Kota Suicide Case: कोरोना महामारी जब चरम पर थी तब देश में नेशनल एजुकेशन पॉलिसी आई. इस पॉलिसी में कोचिंग कल्चर की आलोचना की गई थी. वही कोचिंग कल्चर राजस्थान के कोटा में स्टूडेंट्स की जान ले रहा है. अकेले कोटा में इस साल अगस्त तक 23 बच्चों ने खुद को मौत के हवाले कर दिया. अब सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर क्यों बच्चे ऐसा कदम उठा रहे हैं. इसके पीछे आखिर क्या कारण है. 


साल 2020 के मिड में आई नेशनल एजुकेशन पॉलिसी में कहा गया था कि कोचिंग कल्चर पर लगाम लगाने के लिए करिकुलम और एग्जाम सिस्टम में व्यापक सुधार किए जाएंगे, लेकिन कोटा के हाल से साफ है कि इस ओर कोई खास कदम नहीं उठाए गए. आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं. अगर इंजीनियरिंग और मेडिकल के करिकुलम और एक्जाम सिस्टम में बदलाव होते तो उसका असर कोटा की कोचिंग फैक्ट्रीज पर देखने को मिलता, लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहते हैं. 


अगर आंकड़ों की बात करें तो इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक कोटा में 4 हजार होस्टल्स और 40 हजार पेइंग गेस्ट हैं. इन ठिकानों में देशभर से आए 2 लाख से ज़्यादा बच्चे रहते हैं. ये बच्चे जॉइंट एंट्रेंस एग्जाम यानी JEE और NEET की रेस का हिस्सा होते हैं. 


7 महीने में 23 बच्चों ने किया सुसाइड


पढ़ाई की रेस में लगे युवा उम्मीदवारों में से 23 ने इस साल अगस्त तक जान दे दी. छात्रों की आत्महत्या के मामले में ये पिछले 8 सालों का सबसे बड़ा आंकड़ा है. किसी कदम का कैसा असर होता है उसको समझने का सबसे लेटेस्ट एग्जाम्पल है सीयूईटी यानी कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट. मामला डीयू जैसी यूनिवर्सिटीज का है. डीयू में पहले मेरिट बेसिस पर एडमिशन मिलता था. ऐसे एडमिशन के मामले में सीबीएसई बोर्ड वाले आगे निकल जाते थे और स्टेट बोर्ड वाले मार खा जाता थे. माना यही जाता है कि सीबीएसई की तुलना में स्टेट बोर्ड काफी कम नंबर देते हैं. 


कोचिंग कल्चर पर लगाम की जरूरत 


ऐसे में सामने आई कोचिंग सेंटर्स की भरमार. जैसे ही ये टेस्ट अनाउंस हुआ वैसे ही दिल्ली समेत देश के कोन-कोने में इसके कोचिंग सेंटर्स के एड दिखने लगे. इससे साफ था कि भले ही सीयूईटी से लेकर एनईपी तक सरकार की नीयत कोचिंगों पर लगाम लगाने की रही हो, लेकिन ऐसा करने में वो सफल नहीं रही. करिकुलम और एक्जाम सिस्टम को अभी भी इस हिसाब से डिजाइन नहीं किया जा रहा, जिससे कोचिंग कल्चर पर लगाम लगे.


बच्चों की स्कूल फीस पर खर्च हो रहा मोटा पैसा


मिडिल क्लास से लोअर मिडिल क्लास तक अपनी सैलरी का मोटा हिस्सा बच्चों की स्कूलिंग पर खर्च कर रहे हैं. मीडिया अर्गेनाइज़ेशन मिंट ने एक स्टोरी की. स्टोरी में ये पता लगाया कि दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और इंदौर जैसे शहरों में बच्चों के लालन-पालन में कितना खर्च आता है. इसमें ये निकल कर सामने आया कि मुंबई जैसे शहर में 8 साल के एक बच्चे पर सालाना दो लाख 8 हजार का खर्च आता है. इसमें अकेले स्कूल फीस 1 लाख 76 हजार है.


दिल्ली में 6 साल के एक बच्चे पर खर्च 3 लाख 19 हजार का है. यहां स्कूल फीस 1 लाख 56 हज़ार की बैठती है. इंदौर के मामले में 13 और पांच साल के दो बच्चों को सैंपल के तौर पर लिया गया. इनपर 4 लाख 30 हज़ार का खर्च आता है और इनकी स्कूल फीस डेढ़ लाख के करीब बैठती है. वहीं, बेंगलुरू में साढ़े पांच साल के बच्चे पर सालाना साढ़े तीन लाख का खर्च आता है, जिसमें स्कूल फीस 80 हजार होती है. 


कोटा में होने वाले टेस्ट में 2 महीने की पाबंदी 


एक बच्चे का आधे से ज्यादा समय केवल स्कूल में निकल जाता है. इसके बाद वह ट्यूशन या कोचिंग में पिसता है. फिर स्कूल और ट्यूशन में मिली एक्टिवीटीज में लग जाता है. ऐसे में अगर कोई सी भी चीज थोड़ी भी इधर-उधर हो जाए तो न जाने उसके मेंटल हेल्थ पर क्या असर पड़ता होगा. वो भी उस दौर में जब अचीवमेंट्स को सोशल मीडिया पर सेलिब्रेट किया जाता है. लाइक्स और कमेंट्स वाले सेलिब्रेशन का भी बच्चों के दिमाग पर जो असर पड़ता है, शायद ही उसकी कोई मैपिंग हुई हो. हालांकि एक बात तय है कि मौजूदा कोचिंग सिस्टम का स्टूडेंट्स के दिमाग पर तगड़ा असर है. शायद इसी वजह से 23 बच्चों की मौतों की वजह से कोटा के कोचिंग सेंटर्स में होने वाले टेस्ट और एग्जाम पर दो महीने के लिए पाबंदी लगा दी गई है. ये पाबंदी डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन ने लगाई है.


इस तरह का बैन जरूरी भी है. बच्चों को डॉक्टर इंजीनियर बनाने के प्रेशर में घर वाले 13-14 उम्र में ही अपने से दूर करके कोटा की कोचिंग फैक्ट्री में मजदूरी करने भेज देते हैं, जबकि जेईई-नीट की परीक्षाएं 12वीं के बाद होती हैं, लेकिन स्कूलिंग छुड़वाकर, अटेंडेंस के मामले में तिकड़म लगाकर बच्चों को कोटा फैक्ट्री का मजदूर बना दिया जाता है. छोटी उम्र में परिवार से दूर एक नीरस से शहर में ये बच्चे जब कोचिंग सेंटर्स में एडमिशन लेते हैं तब इन्हें कंपार्टमेंटलाइज कर दिया जाता है. 


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