Mir Jafar Story: लोकसभा चुनाव 2024 के  तीन चरण पूरे हो चुके हैं. चौथे चरण की वोटिंग के लिए चुनाव प्रचार जोरों पर है. यूपी के बाद पश्चिम बंगाल पर पूरे देश की नजर टिकी है. यहां बीजेपी ममता बनर्जी की बादशाहत को चुनौती दे पाएगी या नहीं, ये तो 4 जून को साफ होगा, लेकिन पश्चिम बंगाल में सियासी संग्राम चरम पर है.


पश्चिम बंगाल में संग्राम की बात हो और 1757 की प्लासी की लड़ाई का जिक्र न हो ऐसा असंभव है. खासतौर पर मुर्शिदाबाद में. दरअसल, बंगाल के राजनीतिक विमर्श में मीर जाफर का नाम एक गद्दार के पर्याय के रूप में स्थापित हो चुका है. वो मीर जाफर जिसने अपने राजा का साथ छोड़कर अंग्रेजों का साथ दे दिया था. प्लासी की लडाई के 267 साल बाद भी यह नाम जिंदा है, लेकिन मीर जाफर के मौजूदा समय के उत्तराधिकारी अपने पूर्वजों के विश्वासघात से खुद को अलग और दूर ही रखते हैं.


किसी के पास नहीं है मीर जाफर की तस्वीर


टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि उसके रिपोर्टर हाल ही में मीर जाफर की विरासत को नजदीक से जानने उसके जन्मस्थान पर पहुंचे. मुर्शिदाबाद के किला निजामत में पहुंचने पर रिपोर्टर मीर जाफर के 14वें परपोते, सैयद रजा अली मिर्जा से मिला. रजा अली मिर्जा बहुत सादा जीवन जीते हैं. वह कहते हैं कि उनकी ड्रॉइंग-कम-बेडरूम की दीवार पर उनके सभी पूर्वजों की तस्वीरें हैं. यहां तक कि नवाब सिराज-उद-दौला की भी, लेकिन मीर जाफर की नहीं है. वह कहते हैं कि ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं अपने मेहमानों से अपनी बेइज्जती नहीं कराना चाहता.


'नहीं बदल सकता इतिहास की धारा'


अली मिर्जा कहते हैं कि 80 के दशक की शुरुआत में वह छोटे नवाब के नाम से जाने जाते थे, लेकिन धीरे-धीरे परिवार की प्रतिष्ठा गिरती गई. अब वह साइकिल चलाते हैं, लेकिन उन्हें शाही हाथी पर स्कूल जाना अब भी याद है. जब उनसे पूछा गया कि चुनाव के दौरान राजनीतिक गद्दार के लिए मीर जाफर का नाम व्यापक रूप से इस्तेमाल होता है, ऐसी स्थिति में क्या घृणा नहीं होती? इस सवाल के जवाब में अली मिर्जा ने कहा कि हम क्या करें? मैं अपने 14वें परदादा के नाम से जुड़ी इतिहास की धारा को नहीं बदल सकता, न ही मैं लोकप्रचलित वाक्यांश को बदल सकता हूं. छोटे नवाब के बेटे फहीम मिर्ज़ा जो  एक प्राथमिक विद्यालय में टीचर हैं और लालबाग नगर पालिका में वार्ड 10 के तृणमूल पार्षद हैं, कहते हैं कि मेरे परदादा वासिफ अली मिर्जा ने बड़े पैमाने पर मीर जाफर की बदनामी को भुनाया.


पारिवारिक कब्रिस्तान में नहीं होना चाहते दफन


सैयद रजा अली मिर्जा नहीं चाहते कि उन्हें मीर जाफर के पारिवारिक कब्रिस्तान, जाफरगंज में दफनाया जाए. वे कहते हैं कि जोड़ी किचुता कोम गाली खाई (इस तरह, मुझे कम गालियां मिलेंगी). कब्रिस्तान के एक मार्गदर्शक लालटन हुसैन ने कहा कि मीर जाफर की कब्र पर आने वाले लोग अक्सर घृणावश उस पर थूक देते थे.. फिर हम 500 रुपये का जुर्माना लेते हैं और कब्र को धोते हैं. इसके बाद वहां फूल और अगरबत्ती लगाते हैं. लालटन हुसैन को जिला राजकोष से प्रति माह 11 रुपये का वेतन मिलता है. यह राशि नवाब के दिनों से नहीं बदली है. जाफरगंज में मीर जाफर के महल के विशाल प्रवेश द्वार को अब भी नेमक हरम देउरी या गद्दार का दरवाजा कहा जाता है


क्या हुआ था प्लासी की लड़ाई में?


दरअसल, 1757 में प्लासी की लड़ाई में बंगाल में नवाब सिराज-उद-दौला के सबसे भरोसेमंद जनरलों में से एक मीर जाफर ब्रिटिश खेमे से जा मिले थे. उनकी इस गद्दारी से ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत हुई और बंगाल पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया. तभी से मीर जाफर को गद्दार कहा जाने लगा.


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