China Taiwan Latest News:  चीन और ताइवान की सेनाएं दम भर रही हैं. अंतरराष्ट्रीय मीडिया में आ रही हैं खबरों के मुताबिक चीन और ताइवान एक तरह से युद्ध की तैयारी में हैं. ये हालात अमेरिकी सीनेट की यात्रा के बाद से उपजे हैं. अमेरिका ने ऐलान भी किया है कि युद्ध के हालात में वह ताइवान को मदद से पीछे नहीं हटेगा.


साल 2022 की शुरुआत में रूस ने जब यूक्रेन के खिलाफ जंग की शुरुआत की तो अमेरिका और तमाम पश्चिमी देशों और उनके संगठन नाटो ने बड़े-बड़े दावे किए थे. लेकिन नतीजा क्या रहा? यूक्रेन बीते 5 महीने से अपने दम पर रूसी हमलों का सामना कर रहा है. हालात ये हैं कि दुनिया के बाकी तमाम देश हथियार और बाकी मदद देने में भी कतरा रहे हैं.


ताइवान में अमेरिकी सीनेट की स्पीकर नैंसी पेलोसी का हाल ही में हुआ दौरे के बाद चीन और ताइवान के बीच तनाव चरम पर पहुंच गया है. दोनों देशों की सेनाएं एक दूसरे को देख लेने की धमकी जैसी स्थिति में है. हालांकि अमेरिका का कहना है कि युद्ध की स्थिति में वह ताइवान को सैन्य मदद देने में हिचकेगा नहीं. 


चीन-ताइवान के बीच झगड़े की क्या है वजह
सबसे पहले दोनों देशों की भौगोलिक स्थिति को समझते हैं. ताइवान दक्षिण-पूर्वी चीन के तट से लगभग 160 किमी. दूर एक द्वीप है, जो चीन के शहरों फूज़ौ, क्वानझोउ और ज़ियामेन के सामने है. इस द्वीप पर कभी चीन के शाही राजवंश का शासन था. लेकिन 1895 में इसे जापान को दे दिया गया. दूसरे विश्व युद्ध में जब जापान की हार हुई तो यह द्वीप फिर चीन के कब्जे में आ गया.


लेकिन इसके बाद चीन में गृह युद्ध शुरू हुआ है और कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग ने  राष्ट्रवादी कुओमिन्तांग पार्टी के नेता च्यांग काई-शेक को हरा दिया. हार के बाद ये नेता ताइवान भाग गया. लेकिन वह यहां चुप नहीं बैठा.च्यांग काई-शेक ने ताइवान द्वीप पर चीन गणराज्य की सरकार की स्थापना की राष्ट्रपति बन गए. वह इस कुर्सी पर 1975 तक बने रहे. ये एक तरह का चीन और ताइवान का विभाजन था. लेकिन चीन ने इसे कभी मान्यता नहीं दी.


लेकिन  चीन गणराज्य (ROC) की सरकार को ताइवान में स्थानांतरित कर दिया गया और दूसरी ओर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी  ने  चीन  में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) की स्थापना की. चीन आज भी चीन गणराज्य सरकार को विद्रोही के तौर पर देखता है और हमेशा उसे अपने में कभी भी मिलाने की धमकी देता रहता है.


अमेरिका की नीति और दोगलापन
हालांकि अमेरिका 'वन चाइना' नीति की बात करता है. लेकिन वह अपने फायदे के लिए इस पर रुख तय करता है. वन चाइना पॉलिसी का मतलब है कि किसी भी देश को चीन की पीआरसी के साथ संबंध रखना है और उसको ताइवान को चीन का हिस्सा मानना होगा. लेकिन अमेरिका ने 'वन चाइना' के सिद्धांत की बात करते हुए भी ताइवान के साथ अलग से कूटनीतिक संबंध बना रखे हैं और उसे सैन्य मदद भी देता रहा है जिसमें खुफिया जानकारी भी शामिल है.  



चीन को क्या डर है?
दरअसल प्रशांत महासागर जो कि अमेरिका और एशिया को अलग करता है इसमें अमेरिका सेना की ताकत दिनों दिन बढ़ती जा रही है. यह चीन के लिए चिंता की बात है. बीते कुछ सालों में भारक- अमेरिका और आस्ट्रेलिया की नौसेनाएं इस पर अभ्यास कर चुकी हैं. चीन इस क्षेत्र में किसी की दखल बर्दाश्त नहीं करता है. 


ताइवान द्वीप इस समुद्री क्षेत्र में जापान और चीन सागर के बीच में आता है. चीन को लगता है यहां किसी और देश का दखल उसके लिए खतरा साबित हो सकता है. दूसरी ओर इसी चीन सागर के जरिए चीनी जहाज यूरोप तक माल पहुंचाते हैं. 


