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तुलसी पूजा की कथा से जानिए कैसे हुई वृंदावन की उत्पत्ति तुलसी पूजन का शास्त्रीय पक्ष

तुलसी पूजन हर हिंदू परिवार में होती है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि तुलसी की उत्पत्ति कैसे हुई. धार्मिक ग्रंथों के जानकार अंशुल पांडे से जानते व समझते हैं तुलसी पूजन और इसकी उत्पति का शास्त्रीय महत्व.

तुलसी पूजन की कथा कैसे वृंदावन की उत्पत्ति से जुड़ी है?

तुलसी पूजन की परंपरा हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है. ’तुलसी’ का अर्थ है जिसकी कोई तुलना नहीं हो सकती. तुलसी का पौधा लगभग आपको सभी सनातनियों के घर के आंगन में मिलेगा जो तुलसी को पवित्र मानते हैं. देवी पुराण 9.25.344 के अनुसार, कार्तिक-पूर्णिमा तिथि को तुलसी का मंगलमय प्राकट्य हुआ था. उस समय सर्वप्रथम भगवान श्रीहरि ने उनकी पूजा सम्पन्न की थी. अतः जो मनुष्य उस दिन उन विश्वपावनी तुलसी की भक्तिपूर्वक पूजा करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णु लोक जाता है. कार्तिक्यां पूर्णिमायां च तुलस्या जन्म मङ्गलम्। तत्र तस्याश्च पूजा च विहिता हरिणा पुरा।। 34

अगर देखा जाए तो तुलसी स्वयं माता लक्ष्मी ही हैं अर्थात तुसली और लक्ष्मी भिन्न नहीं हैं, इसका प्रमाण देवी पुराण में मिलता है.

कार्तिकीपूर्णिमायां तु सितवारे च पाद्मज। सुषाव सा च पद्मांशां पद्मिनीं तां मनोहराम्।। (9.27.8)

अर्थात:- लक्ष्मी की अंश स्वरूपिणी तथा पद्मिनीतुल्य एक मनोहर कन्या (तुलसी) को जन्म दिया  और तो और माता तुलसी के पति शंखचूड़ को भी भगवान विष्णु ही माना है अर्थात दोनों भिन्न नहीं है. इसका भी प्रमाण आपको देवी पुराण में मिलता है.

स स्नातः सर्वतीर्थेषु यः स्नातः शङ्खवारिणा। शङ्खो हरेरधिष्ठानं यत्र शङ्खस्ततो हरिः ॥ 26
तत्रैव वसते लक्ष्मीर्दूरीभूतममङ्गलम्। स्त्रीणां च शङ्खध्वनिभिः शूद्राणां च विशेषतः ॥ 27

अर्थात: शंख (शंखचूड़) भगवान श्रीहरि का अधिष्ठान स्वरूप है. जहां शंख रहता है, वहां भगवान श्रीहरि विराजमान रहते हैं, वहीं पर भगवती लक्ष्मी भी निवास करती हैं तथा उस स्थान से सारा अमंगल दूर भाग जाता है.

अब इससे ये प्रमाणित होता है कि लक्ष्मी जी ही तुलसी हैं और श्री हरी ही शंखचूड़ हैं. वृंदावन का नामकरण और तुलसी और शंखचूड़ की कहानी: ब्रह्मवैवर्त पुराण (श्रीकृष्णजन्मखण्ड अध्याय क्रमांक 17 के अनुसार) 
तुलसी ने तपस्या करके श्रीहरि को पति रूप में प्राप्त करने की इच्छा की,  उसने शङ्खचूड़ के रूप में (श्री हरि) को प्राप्त किया. भगवान नारायण उसे प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त हुए. भगवान श्रीहरि के शाप से देवेश्वरी तुलसी वृक्षरूप में प्रकट हुई और तुलसी के शापसे श्रीहरि शालग्राम (शालिग्राम) शिला हो गए. उस शिला के वक्षः-स्थलपर उस अवस्था में भी सुन्दरी तुलसी निरन्तर स्थित रहने लगी. उस तुलसी की तपस्या का एक यह भी स्थान है; इसलिए इसे मनीषी पुरुष 'वृन्दावन' कहते हैं. (तुलसी और वृन्दा समानार्थक शब्द है). जिससे भारत वर्ष का यह पुण्यक्षेत्र वृंदावन के नामसे प्रसिद्ध हुआ.

