वैज्ञानिकों का कहना है कि तिल खाने से पार्किंसन का खतरा कम हो सकता है. तिल के बीज में पाया जानेवाला केमिकल न्यूरोनल क्षति को रोकता है, इस तरह बीमारी से बचाने में मदद मिल सकती है. ओसका सिटी यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने केमिकल का परीक्षण किया. उन्होंने तिल 36 दिन से ज्यादा चूहों को खिलाया और पता लगाया कि उसका असर डोपामाइन लेवल और दिमाग में न्यूरोन पर क्या होता है.


क्या तिल खाने से कम हो सकता है पार्किसन का खतरा?


पार्किंसन एक तंत्रिका तंत्र से जुड़ा रोग है, जिसमें शरीर के अंगों और बोलने में कंपन महसूस होता है. तिल के बीज में मौजूद एंटीऑक्सीडेंट्स को सेसामिन और सेसामिनोल कहा जाता है. वैज्ञानिकों ने खुलासा किया कि सेसामिनोल से न्यूरोनल क्षति के खिलाफ सुरक्षा मिली और उन्होंने माना कि ये पार्किंसन का इलाज हो सकता है. 36 दिन तक सेसामिनोल वाली डाइट चूहों को खिलाने के बाद टीम ने डोपामाइन लेवल में वृद्धि देखी.


जापानी वैज्ञानिकों ने चूहों पर परीक्षण कर निकाला नतीजा


रिसर्च के दौरान उन्होंने पाया कि पार्किंसन से ग्रसित चूहों का केमिकल खाने से डोपामाइन लेवल और कंपन में सुधार हुआ. जापानी वैज्ञानिकों ने अपनी जांच को पार्किसन के खतरे को कम करने में इतना ज्यादा उत्साहजनक पाया कि अब उन्होंने जल्द ही मानव परीक्षण शुरू करने का फैसला किया है. तिल के बीज का तेल स्वाद के लिए इस्तेमाल करने की आम सामग्री है. उसे बीज से फैटी ऑयल निकालकर बनाया जाता है.


उन्होंने केमिकल का जीवित कोशिकाओं पर परीक्षण किया और पाया कि उसने ऑक्सीडेटिव तनाव का मुकाबला किया जो कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाता है. ऑक्सीडेटिव तनाव फ्री रेडिकल्स और इंसानी शरीर में एंटीऑक्सीडेएंट्स के बीच असंतुलन है. ये बहुत ज्यादा कोशिकाओं पर दबाव पैदा करता है और पार्किसन में दिमाग के नर्व सेल्स टूट जाते हैं और ऑक्सीडेटिव तनाव के कारण मर जाते हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि वर्तमान में पार्किसन डिजीज को रोकने के लिए कोई दवा नहीं है और ये बीमारी के लिए पहली दवा हो सकती है.


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