Iran-Israel Tensions: ईरान और इजरायल मिडिल ईस्ट के दो ऐसे मुल्क हैं, जिनके बीच तनाव और टकराव का इतिहास काफी पुराना है. गाजा में इजरायली बमबारी को लेकर लगातार दोनों के बीच जुबानी जंग चल रही थी. हालांकि, जब सीरिया की राजधानी दमिश्क में 1 अप्रैल को ईरानी दूतावास पर इजरायल के हमले में सात सैन्य अधिकारियों की मौत हुई तो ईरान के सब्र का बांध टूट गया. जवाबी कार्रवाई करते हुए ईरान ने शनिवार (13 अप्रैल) को इजरायल पर हमला बोल दिया. 


इजरायली सेना ने बताया कि शनिवार देर रात मुल्क पर हमला किया गया. ईरान की तरफ से सैकड़ों ड्रोन, बैलेस्टिक मिसाइल तथा क्रूज मिसाइलें दागी गईं. हालांकि, इजरायल ने कहा कि उसकी ओर दागी गईं 300 से ज्यादा ड्रोन और मिसाइलों में से 99 फीसदी को हवा में नेस्तनाबूद कर दिया गया. वहीं, ईरान के 'इस्लामिक रेवोल्यूशन गार्ड कॉर्प्स' (आईआरजीसी) ने कहा कि हमला खास ठिकानों को निशाना बनाकर किया गया था. 


वहीं, मिडिल ईस्ट में मची इस उथल-पुथल की वजह से भारत समेत पूरी दुनिया चिंतित है. ऐसे में आइए ये समझने की कोशिश करते हैं कि ईरान-इजरायल के बीच चल रहे तनाव का भारत पर क्या असर होगा. इसका वैश्विक अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है और दोनों देशों के रिश्तों का इतिहास क्या रहा है?  


ईरान-इजरायल के रिश्तों का कैसा रहा है इतिहास?


मिडिल ईस्ट के दोनों देशों को अक्सर ही एक-दूसरे का कट्टर दुश्मन कहा जाता है. इस दुश्मनी के केंद्र में दशकों से फिलिस्तीन का मुद्दा रहा है. हालांकि, बेहद ही कम लोगों को मालूम है कि ईरान दुनिया के उन कुछ चुनिंदा मुल्कों में शामिल था, जिसने सबसे पहले इजरायल को मान्यता दी थी. हालांकि, फिर वक्त के साथ हालात बदले और कभी दोस्त रहे ईरान-इजरायल आगे चलकर एक-दूसरे के 'खून के प्यासे' बन गए. आलम ये हो गया कि अब दोनों जंग के मुहाने पर खड़े हैं.


ईरान पर 1925 से लेकर 1979 तक शासन करने वाले पहलवी राजवंश के तहत दोनों देशों के रिश्ते काफी मधुर रहे. 1948 में इजरायल की स्थापना के बाद उसे मान्यता देने वाला ईरान दूसरा मुस्लिम-बहुल देश था. हालांकि, फिर 1951 में ईरान के प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्देघ की सरकार में रिश्ते बिगड़ने लगे, लेकिन 1953 में तख्तापलट कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा गया. उनकी जगह पश्चिमी मुल्कों के समर्थक मोहम्मद रेजा पहलवी को देश की कुर्सी पर बैठा दिया गया.  


दोनों देशों के बीच रिश्ते इतने मधुर थे कि इजरायल ने तेहरान में एक दूतावास भी खोला था. 1970 के दशक में दोनों देशों में एक-दूसरे के राजदूत भी थे. व्यापारिक रिश्ते भी बढ़ रहे थे और ईरान इजरायल को तेल भी निर्यात कर रहा था. ईरान ने इजरायल और फिर वहां से यूरोप तक तेल पहुंचाने के लिए पाइपलाइन भी स्थापित की थी. दोनों मुल्कों के बीच रक्षा और सुरक्षा सहयोग भी हो रहा था. हालांकि, फिर हालात बदलने लगे और दोनों के बीच टकराव की शुरुआत हो गई. 


इस्लामिक क्रांति ने बदला रिश्ता


दरअसल, 1979 में हुई इस्लामिक क्रांति के बाद शाह पहलवी को सत्ता से बेदखल किया गया और इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान का जन्म हुआ. क्रांति के नेता आयातुल्लाह रुहोल्लाह खामनेई एक ऐसे विचार को लेकर आए, जिसमें देश में इस्लामिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया गया. पश्चिमी मुल्कों से संबंध खत्म कर दिए गए और फिलिस्तीनियों के लिए खड़े होने की बात कही गई. तब तक इजरायल के जरिए फिलिस्तीनियों पर हो रही कार्रवाई के बारे में दुनिया को भी मालूम था. 