हालांकि शुरुआत में चीन की कोशिश शांतिपूर्ण तरीके से ताइवान पर नियंत्रण करना था लेकिन ताइवान के लोगों में खुद की पहचान और राष्ट्रवाद की भावना भी बढ़ी है और चीन के मौजूदा राष्ट्रपति शी जिनपिंग के शासनकाल में दोनों देशों के बीच बयानबाजी भी खूब हो चुकी है. 


ऐसे में कोई शांति से समाधान निकालने की बात चीन के हाथ से तो निकल चुकी है. वहीं बीते कुछ सालों में चीन की वायुसेना के फाइटर प्लेन ताइवान के एयर डिफेंस क्षेत्र में भी घुसने की कोशिश कर चुके हैं. जिससे भी तनाव बढ़ा है. हालांकि यहां ये भी समझना चाहिए कि ताइवान की सेना यूकेन की तरह कमजोर हीं है. 


भारत और ताइवान के संबंध
भारत भी एक चीन नीति के सिद्धांत को मानता है और औपचारिक कूटनीतिक संबंध नही हैं लेकिन ताइवान की राजधानी ताइपे में भारत ने कार्यालय जरूर खोल रखा है. साल 2020 में भारत ने मोदी सरकार ने गौरंगलाल दास को ताइवान में बतौर डिप्लोमैट तैनात किया है. इसी तरह नई दिल्ली में भी  ताइपे आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र है. गलवान संघर्ष के पहले भारत-ताइवान के संबंध व्यापार, वाणिज्य, संस्कृति और शिक्षा पर आधारित थे. लेकिन इसके बाद दोनों देशों के बीच संबंधों में बहुत बदलाव आए हैं. देश की सत्ता में काबिज बीजेपी के दो सांसद ताइवान के राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण समारोह में वर्चुअल मोड के जरिये शामिल हुए. इस पर चीन ने भी प्रतिक्रिया दी थी.


लेकिन अमेरिका पर कितना विश्वास
दूसरे देशों के बीच संबंधों की व्याख्या और अमल अमेरिका हमेशा अपने फायदे के हिसाब से करता रहा है. लेकिन हाल ही राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कई बार बयान दे चुके हैं कि वह ताइवान पर किसी हमले की सूरत में अमेरिका सैन्य मदद देने से नहीं हिचकेगा. अमेरिका की ओर से आ रहे ऐसे बयानों के भी कई मायने हो चुके हैं. हाल ही रूस-यूक्रेन युद्ध में अमेरिका की खासी किरकिरी हुई है. उसने धमकाया, आंखें दिखाईं और एक हद तक गिड़गिड़ाया भी लेकिन रूस ने उसकी एक न सुनी. 


अमेरिका ने भारत पर भी कई तरह का दबाव बनाया लेकिन विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी रूस को लेकर किसी भी तरह के रुख में बदलाव से इनकार कर दिया. अब अमेरिका को लगा होगा कि उसकी धमक हो रही है. अब ताइवान में अमेरिकी सीनेट की यात्रा दुनिया के देशों के संदेश देने की कोशिश हो सकती है कि मौका पड़ने पर अमेरिका कोई भी कदम उठाने से हिचकेगा नहीं. लेकिन ताइवान इस पर कितना विश्वास करे वो भी तब जब अमेरिका खुद आर्थिक मोर्चे पर जूझ रहा है. 


लेकिन चीन भी न रहे किसी गलतफहमी में
पूरी दुनिया ने देखा कि दुनिया की सबसे ताकतवर सेना का एक कमजोर देश यूक्रेन ने क्या हाल कर दिया है. ऐसा तब हुआ जब पूरी दुनिया में किसी ने भी यूक्रेन की  मदद नहीं की. शुरुआत में इसे एकतरफा लड़ाई माना जा रहा था. रूस के राष्ट्रपति पुतिन भी इसी गलतफहमी में थे. 72 दिन में यूक्रेन को सरेंडर करा देना का दावा पुतिन के लिए सिर्फ एक ख्वाब साबित हुआ. बात करें ताइवान की तो वह चीन के खिलाफ कई  सालों से तैयारी कर रहा है. उसके सैनिक गोरिल्ला युद्ध में माहिर हैं और उसने कई बार चीन के फाइटर प्लेनों को खदेड़ा है. सैन्य साजों सामान में भी ताइवान के पास कई तरह के अमेरिकी हथियार हैं.  ताइवान के पास युद्ध को लंबा खींचने के लिए यूक्रेन से कहीं ज्यादा क्षमता है. और यह स्थिति किसी भी बड़े देश के लिए आर्थिक और सामारिक हिसाब से ठीक नहीं होती है.


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