Collegium System Row: भारत में न्याय मिलने में देरी की चर्चा हमेशा से होती रही है, आलम ये है कि देश में कुल लंबित पड़े मामलों की संख्या पांच करोड़ तक पहुंचने वाली है. इसके बावजूद केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर लगातार टकराव की स्थिति बनी हुई है. दोनों तरफ से एक दूसरे पर आरोप लगाए जा रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट का तर्क है कि कोलेजियम के दिए नामों को सरकार मंजूर नहीं कर रही है, वहीं सरकार का कहना है कि कोलिजियम सिस्टम में बदलाव की जरूरत है. यहां तक कि कानून मंत्री खुलेआम बोल चुके हैं कि सरकार को इसके अधिकार मिलने चाहिए. 


पिछले करीब एक महीने से ये विवाद लगातार बढ़ रहा है और अब सरकार फ्रंट फुट पर आकर सुप्रीम कोर्ट पर सीधी टिप्पणी कर रही है. आइए इस पूरे विवाद को समझते हैं और एक्सपर्ट से जानते हैं कि आखिर कोलेजियम और जजों की नियुक्ति को लेकर इतनी तनातनी क्यों है. साथ ही ये भी समझाएंगे कि सरकार कोलेजियम में किस तरह के बदलाव चाहती है और सुप्रीम कोर्ट का इस पर क्या रुख है. 


आखिर क्यों बढ़ रहा है विवाद?
इस पूरे मामले में सबसे बड़ा सवाल यही है कि सरकार इस मामले पर लगातार विवाद को क्यों हवा देने का काम कर रही है. इसे समझने के लिए हमने संविधान के जानकार और भारत के पूर्व एएसजी केसी कौशिक से बात की. हमारे साथ इस बातचीत में उन्होंने कहा, सरकार जो कर रही है वो उसे नहीं करना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने जजमेंट दिया था, जिसमें जजों की नियुक्ति की शक्ति सरकार के बजाय कोलेजियम को दी गई थी. जब तक इस फैसले को ओवरटर्न नहीं किया जाता तब तक इस तरह की बहस बेकार है. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अगर जजमेंट दे दिया तो वो लॉ ऑफ लैंड माना जाता है. बयानबाजी करने की बजाय सरकार को इस पर कानून लाना चाहिए. आमतौर पर ऐसा ही होता है, जब सरकार सुप्रीम कोर्ट के किसी जजमेंट से सहमत नहीं होती तो संसद में कानून बनाया जाता है. 


सरकार क्यों कर रही बयानबाजी?
पूर्व एएसजी केसी कौशिक से जब हमने ये सवाल किया कि इस मामले को लेकर सरकार बयानबाजी क्यों कर रही है? तो इस पर उन्होंने बताया, सत्ता में बैठे लोग लगातार ज्युडिशिरी को हार्म करने की कोशिश करते हैं. जब से भारतीय संविधान बना है तभी से ये दिक्कत आ रही है. सरकार कानून बनाने से पहले डर रही है. सरकार को लगता है कि अगर हम दोबारा कानून लेकर आए तो कहीं सुप्रीम कोर्ट ज्युडिशियल स्क्रूटनी में फिर से इसे रद्द ना कर दे. इससे सरकार की और ज्यादा किरकिरी हो जाएगी. नियम के मुताबिक कोलेजियम किसी नाम की अगर दोबारा सिफारिश करता है तो उसे सरकार को मानना होगा, जो सरकार फिलहाल नहीं कर रही है. इसी को जस्टिफाई करने के लिए बयानबाजी की जा रही है. 


कैसे सुलझ सकता है विवाद?
संविधान एक्सपर्ट कौशिक से हमने ये भी सवाल किया कि आखिर वो कौन सा रास्ता है जिससे ये पूरा विवाद सुलझ सकता है. जिस पर जवाब देते हुए उन्होंने कहा, कोलेजियम में भी कुछ कमियां हैं जिन्हें सुधारने की जरूरत है. इस पर संविधान पीठ खुद बैठकर सुधार कर सकती है. वहीं अगर सरकार इसमें सुधार चाहती है तो सरकार दोबारा संसद में कानून पास करवा दीजिए. जिस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कानून (नेशनल जुडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन) को रद्द किया था उसमें कुछ सुधार करने के बाद दोबारा इसे सामने रखिए. सरकार ऐसा कर सकती है. फालतू की बयानबाजी से इस मसले पर कुछ हासिल नहीं होगा. आपको सिस्टम के तहत ही काम करना होगा. 


क्या है कोलेजियम सिस्टम?
कोलेजियम एक सिस्टम है जिसके तहत हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्तियां और ट्रांसफर किए जाते हैं. कोलेजेयिम में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया समेत सुप्रीम कोर्ट के कुल पांच सीनयर जज शामिल होते हैं. इसी तरह हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति की सिफारिश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस और दो सीनियर जजों का कोलेजियम करता है. अब अगर आप सोच रहे हैं कि ये सिस्टम संसद में बने किसी कानून या फिर संविधान के मुताबिक बना है तो आप गलत हैं. कोलेजियम सिस्टम को सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों से बनाया गया है. 