ईरान ने फिलिस्तीनियों पर हो रहे अत्याचार का हवाला देते हुए इजरायल के सभी संबंध तोड़ लिए. दोनों देशों के नागरिक अब एक-दूसरे के मुल्कों की यात्रा नहीं कर सकते थे. तेहरान में इजरायली दूतावास को फिलिस्तीनी दूतावास में बदल दिया गया. ईरान ने खुद को फिलिस्तीनियों के साथ खड़ा दिखाना शुरू कर दिया, जिसकी वजह से इजरायल के साथ दुश्मनी बढ़ती चली गई. वह लेबनान और सीरिया जैसे मुल्कों के जरिए इजरायल पर हमले भी करवाने लगा. यहां से ही रिश्ते बिगड़ने की शुरुआत हुई.


ईरान-इजरायल तनाव का भारत पर क्या होगा असर? 


वहीं, ईरान और इजरायल के बीच हो रही झड़प का असर भारत पर भी देखने को मिलने वाला है. भारत के दोनों ही देशों के साथ मधुर संबंध रहे हैं. यही वजह है कि ईरान के हमलों के बाद भारत ने तुरंत बयान जारी कर दोनों पक्षों से शांति बरतने की बात कही है. भारत ने कहा कि हम दोनों देशों के बीच बढ़ रही शत्रुता से चिंतित हैं. हम ईरान और इजरायल से तनाव को तत्काल कम किए जाने, संयम बरतने, हिंसा से परहेज किए जाने और कूटनीति के रास्ते पर लौटने का आग्रह करते हैं. 


ईरान में 10 हजार के करीब भारतीय नागरिक रहते हैं, जबकि इजरायल में उनकी संख्या 18 हजार के करीब है. मगर यहां बड़े पैमाने पर युद्ध छिड़ गया तो भारत के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी. भारत के लाखों नागरिक खाड़ी देशों में रहते हैं. युद्ध के हालात में उन सभी को बाहर निकालना सबसे बड़ी चुनौती होगी. नई दिल्ली की एक बड़ी चिंता ये भी है कि इसने खाड़ी के मुल्कों में इंफ्रास्ट्रक्चर पर भी काफी निवेश किया हुआ है, जिस पर युद्ध से खतरा मंडराने लगा है. 


पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली-तेहरान संबंधों का फोकस चाबहार बंदरगाह का विकास रहा है, जो पाकिस्तान में चीन फंडेड ग्वादर बंदरगाह से सिर्फ 200 किमी दूर स्थित है. युद्ध के हालात में भारत के लिए चाबहार पोर्ट को ऑपरेट करना मुश्किल हो जाएगा. वहीं, 'इंटरनेशनल नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर' (आईएनएसटीसी) भी एक बार फिर से चर्चा में आ गया है, जो भारत-रूस के लिए व्यापार का प्रमुख मार्ग है. युद्ध के चलते इस मार्ग से होने वाला व्यापार प्रभावित होगा.


आईएनएसटीसी के जरिए ईरान के रास्ते हुए मध्य एशिया और रूस के साथ व्यापार किया जा सकता है. ये स्वेज नहर के रास्ते की तुलना में सस्ता और किफायती मार्ग है. सिर्फ इतना ही नहीं, बल्कि इन दोनों देशों के बीच युद्ध की वजह से तेल की कीमतों में इजाफा हो सकता है. इसका सीधा असर भारत पर पड़ेगा, क्योंकि वह ईरान से तेल एक्सपोर्ट करता है. युद्ध से तेल की सप्लाई बाधित होगी और कीमतें बढ़ेंगी. इसकी वजह से भारत में महंगाई बढ़ सकती है.


दुनिया पर क्या होगा ईरान-इजरायल युद्ध का असर?


दोनों देशों के बीच होने वाले टकराव को लेकर दुनिया के बाकी मुल्क भी चिंतित है. इसकी सबसे बड़ी वजह खाड़ी मुल्कों से होने वाली तेल की सप्लाई है. दुनिया को चिंता सता रही है कि अगर युद्ध बड़े पैमाने पर छिड़ गया तो तेल की कीमतें आसमान पर पहुंच जाएंगी. युद्ध की संभावना होने से ही तेल की कीमतें छह महीने के सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच गई हैं. अगर बड़े पैमाने पर जंग हुई तो तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल के पार चली जाएंगीं. 


आर्थिक सुस्ती का सामना कर रही दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए ये युद्ध बड़ी तबाही ला सकता है. दुनियाभर की अर्थव्यवस्था कहीं न कहीं तेल पर ही आधारित है, जिसका मतलब है कि कीमतों में इजाफा महंगाई को बुलावा देगा. 


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