Ram Manohar Lohia Supported UCC: "मेरी विचारधारा मैं समझता हूं, समान नागरिक संहिता देशहित में है और देश दल से, चुनावों से बड़ा है." 90 के दशक के बाद जन्म लेने वाली नई पीढ़ी जिसने सामाजिक मूल्यों के हर पहलू में गिरावट देखी है, वह किसी राजनेता के मुंह से ऐसे बयानों की कल्पना शायद ही करें. यह बयान राम मनोहर लोहिया ने उस दौर में दिया, जब पंडित जवाहरलाल नेहरू राजनीति के पटल पर छाए हुए थे.


वह कांग्रेस का स्वर्णिम दौर था, जब स्वतंत्रता संग्राम में तपकर निकली कांग्रेस और महात्मा गांधी के विश्वासपात्र नेहरू सत्ता में थे और किसी को उम्मीद नहीं थी कि कोई उन्हें चुनौती दे सकता है. तब राम मनोहर लोहिया थे, जिन्होंने सामाजिक सरोकार के मुद्दे पर "पन्द्रह आने बनाम तीन आने" की बहस शुरू की, जिसके सामने नेहरू को भी घुटने टेकने पड़े.


जन सरोकारों से जुड़ी बहस में आज तक की शानदार बहस "तीन आने की बहस" मानी जाती है. अपनी तमाम उम्र क्रांति के पक्षधर रहे राम मनोहर लोहिया महात्मा गांधी की तरह ही अहिंसक रक्तहीन आंदोलन के जरिए बदलाव के पुरोधा थे. आज 12 अक्टूबर को उनकी पुण्यतिथि है.


गैर कांग्रेसवाद के शिल्पी थे लोहिया


आजादी के तुरंत बाद 60 के दशक में देश में गैर-कांग्रेसवाद की अलख जगाने वाले स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया आजादी की शुरुआत के साथ ही देश में समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड) के पक्षधर थे. वह चाहते थे कि दुनियाभर के सोशलिस्ट एकजुट होकर मजबूत मंच बनाएं.


लोहिया भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के शिल्पी थे और उनके अथक प्रयासों का ही फल था कि 1967 में कई राज्यों में कांग्रेस की पराजय हुई. हालांकि लोहिया 12 अक्टूबर 1967 में ही चल बसे, लेकिन उन्होंने गैर कांग्रेसवाद की जो विचारधारा चलाई, उसी की वजह से आगे चलकर 1977 में पहली बार केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकारी बनी.  


परिवारवाद के धुर विरोधी 


23 मार्च 1910 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जनपद में (वर्तमान-आंबेडकर नगर जनपद) अकबरपुर नामक गांव में जन्मे राम मनोहर लोहिया ने समान नागरिक संहिता पर ऐसा स्टैंड लिया था, जो उनकी पार्टी के लिए भी चिंता का सबब बन गया था. उनकी पुण्यतिथि पर आज सिलसिलेवार तरीके से बात करते हैं राष्ट्र प्रथम की उस राजनीतिक विचारधारा की, जिसने देश में अधिनायकवाद, परिवारवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकतंत्र की आत्मा को झकझोर कर जगा दिया था.


UCC से देश में सियासी हलचल


वर्तमान में केंद्र सरकार ने समान नागरिक संहिता की आहट देकर देश में सियासी भूचाल ला दिया है. देश का मुस्लिम तबका और विपक्षी सियासी दल इसके विरोध में उतर गए हैं. इसमें बड़ा नाम लालू यादव, नीतीश कुमार, अखिलेश यादव जैसे उन समाजवादियों का है, जो लोहियावादी विचारधारा से प्रेरित हैं, लेकिन खुद राम मनोहर लोहिया समान नागरिक संहिता के प्रबल पैरोकार थे.


1967 के लोकसभा चुनाव के समय जब लोहिया अकेले विपक्ष में थे और उनकी तूती बोलती थी, तब एक पत्रकार ने उनसे समान नागरिक संहिता पर सवाल पूछा था और उन्होंने भी जवाब देने में देरी नहीं लगाई. उन्होंने कह दिया था कि देश हित में समान नागरिक संहिता लागू करना जरूरी है. दूसरे दिन सभी प्रमुख अखबारों की सुर्खियां उनका यही बयान थीं. इसी वजह से उनकी पार्टी की टेंशन भी बढ़ गई थी.


