आदिवासी समाज के द्वारा केमिकल युक्त रंग गुलाल और पेस्ट से हटकर पलाश के फूलों के रंग से ही होली खेलने की परंपरा है. होली मनाने की आधुनिकता की इस दौड़ में भी यहां के आदिवासी अपनी परंपरा और सभ्यता को नहीं भूले हैं, जो आदिवासी समाज के लिए एक अनूठी मिसाल कही जा सकती है.'



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