पुलिस कंट्रोल रूम में हर दिन आने वाले लाखों फोन कॉल्स से निकली डायल 100 की कहानी, कमजोर पटकथा और निर्देशन की वजह से बांध नहीं पाती. यहां थ्रिल कमजोर है और थोड़ी देर में ही तमाम रहस्य खुल जाते हैं. ऐसे में दर्शक की उमंग और उत्साह देर तक टिक नहीं पाते.


डॉक्टर चाहे जितना शरीर विज्ञान पढ़ लें मगर दर्द वही महसूस कर पाता है, जिसे चोट लगती है. ऐसे ही दिन-रात होने वाले हादसों से होने वाली आम लोगों की परेशानियां पुलिस भले लगातार दर्ज करे, लेकिन उनकी भयावता तभी उसके सामने आती है जब कोई पुलिसवाला खुद उससे दो-चार हो. डायल 100 यही बताती है. मुंबई के इमरजेंसी पुलिस विभाग में सीनियर पद पर बैठे पीआई निखिल सूद (मनोज बाजपेयी) के लिए एक फोन कॉल जटिल पहेली बन जाता है. वह नाइट ड्यूटी पर है और उसका किशोरवय बेटा अपनी मां (साक्षी तंवर) की बात नहीं सुनता. देर रात पार्टियों में जाता है. सूद न बेटे को समय दे पाता है और न पत्नी को. अतः वह कैसे मामला सुलझाए. बात तब और उलझ जाती है, जब कॉल करने वाली महिला सीमा पल्लव (नीना गुप्ता) अजीबोगरीब सवाल करती हैः क्या तुम अच्छे पुलिस ऑफिसर हो. क्या कभी रिश्वत नहीं ली. वह कहती है कि नॉरमल लोगों को प्रोटेक्ट करने वाला अगर उन पर जुल्म करने लगे तो उसकी सजा नॉरमल से ज्यादा होनी चाहिए. कहानी में बढ़ते हुए रहस्य के साथ यह बात खुलती है कि सीमा ने कुछ समय पहले अपना जवान बेटा खोया है और उसकी वजह है एक रईस युवक. जिसने ड्रग्स के नशे में सीमा के बेटे पर गाड़ी चढ़ा दी. वह उस युवक से बदला चाहती है. मगर इसका निखिल, उसकी पत्नी और बेटे से क्या संबंध?





जी5 पर रिलीज हुई लेखक-निर्देशक रेंसिल डिसिल्वा की डायल 100 सीधे-सरल प्लॉट पर बढ़ती है. इसमें घुमाव-फिराव या उतार-चढ़ाव नहीं हैं. एक रात के कुछ घंटों की इस कहानी में दृश्य और संवाद लंबे हैं. सीमा पल्लव का बेटे को खोने का दुख घूम-फिर कर बार-बार लौटता है. बेटे को खोकर उसमें सिर्फ डिप्रेशन और गुस्सा ही नहीं है. वह उन्हें मारना चाहिए, जो इस दर्द की वजह हैं. मगर फोन पर बात करते हुए निखिल सूद उससे सवाल करता है कि क्या ऐसा करने से दर्द कम हो जाएगा और अगर मरना-मारना ही है तो 100 नंबर क्यों डायल किया. कोई भी यह नंबर तब डायल करता है, जब हादसे की तरफ बढ़ते हुए उसमें कहीं न कहीं उम्मीद होती है क्योंकि जिंदगी खूबसूरत है. उसे झटके में खत्म नहीं किया जा सकता.




डिसिल्वा ने कहानी में कुछ ट्विस्ट और टर्न डाले हैं मगर इससे रोमांच नहीं बढ़ता. ऐसा लगता है कि उनके पास कहने को अधिक नहीं है और पौने दो घंटे की फिल्म बनानी है. नतीजा यह कि डायल 100 एक सतही कहानी में तब्दील हो जाती है. इसका थ्रिल गहरे नहीं उतरता और अपनी मेकिंग में यह टेली-फिल्म जैसा एहसास देती है. आजकल मनोज बाजपेयी हर दूसरी-तीसरी फिल्म में कर्नल, सीक्रेज एजेंट, एसीपी, डीसीपी, डीआईजी, कांस्टेबल बन रहे हैं. उनके हाव-भाव की विविधता इन किरदारों में गायब है. नीना गुप्ता और साक्षी तंवर के अभिनय में यहां वह बात नहीं कि वह याद रहें. निर्देशन के साथ पटकथा, संवाद और संपादन कसावट की मांग करता है. डायल 100 मनोज बाजपेयी और नीना गुप्ता पर फोकस करती है. पहली नजर में भले ही यह कास्टिंग रोचक लगे मगर स्क्रीन पर दोनों का जादू नहीं चलता. इन ऐक्टरों के फैन्स यह फिल्म देख कर निराश होंगे. पुलिस को लेकर आए दिन फिल्में बनती हैं. अतः जरूरी है कि कथा-पटकथा में कुछ नयापन हो. यहां उसका अभाव बहुत खटकता है. पहले कुछ मिनटों में ही साफ हो जाता है कि आगे क्या होने वाला है. किसी कहानी में दर्शक आगे की बात का अनुमान आसानी से लगा ले तो उसमें देखने को अधिक कुछ रह नहीं जाता. यह हादसा डायल 100 के साथ हुआ है. फिल्म का क्लाइमेक्स उत्साहजनक नहीं है. कुल जमा मंजे हुए कलाकारों के साथ बनी यह फिल्म औसत ड्रामा होकर रह जाती है.




ओटीटी प्लेटफॉर्मों पर निरंतर अच्छा कंटेंट देने का दबाव है, यह बात आसानी से समझी जा सकती है मगर बाजार में घिस चुके सिक्कों पर दांव लगाने से बेहतर है कि नई प्रतिभाएं सामने लाई जाएं. रेन्सिल डिसिल्वा का रिकॉर्ड बतौर निर्देशक बहुत खराब है. कुर्बान (2009) और उंगली (2014) जैसी सुपरफ्लॉप फिल्में उनके खाते में हैं. निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा की अक्स (2001) और रंग दे बसंती (2006) तथा करन जौहर की स्टूडेंट ऑफ द ईयर (2012) में बतौर लेखक रेंसिल दर्ज हैं, मगर इन फिल्मों में उनके साथ कमलेश पांडे, मेहरा और जौहर भी राइटिंग के क्रेडिट शेयर करते हैं. डायल 100 उन दर्शकों के लिए है जिनके पास पर्याप्त समय है.