राजनीति को मानते थे समाज सेवा का जरिया, UCC पर झुकने को तैयार नहीं हुए


डॉ. राम मनोहर लोहिया राजनीति को समाज सेवा का माध्यम मानते थे. राजनीति में विचार व सिद्धांत को सर्वोपरि मानने वाले डॉ. लोहिया ने अपने पूरे जीवन में कभी भी राजनीतिक लाभ के लिए अपनी विचारधारा से समझौता नहीं किया. 1967 में डॉ राम मनोहर लोहिया संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के नेता थे.


कन्नौज सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे. तब विधान सभा व लोक सभा दोनों के चुनाव साथ-साथ हो रहे थे. उसके पहले डॉ. लोहिया 1967 में फर्रुखाबाद लोकसभा सीट से उपचुनाव में विजयी होकर प्रथम बार सांसद बने थे. तब सदन में भी डॉ. लोहिया समान नागरिक संहिता को लागू करने की आवाज उठाया करते थे. 


1967 में कही थी बड़ी बात


इलाहाबाद में 1967 के चुनावों में डॉ. लोहिया को एक विशाल चुनावी सभा को संबोधित करना था. संसोपा के उम्मीदवारों का मानना था कि डॉ. लोहिया का सभा में समान नागरिक संहिता का समर्थन करना उनके चुनावों में प्रतिकूल असर डालेगा. डॉ. लोहिया सड़क मार्ग से प्रतापगढ़ से इलाहाबाद जा रहे थे. समाजवादी नेता सत्य प्रकाश मालवीय ने गंगा पर फाफामऊ बाजार में डॉ. लोहिया का स्वागत किया और उनके साथ कार में ही बैठ गए. कार में कैप्टेन अब्बास अली भी थे.


मालवीय ने समान नागरिकता पर उनके विचार से होने वाले संभावित चुनावी नुकसान के बारे में बात की. तब डॉ. लोहिया ने कहा, ''तुम चाहो तो मुझे मीटिंग में मत ले जाओ, लेकिन मीटिंग में यदि मुझसे प्रश्न पूछा गया या किसी ने वहां इस विषय पर चर्चा की, तो वही उत्तर दूंगा जो मेरी राय है, मेरी विचारधारा है. मैं वोट के लिए विचारधारा नहीं बदला करता, भले ही मैं हार जाऊं, पार्टी के सभी उम्मीदवार हार जाएं, मेरी विचारधारा मैं समझता हूं. यह देश हित में है और देश दल से, चुनावों से बड़ा है."


कैप्टन अब्बास अली ने अपनी आत्मकथा लिखी है 'ना रहूं किसी का दस्तनिगर'. अपनी इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि लोहिया ने चौथे आम चुनाव की तैयारियों के बीच ही समान सिविल कोड बनाने का ऐलान कर दिया और पूरे भारत का दौरा करके राजनीतिक बदलाव लाने की बात शुरू कर दी थी. हालांकि कन्नौज के चुनाव में उन्हें मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन नहीं मिला, लेकिन महज 400 वोटों के अंतर से वह जीतने में कामयाब रहे.


जिंदा कौमें 5 साल इंतजार नहीं करती
भारतीय राजनीति का वो स्वर्णिम दौर रहा होगा, जब अकेले लोहिया पूरा विपक्ष थे. लोहिया कहा करते थे कि अगर आप बदलाव चाहते हैं तो सड़कों पर आइए, 5 साल तक सरकार के भरोसे बैठने से कुछ नहीं होने वाला. वह कहते थे, "इन्सान जिन्दा कौम है और जिन्दा कौमें 5 साल तक इन्तजार नहीं किया करतीं”. 


आजादी के बाद से सड़क पर अंग्रेजी विरोध का आंदोलन हो या फिर संसद में तीन आने बनाम पन्द्रह आने की बहस, लोहिया का लोहा पूरे देश ने माना था. आज पुण्यतिथि पर एबीपी न्यूज़ इस विशेष स्टोरी के जरिए उन्हें श्रद्धांजलि देता है.


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