अजीब तर्क है कि एक लड़की बचपन से जींस/पतलून पहनती रही और ऑल-गर्ल्स स्कूल में पढ़ी तो बड़ी होकर लेस्बियन हो गई. फिर इसी तर्क से क्या कोई लड़का लड़कपन से पैजामा/शलवार पहने और ऑल बॉय्ज स्कूल में पढ़े तो बड़ा होकर गे हो जाएगा? लेखक-निर्देशक हरीश व्यास का रोमांटिक ड्रामा ‘हम भी अकेले तुम भी अकेले’ लड़की के पतलून पहनने के मुद्दे से शुरू होकर, देसी समलैंगिक समुदाय के तर्कों और परिवार में संघर्ष को दिखाने की कोशिश करता है. मगर असर पैदा नहीं करता. व्यास की दिमागी कसरत का ऊंट किसी करवट नहीं बैठता और अंत में चित लेट जाता है. उनकी कहानी में नई पीढ़ी के उन युवाओं का कनफ्यूजन है, जिन्हें नहीं पता कि वह ‘कौन’ है? प्रसिद्ध सूफी संत बुल्ले शाह के प्रसिद्ध गीत ‘बुल्ला की जाणा मैं कोण...’ का हरीश व्यास ने बेहद बाजारू ढंग से इस्तेमाल किया है. इसकी आध्यात्मिकता पर वह यहां गे-लेस्बियन विमर्श पोत देते हैं.




गुजरी सदी ने जाते-जाते बॉलीवुड को समलैंगिकता का नया विषय दिया था, जिस पर खूब बात हो रही है. किताबों लिखी जा रही हैं. सिनेमा बन रहा है. समाज के दायरों से अदालत की सीढ़ियों तक बहस जारी है और अंतिम निष्कर्ष सामने नहीं है. डिज्नी हॉटस्टार पर रिलीज हुई यह फिल्म इसी बहस की एक कड़ी है. जिसका नायक वीर (अंशुमान झा) लड़की को सगाई की अंगूठी पहनाने से पहले घर से भाग निकलता है तो नायिका मानसी (जरीन खान) तब गृहत्याग कर देती है, जब लड़के वाले देखने आए हैं. अलग-अलग राहों से निकले वीर और मानसी दिल्ली में मिलते हैं क्योंकि वहीं उनके ‘पार्टनर’ रहते हैं. वीर अपने साथी अक्षय (गुरफतेह परीजादा) के पास पहुंचता है तो मानसी को उसकी सखी निक्की (जाह्नवी रावत) रूम पर नहीं मिलती. निक्की अपने घर मैकलोडगंज गई है. घटनाचक्र ऐसे घूमता है कि मर्दाना-सी मानसी और स्त्रैण-सा वीर एक साथ मैकलोडगंज के लिए जीप में निकल पड़ते हैं. रास्ता लंबा है और जिंदगी भी उन्हें यहां-वहां घुमाते हुए अंततः अकेले-अकेले छोड़ देती है. अब क्या होगा?




दो किरदारों को सफर में संग दिखाती कहानी शुरू से अंत तक रफ्तार नहीं पकड़ती. मानसी और वीर जहां-जहां ठहर कर बातें करते हैं, वे दृश्य लंबे और उबाऊ है. दोनों की बातचीत इतनी अर्थहीन है कि लगता है डायलॉग राइटर की जगह किसी ने सैट पर खड़े-खड़े संवाद ‘नरेट’ कर दिए. वहीं जब दोनों अपनी-अपनी राम कहानी एक-दूसरे को सुनाते हुए समलैंगिता पर बात करते हैं तो अंग्रेजी फूट पड़ती है. क्या हिंदी में इस विषय पर चर्चा से शर्म पैदा होती है, क्या हिंदी में इस विषय पर संवाद करना संभव नहीं है या अंग्रेजी में ‘डिस्कस’ करने पर ही निष्कर्ष आ सकता है? हरीश व्यास संवादों के मामले में बुरी तरह गच्चा खा गए. उनके दोनों मुख्य पात्रों के संवादों में न तो परिवार या समाज से संघर्ष है, न उनके पास अपनी आत्मा को बयान करने वाले शब्द हैं. यहां आया हर समलैंगिक किरदार अपनी पहचान छुपाने का ठीकरा पिता पर फोड़ता है.


बिन पेंदे की कहानी और कमजोर संवादों वाली इस फिल्म में न तो दृश्यों को ठीक से बनाया गया और न सही रंगों से सजाया गया. गाने बैकग्राउंड में इसलिए बजते हैं कि यह बॉलीवुड फिल्म है और रोमांस का फील उनके बगैर आएगा नहीं. अंतिम पांच मिनट में जरूर फिल्म छोटा-सा ट्विस्ट लेती है, वर्ना आपको हर मोड़ पर पता होता है कि क्या होने वाला है. वह होने वाली घटना यहां इतनी अतार्किक या कच्ची है कि ‘हम भी अकेले तुम भी अकेले’ हास्यास्पद मालूम होने लगती है. फिर एक समय के बाद यह कॉमेडी का एहसास कराने लगती है.




अंशुमान झा अच्छे अभिनेता हैं मगर यह किरदार उनकी करियर-यात्रा को आगे नहीं बढ़ाएगा. यहां वह हीरो बनकर हीरोइन से रोमांस करते दिखना भी चाहते हैं और एलजीबीटी समुदाय के पोस्टर बॉय भी बनना चाहते हैं. दो नावों की सवारी फायदा नहीं देती. वहीं जरीन खान का करिअर खत्म है और इस फिल्म के बाद वह जहां थीं, वही रहेंगी. अंशुमान फिल्म निर्माता भी हैं. उन्हें भविष्य में कहानियां चुनने में सावधानी बरतनी चाहिए. इन दोनों के साथ बाकी जो कलाकार थे, उनके पास खास मौका नहीं था. फिल्म देखते हुए लगता है कि कुछ हिस्से मुख्य शूटिंग के बाद अलग से जोड़े गए. ऐसे में संपादक को दोष देना बेकार है क्योंकि कथा-पटकथा का रायता पहले ही फैल चुका था. अगर आप इस कोरोना काल में अकेले हैं, क्वारंटीन में हैं, समय काटने का मसला खड़ा है और दो जीबी का डेली मुफ्त डाटा खत्म करना ही है तो इस फिल्म को देख सकते हैं.