सरकार के पास क्या हैं अधिकार?
अब कोलेजियम सिस्टम क्या है ये तो आप समझ गए, लेकिन इसके बाद सरकार का इसमें कितना रोल है ये समझते हैं. कोलेजियम जजों के नामों की सिफारिश सरकार को भेजता है. जिसके बाद सरकार इन पर विचार करती है. इस दौरान अगर सरकार को कुछ नामों पर आपत्ति हो तो वो कोलेजियम को उन पर पुनर्विचार करने को कह सकती है. हालांकि अगर उन नामों की सिफारिश कोलेजियम दोबारा करता है तो सरकार को उन्हें स्वीकार करना होगा. यानी सरकार का काम सिर्फ सुझाव देना है. इसी के चलते सरकार उन नामों पर अपना जवाब देने में देरी करती है, जिनकी नियुक्ति पर उसे ऐतराज है. यही वजह है कि सरकार अब इस सिस्टम को बदलने की बात कर रही है. 


कैसे बढ़ा पूरा विवाद
कोलेजियम सिस्टम पर सरकारें धीमी आवाज में यूं तो कई बार सवाल उठाती आई हैं, लेकिन इस बार विवाद खुलकर सामने आ गया. दरअसल कोलेजियम की तरफ से दिए गए 21 नामों में से केंद्र सरकार ने 19 नाम वापस भेज दिए, यानी इन सभी नामों पर केंद्र को आपत्ति थी. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इनमें से 10 नामों की सिफारिश दोबारा सरकार को भेजी, जिसे स्वीकार करने के लिए सरकार बाध्य है. इस पर सरकार ने कोई भी जवाब नहीं दिया, यानी नियुक्तियां अधर में लटक गईं. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताई और कहा कि "कॉलेजियम लॉ ऑफ द लैंड है , इसका पालन होना चाहिए." 


इसके बाद उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की तरफ से बयान सामने आया, जिसमें उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल ज्युडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन को रद्द कर दिया और इस पर चर्चा भी नहीं हुई... ये हैरान करने वाली बात है. उन्होंने कहा कि संसद से पारित हुआ कानून लोगों की इच्छा को दर्शाता है, इसके बावजूद इसे रद्द कर दिया गया. उपराष्ट्रपति के बाद कानून मंत्री किरेन रिजिजू इस मामले पर खुलकर बयानबाजी कर रहे हैं. उन्होंने संसद में सीधा कहा है कि कोलेजियम सिस्टम में बदलाव होना जरूरी है, क्योंकि सरकार के पास नियुक्ति के अधिकार होने चाहिए. हमारा देश संविधान से चलता है और लोगों की भावनाओं से चलता है, लेकिन इसके मुताबिक काम नहीं हो रहा है.


क्या बदलाव चाहती है सरकार? 
अब आखिरी सवाल ये है कि सरकार कोलेजियम में क्या बदलाव करना चाहती है. सरकार का तर्क है कि कोलेजियम के उस सिस्टम में बदलाव किया जाए, जिसके तहत जजों के फैसले को मानने के लिए सरकार बाध्य है. सरकार का कहना है कि उनके पास भी जजों को नियुक्त करने के अधिकार होने चाहिए. सरकार उसी व्यवस्था को लागू करना चाहती है जो 1993 से पहले थी. तब राष्ट्रपति जजों से परामर्श के बाद जजों की नियुक्ति करते थे, लेकिन आखिरी फैसले राष्ट्रपति को ही लेना होता था. हालांकि इसके बाद 1993 में सुप्रीम कोर्ट का दूसरा फैसला आया, जिसमें ये तय हो गया कि आखिरी फैसला जजों का ही होगा. जजों का समूह जिन नामों की नियुक्ति चाहेगा राष्ट्रपति उन्हें ही नियुक्त करेंगे. इसके बाद कोलेजियम की व्यवस्था शुरू हुई. 


संसद में नेशनल ज्युडिशियल कमीशन बिल का विरोध
संसद के शीतकालीन सत्र में सीपीआई (एम) के सांसद ने राज्यसभा में नेशनल ज्युडिशियल कमीशन से जुड़ा एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया. जिसका विपक्षी दलों ने विरोध किया. आम आदमी पार्टी के सांसद राघव चड्ढा ने इसका विरोध करते हुए कहा, “NJAC का कॉन्सेप्ट पहले भी करीब तीन बार सुप्रीम कोर्ट के सामने आया है. पहली बार 1993 में, दूसरी बार 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी जी सरकार में और तीसरी बार 2016 में, तीनों बार सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को तवज्जो देते हुए NJAC के फ्रेमवर्क को खारिज कर दिया.” उन्होंने कहा कि जजों की नियुक्ति का सिस्टम अच्छा चल रहा है, इसमें संवाद से बदलाव किया जा सकता है. हमें ऐसी कोई भी ताकत केंद्र सरकार को नहीं देनी चाहिए, जिसमें वो जजों की नियुक्ति में घुसें. जैसे सीबीआई और ईडी डायरेक्टर की नियुक्ति में होता है, वैसे ही ये ज्युडिशियल अपॉइंटमेंट में भी घुसना चाहते हैं. 


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