तुलसी पूजन का शास्त्रीय पक्ष

चलिए अब तुलसी पूजन का शास्त्रीय पक्ष जानते हैं. देवी पुराण, स्कन्ध क्रमांक 9 अध्याय क्रमांक 24 अनुसार, सर्वप्रथम तुलसी पूजा भगवान विष्णु ने तुलसी वन की थी. तुलसी वन में श्रीहरि ने विधिवत् स्नान किया और उन साध्वी तुलसी का पूजन किया. तत्पश्चात् उनका ध्यान करके भगवान ने भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति की. उन्होंने लक्ष्मीबीज (श्रीं), मायाबीज (ह्रीं), कामबीज (क्लीं) और वाणीबीज (एँ) -इन बीजों को पूर्व में लगाकर 'वृन्दावनी' - इस शब्द के अन्त में 'डे' (चतुर्थी) विभक्ति लगाकर तथा अन्त में वह्निजाया (स्वाहा) का प्रयोग करके दशाक्षर मन्त्र (श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृन्दावन्यै स्वाहा) से पूजन किया था. जो इस कल्पवृक्षरूपी मन्त्रराज से विधिपूर्वक तुलसी की पूजा करता है, वह निश्चितरूप से समस्त सिद्धियां प्राप्त कर लेता है.

घी का दीपक, धूप, सिन्दूर, चन्दन, नैवेद्य और पुष्प आदि उपचारों तथा स्तोत्र से भगवान श्रीहरि के द्वारा सम्यक् पूजित होकर तुलसी देवी वृक्ष से तत्काल प्रकट हो गयीं. वे कल्याणकारिणी तुलसी प्रसन्न होकर श्रीहरि के चरण–कमल की शरण में चली गयीं. तब भगवान विष्णु ने उन्हें यह वर प्रदान किया-'तुम सर्वपूज्या हो जाओ. सुन्दर रूपवाली तुमको मैं अपने मस्तक तथा वक्षःस्थलपर धारण करूंगा और समस्त देवता आदि भी तुम्हें अपने मस्तकपर धारण करेंगे' - ऐसा कहकर भगवान श्रीहरि उन तुलसी को साथ लेकर अपने स्थानपर चले गए.ॉ

भगवान श्रीहरि ने किया तुलसी की महिमा का बखान

भगवान विष्णु बोले "जब वृन्दा (तुलसी)-रूप वृक्ष तथा अन्य वृक्ष एकत्र होते हैं, तब विद्वान् लोग उसे 'वृन्दा' कहते हैं. श्री हरि आगे बोलते हैं कि "असंख्य विश्वों में सदा जिसकी पूजा की जाती है, इसलिये 'विश्वपूजिता' नाम से प्रसिद्ध उस सर्वपूजित भगवती तुलसी की मैं उपासना करता हूं. तुम असंख्य विश्वों को सदा पवित्र करती हो, अतः तुम 'विश्वपावनी' नामक देवी का मैं विरह से आतुर होकर स्मरण करता हूं. जिसके विना प्रचुर पुष्प अर्पित करने पर भी देवता प्रसन्न नहीं होते हैं, मैं शोकाकुल होकर 'पुष्पसारा' नाम से विख्यात, पुष्पों की सारभूत तथा शुद्धस्वरूपिणी उस देवी तुलसी के दर्शन की कामना करता हूं, संसार में जिसकी प्राप्ति मात्र से भक्त को निश्चय ही आनन्द प्राप्त होता है, इसलिए 'नन्दिनी' नाम से विख्यात वह देवी अब मुझपर प्रसन्न हो.

सम्पूर्ण विश्वों में जिस देवी की कोई तुलना नहीं है, अतः 'तुलसी' नाम से विख्यात अपनी उस प्रिया की मैं शरण ग्रहण करता हूं". श्रीहरि ने तुलसी को वर प्रदान किया-"तुम सबके लिए तथा मेरे लिए पूजनीय, सिर पर धारण करने योग्य, वन्दनीय तथा मान्य हो जाओ, वृन्दा, वृन्दावनी, विश्वपूजिता, विश्वपावनी, पुष्पसारा, नन्दिनी, तुलसी तथा कृष्ण जीवनी- ये तुलसी के आठ नाम प्रसिद्ध होंगे. जो मनुष्य तुलसी की विधिवत् पूजा करके नाम के अर्थों से युक्त आठ नामों वाले इस नामाष्टक स्तोत्र का पाठ करता है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है".

तुलसी का ध्यान पापों का नाश करने वाला है, अतः उनका ध्यान करके बिना आवाहन किए ही तुलसी के वृक्ष में विविध पूजनोपचारों से पुष्पों की सारभूता, पवित्र, अत्यन्त मनोहर और किए गए पापरूपी ईंधन को जलाने के लिए प्रज्वलित अग्नि की शिखा के समान साध्वी तुलसी की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए.

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[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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