नई दिल्ली: देश के सर्वोच्च पद पर रामनाथ कोविंद के आसीन होते ही 2014 में हुआ सत्ता परिवर्तन, व्यवस्था परिर्वतन की परिणिति तक पहुंच गया है. इसी के साथ देश को 'कांग्रेस मुक्त' करने का संकल्प लिए राजनीति में उतरी 'मोदी-शाह' की जोड़ी ने एक अहम पड़ाव भी पा लिया है. उपराष्ट्रपति पद के चुनाव के साथ भारतीय राजनीति के साठ दशक में यह पहला मौक़ा होगा जब देश के तीन प्रमुख पदों पर ग़ैर कांग्रेसी राजनीति से आए व्यक्तित्व क़ाबिज़ होंगे. इससे भी बड़ी बात कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के साथ-साथ लोकसभा अध्यक्ष के पदों पर खांटी संघ या बीजेपी की प्रष्ठभूमि के चेहरे आसीन हो रहे हैं. उपराष्ट्रपति का फ़ैसला अभी आना है, लेकिन नतीजे सबको मालूम हैं.  बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू का उपराष्ट्रपति बना तय है. इस तरह से देखा जाए तो पीएम से इतर संसद के तीनों अंगों लोकसभा, राज्यसभा व राष्ट्रपति भवन तीनों जगहों पर बीजेपी के चेहरे आसीन हो रहे हैं.


संसद के सेंट्रल हॉल में लगे 'भारत माता की जय' और 'जय श्रीराम' के नारे
इसका पहला असर तो अब केंद्र की मोदी सरकार के फ़ैसलों पर दिखाई पड़ सकता है. तमाम जटिल समझे जाने वाले मुद्दों की तरफ़ मोदी सरकार आगे बढ़ती दिखाई पड़ सकती है. वास्तव में अब जबकि अपनी सरकार ही नहीं, बल्कि पूरी व्यवस्था ही बाजेपा अपने सांचे में ढाल चुकी है,  ऐसे में विचारधारा से जुड़े मुद्दों से भागना उसके लिए आसान भी नहीं होगा. कोविंद के राष्ट्रपति बनने पर संसद के सेंट्रल हॉल में -भारत माता की जय- और जय श्रीराम का उद्घोष जिस बुलंदी से हुआ.  उसके पीछे संघ और बीजेपी परिवार के क़रीब विषयों जैसे समान नागरिक संहिता, अनुच्छेद 370 या राम मंदिर जैसे मुद्दों के पूरा होने की प्रत्याशा निश्चित तौर पर परिलक्षित होती है.


आक्रामक तेवरों वाली सरकार और बीजेपी के लिए कांग्रेस को रहना होगा तैयार
वहीं, राज्यों से सफ़ाये की ओर अग्रसर कांग्रेस के लिए केंद्र में उपजा यह शून्य निसंदेह मनोबल को तोड़ने वाला होगा. अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए जब विवादों में घिरे नेशनल हेरल्ड की लांचिंग के लिए प्रणब दा को बुला कर कांग्रेस ने सत्तासीन बीजेपी को मुंह चिढ़ाया था. ज़ाहिर है बदली परिस्थितियों में अब यह सम्भव नहीं होगा. साथ ही इन बदली हुई परिस्थितियों में कांग्रेस को और अधिक आक्रामक तेवरों वाली सरकार और बीजेपी का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा. बोफ़ोर्स केस की पुनर्वापसी इसकी बानगी भर है.


गुजरात-हिमांचल समेत कई राज्यों में होने वाले चुनाव तय करेंगे बहुत कुछ
राज्यों में सिमटती और जेडीयू जैसे साथियों से बढ़ती दूरी पार्टी के संकटमय भविष्य की तस्वीर सामने दिखा रही है. वहीं, देश की आज़ादी से बहुत पहले राष्ट्रीयता की अपनी अवधारणा को लेकर वैचारिक संघर्ष कर रहे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके राजनीतिक संगठन बीजेपी के लिए अंतिम विजय का समय मानो आन पहुंचा है. जल्द ही, गुजरात हिमांचल सहित कुछ राज्यों में चुनाव होने हैं,  यदि एक बार अमित शाह बीजेपी को विजय की दहलीज पर ले जाने में कामयाब रहते हैं, तो निसंदेह विपक्ष का रहा सहा कसबल भी जाता रहेगा.


बिहार में लालू यादव सत्ता में साझेदार होते हुए भी हाशिए पर खड़े हैं
आक्रामक बीजेपी क्या कर सकती है.  इसकी बानगी बिहार में बनी परिस्थिति से समझी जा सकती है. कभी बीजेपी के सबसे मुखर विरोधी रहे लालू यादव सत्ता में साझेदार होते हुए हाशिए पर खड़े हैं. वही, गुजरात चुनाव से पहले राज्यसभा चुनावों में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव की सीट पर नज़र गड़ा के बीजेपी ने यह बता दिया है कि वह विरोधियों  को अपने समय और चुने अवसर पर घेर सकती है. राजनीतिक लिहाज़ से यह ऐसी स्थिति है जिसे अब तक कांग्रेस से जोड़कर देखा जाता था. जिसे नेहरू ने लोकप्रियता तो इंदिरा ने कठोर प्रशासक की छवि के साथ राजनीतिक बेरहमी से इस्तेमाल किया. यह सत्ता के साथ व्यवस्था परिवर्तन का सबसे बड़ा उपमान बनकर उभरा है. वास्तव में राज्यों में सत्ता परिवर्तन अगर बीजेपी के लिए व्यवस्था परिवर्तन का मार्ग था, तो देश के शीर्ष पदों पर पार्टी विचारधारा के लोगों का क़ाबिज़ होना अंतिम पड़ाव.